वो किताब
वो किताब
यूँ तो जीवन में बहुत सी किताबें पढ़ी ,पढ़ने का शौक बचपन से ही था ,और यह शौक पिता से विरासत में मिला था मुझे ।घर में कोई नई मैगजीन या कोई सी भी किताब भाई लाते सबसे पहले मैं ही पढ़ती ,कारण पढ़नेमें अत्यधिक रुझान था मेरा ,और यही रुझान एक दिन लिखने को भी प्रेरित करने लगा ।बहुत सी कवितायें ,कहानियाँ लिखीं ।
ऐसा ही एक क्षण था जब मैंने अपने जीवन की वह किताब पढ़ी जिसने मेरे मनोमस्तिष्क पर एक छाप छोड़ दी ,और जब वह हाथ में आई तो बिना रुके पूरी पढ़कर ही रुकी मैं ।
बहुत साल हो गए , किताब का नाम था " मृत्युंजय "
और लेखक थे "शिवजी सावंत " ।
यह एक कालजयी रचना है जिसमें दानवीर "कर्ण " के बारे में विस्तृत वर्णन है ।
जब हाथ में आई यह किताब तो मैं बहुत रोमांचित हो उठी । इस किताब को पढ़ते कभी आंखों से अश्रु धारा भी तो कभी रोंगटे खड़े हो गए ।
लगता था मैं उसी काल ,परिवेश में पहुंच गई हूँ और सब कुछ मेरी आँखों के सामने घटित हो रहा है । कर्ण की पीड़ा , दानवीरता ,मित्र के प्रति भावना सब कुछ लाजवाब लेखनी से उकेरा है लेखक ने ।लेखक की लेखनी को नमन ।
जैसे रामायण और महाभारत सीरियल टीवी पर आए और उनके पात्र सजीव हो उठे उस नाटक में ,आज भी राम का नाम लो तो अरुण गोविल जी का नाम ही आता है आँखों के सने ठीक यही महसूस होता है मृत्युंजय किताब को पढ़कर , तीन से चार बार पढ़ चुकी हूं और अब फिर से पढ़ने की तैयारी में हूँ ।
लेखक ने हर एक चरित्र को बहुत अच्छे से चित्रित किया ,हर घटना चाहे कर्ण के मन की पीड़ा हो या द्रौपदी का चीर हरण हमें उस काल, स्थान में ले जाकर खड़ा कर देती है ,लगता है हर कुछ हमारी आँखों के सम्मुख चल रहा है यही वजह है ,इस किताब के चरित्र सजीव लगते हैं और हम स्वतः ही जुड़ जाते हैं उस काल में हुई प्रत्येक घटना के साथ और यह हममें शुरू से आख़िर तक रोमांच बनाये रखती है ।बहुत अच्छी किताब है ,मेरे मन पर इसकी गहरी छाप है ,लेखक को शत शत नमन ,इतनी उम्दा रचना हेतु ।
इस किताब का मेरे जीवन में अहम स्थान है , जब खाली रहूँ मैं तब पढ़ सकती हूँ ऐसी है " मृत्युंजय " ।