खुशी के चिराग
खुशी के चिराग
रेलगाड़ी रात के सन्नाटे को चीरती हुई आगे बढ़ी जा रही थी ।धड़क---धड़क की आवाज करती हुई ।सभी यात्री अपनी -अपनी रिजर्व सीटों पर लेटे नींद के आगोश में समाये हुए थे।
''मम्मी !''
''हाँ बेटा !''
''शू शू जाना है !''पाँच साल के बच्चे ने अपनी माँ को जगाते हुए कहा ।
''हाँ चलो !'' कहती हुई वह महिला न चाहते हुए भी उठ बैठी ।
''अरे बेटा सीधे चलिये !''फ्रेश होकर बच्चा खेलने लगा और वह महिला खिड़की की तरफ़ बैठ बाहर का नजारा देखने की कोशिश करने लगी ,परंतु घोर अँधेरे के कारण कुछ भी दिखाई नहीं दिया बीच -बीच में पीछे छूटते बाहर खम्भों पर जले बिजली के बल्ब जुगुनू की भाँति छूटते प्रतीत होते थे।
''अरे बेटा ऊपर मत चढ़ो जाग जायेंगी वो !''
''कौन है मम्मी ?''
''आंटी --और कौन ?''
तभी गाड़ी स्टेशन पर रुक गयी और वहाँ पर हुए शोर को सुनकर ऊपर सो रही एक लगभग चौबीस -पच्चीस बर्षीय लड़की ''या खुदा --!'' कहती हुई उठकर बैठ गयी
''इक्स्क्यूज मी !'
''जी !''
''क्या समय हुआ है ---मेरा मोबाइल डिस्चार्ज हो गया है !''
''जी ,एक पैंतालीस !'' वह महिला खनकती हुई आवाज में बोली ।
''अरे अनामिका मैम!''वह लड़की जोर से चिल्लाई ।
''जी --!''
''मैम मैं ---मैं परवीना --!''
''परवीना ?''
''हाँ --वही इस्लामपुर वाली --!''
''ओह! तुम तो बहुत बड़ी हो गयीं !''
''आपकी दरियादिली से बड़ी नहीं !'' कहते हुए उसने अनामिका के चरण-स्पर्श कर लिये
''कहाँ जा रही हो ?''
''इलाहाबाद मैम --जोइनिंग लेटर लेने !''
''किसका ?''
''टीचिंग का !'
''अरे वाह ! मुबारक हो तुम तो बहुत काबिल हो गयी हो !'' कहते हुए अनामिका की आँखैं आँसुओं से डबडबा उठीं मानो खुशी के चिराग जल उठे हों ।
''आज मैं जो भी कुछ हूँ आपकी ही वजह से हूँ --नहीं तो मैं भी आज चूड़ियाँ ही बेच रही होती !''
''आज मैं भी बहुत खुश हूँ तुम्हारी कामयाबी देखकर पता है एक गुरू का ह्रदय आनंद से भर जाता है जब उसका कोई शिष्य कामयाब हो जाता है !'' और भी बहुत सारी बाते करती रहीं दोनो और जब ट्रेन चलने लगी तो परवीना नामक वह लड़की ट्रेन से उतर कर अपनी मंजिल की ओर बढ़ गयी। अनामिका अतीत के पन्ने उलटने लगी ।
जब उसकी पोस्टिंग एक छोटे से मिली -जुली आबादी वाले गाँव में हुई तो वहाँ के हालात बहुत खराब थे। कोई अपने बच्चों को पढ़ने के लिये नहीं भेजता था ।अनामिका घर -घर जाकर लोगो को शिक्षा का महत्व बताती और बड़ी मुश्किल से अभिभावकों को राजी करती स्कूल भेजने के लिये ।उन्ही में से परवीना थी जो दो रुपये प्रतिदिन की दिहाड़ी पर चूड़ियाँ बेचती थी। जब रोज स्कूल आने लगी तो पढ़ाई में रुचि जाग्रत होने लगी और कुछ सालों बाद अनामिका का विवाह हो गया तो उसने अपना ट्रान्सफर करा लिया ।सभी ग्रामीण और स्कूल के बच्चे उसकी विदाई पर सुबक -सुबक कर रोये थे --।''
'मम्मी भूख लगी है !''
''हाँ बेटा अभी देती हूँ !'' कहते हुए अनामिका मुस्करा दी और टिफिन खोलने लगी ।