भंवर
भंवर
और अब आर डी वर्मा, चंडीगढ़ ज़ोन के हैड। यौन उत्पीड़न यानी सैक्सुअल हैरेसमेंट की शिकायत के चौथे शिकार। एक ही बरस में। ये मामले कितने सच्चे हैं और कितने झूठे, ये तो शिकायत करने वालियां और कथाकथित आरोपी ही बता सकते हैं। उनके अलावा पूरा सच कोई नहीं जानता। लेकिन यूं ही तो कोई किसी पर इतना बड़ा इल्जाम लगाने के लिए सामने नहीं आती। खुद की भद्द पहले उड़ती है। कलेजा चाहिये किसी पर सैक्सुअल हैरेसमेंट का आरोप लगाने के लिए। सामने वाले पर जो बीतेगी, सो बीतेगी, उससे पहले शिकायत करने वाली को कम मानसिक क्लेश से नहीं गुज़रना पड़ता होगा।
संयोग कहें या दुर्योग, चारों के चारों आरोपी संस्थान के वरिष्ठ अधिकारी रहे। पूरे संस्थान में सन्नाटा छा गया है। थू-थू हो रही है वर्मा की। चेयरमैन ने खबर मिलते ही सेंट्रल बोर्ड की एक्स्ट्रा आर्डिनरी मीटिंग बुलवायी है और वर्मा को तत्काल प्रभाव से डिसमिस करने के आदेश दे दिये हैं। वैसे ये कहना भी सही नहीं है कि चेयरमैन ने वर्मा को डिसमिस करने के लिए सेंट्रल बोर्ड की एक्स्ट्रा आर्डिनरी मीटिंग बुलवायी। दरअसल वर्मा जी के कारनामे की खबर उन्हें मिली ही सेंट्रल बोर्ड की मीटिंग में। बोर्ड मेम्बर डॉक्टर सतनाम सिहं आज सुबह ही इस मीटिंग में आने के लिए चंडीगढ़ में मुंबई के लिए अपनी फ्लाइट का इंतज़ार कर रहे थे कि यूं ही पन्ने पलटने के लिए सामने रखा पंजाबी अखबार अजित ने उठा लिया। उसी में पहले पन्ने पर खबर थी आर डी वर्मा की मर्दानगी की। वैसे डॉक्टर सतनाम सिंह की निगाह न भी जाती खबर पर, लेकिन संस्थान का नाम देखते ही वे चौंके, पूरी खबर पढ़ी और अखबार लपेट कर अपने बैग में रख लिया।
बैठक शुरू होते ही उन्होंने चेयरमैन की अनुमति ले कर चुपचाप अखबार उनके सामने रख दिया। पंजाबी अखबार अपने सामने देख कर दक्षिण भारतीय चेयरमैन रमणन का चौंकना स्वाभाविक था। इससे पहले कि वे कुछ पूछ पाते, डॉक्टर सतनाम सिंह ने फ्लाइट के दौरान किया गया समाचार का अंग्रेजी अनुवाद उनके सामने रख दिया।
बम फूटना ही था। पूरे धमाके के साथ फूटा। एक पल के लिए तो चेयरमैन को सूझा ही नहीं कि क्या कहें। चेहरे पर कई रंग आये, गये। खबर पढ़ कर वे बुरी तरह से बेचैन हो गये हैं। उन्होंने डॉक्टर सतनाम सिंह की तरफ देखा है। उनके भी चेहरे पर यही पीड़ा पढ़ी जा सकती है। चेयरमैन ने बैठक में मौजूद बाकी सदस्यों की तरफ देखा। सबके चेहरों पर प्रश्न चिह्न हैं। उन्होंने ये समाचार पूरी कमेटी से शेयर करना जरूरी समझा।
समाचार के अनुवाद के सहारे संक्षेप में जितना बताया जा सकता था, उन्होंने बेहद नपे-तुले शब्दों में बताया। आर डी वर्मा क्या हस्ती हैं, ये बताया। अफसोस के साथ माना कि वर्मा की इस हरकत से संस्थान की साख को देश और विदेशों में बहुत बड़ा झटका लगेगा। इसकी भरपाई नहीं हो सकती। उन्होंने इस मामले में समिति की राय जाननी चाही। सबने एक ही स्वर में कहा - डिसमिस हिम। नो लीनिएंट व्यू। निकाल बाहर करें उसे। कोई लिहाज करने की ज़रूरत नहीं।
सबकी राय ले कर बैठक में ही एचआर हैड को बुलवाया गया है और उनसे कहा गया है कि बैठक समाप्त होने से पहले ही वे चंडीगढ़ से मामले के पूरे डिटेल्स हासिल करें और एक पल भी गंवाए बिना कमेटी को रिपोर्ट करें। तय है कि खबर पा कर और वह भी सेंट्रल बोर्ड की मीटिंग में एक सीनियर मेम्बर द्वारा बताये जाने पर, चेयरमैन अपने आप को बुरी तरह से घिरा हुआ पा रहे हैं। समाचार पत्र में संस्थान के नाम के साथ इस खबर का छपना तो परेशानी का कारण है ही, अभी मंत्रालय से फोन आने शुरू हो जायेंगे। उंगली तो, तय है, उनकी और मैनेजमेंट की काबलियत पर ही उठायी जायेगी। अभी तो डॉक्टर चोपड़ा और विपिन के मामले भी ठंडे नहीं हुए और अब एक और हंगामा। वे कोई रिस्क नहीं ले सकते।
सच तो ये है कि कमेटी रूम में बैठक में इस तरह से बुलाये जाने से पहले ही एचआर हैड को पूरी खबर मिल चुकी थी। बल्कि पिछली रात ही। सिर्फ उन्हें ही नहीं, प्रधान कार्यालय के कई वरिष्ठ अधिकारियों के मोबाइल ये खबर पा चुके थे। इस मीटिंग में मौजूद कई वरिष्ठ अधिकारियों को भी पहले से इस मामले की भनक लग चुकी थी। सीनियर वाइस प्रेसिडेंट मल्होत्रा को सबसे पहले पता चला था। बाकी कमी खबर पाने वाले अधिकारियों ने स्थानीय स्तर पर पूरी कर दी थी। अपनी तरफ से सब चुप थे। टोह ले रहे थे कि देखें, आगे क्या होता है लेकिन ये गुमान किसी को भी नहीं था कि बम सीधे बोर्ड मीटिंग में ही इस तरह से फूटेगा और वह भी अखबार की कटिंग के साथ। जान सब रहे थे कि मामला गंभीर मोड़ लेगा लेकिन इतनी जल्दी, ये कोई कल्पना भी नहीं कर पाया था। घटना कल रात चंडीगढ़ में हुई थी और बारह-चौदह घंटे में ही मुंबई में उसकी तेज आंच सबको झुलसा रही है।
वर्मा को कल शाम चंडीगढ़ में एक होटल में पुलिस द्वारा पकड़े जाने की और फिर देर रात जमानत पर छूटने की खबर अब तक मुंबई में सेंट्रल ऑफिस में हर मेज़ पर पहुंच चुकी है। अब हर फोन – "सुना आपने" की तर्ज पर पुष्टि करने के लिए खबर फैला रहा है। कोई भी अपनी तरफ से पक्की खबर नहीं दे पा रहा है, बस, सब तुक्के भिड़ा रहे हैं, नमक मिर्च लगा रहे हैं और बढ़ा-चढ़ा कर मामले को और हवा दे रहे हैं। स्थानीय अखबार में छपने के बाद तो चंडीगढ़ से आने वाली खबरें और तेज़ हो गयी हैं।
संस्थान में वर्मा के तीस बरस के रोचक इतिहास और सुने-सुनाये उनके पुराने किस्सों के आधार पर यही माना जा रहा है कि हो न हो, ऐसा सचमुच हुआ होगा, तभी तो...। कुछ मेजें ज़रूर सहमी हुई, डरी हुई, आतंकित, और हैरान-परेशान है, लेकिन काफी हद तक इस चटपटी खबर के मज़े लिये जा रहे हैं - वर्मा !!!! अरे वो वर्मा !!!! चिड़ा-चिड़ी वर्मा!!!! वो गंजा वाला वर्मा...छी:, कुछ तो सोचा होता !!!! अपना नहीं तो संस्थान में ही काम करने वाली बीवी का ही सोचा होता। बच्चों का सोचा होता। बेटी बड़ी हो गयी है, उसका सोचा होता। जितनी मेजें, उतनी बातें।
एचआर हैड ने दिये गये समय के भीतर मामले की, जितनी तहकीकात की जा सकती थी, की है। चेयरमैन के आदेश के वितरीत, अपनी तरफ से जितना नरम रुख हो सकता था, अपनाते हुए वे सारे कागजा़त के साथ कमेटी रूम में हाजिर हो गये हैं। चेयरमैन ने चल रही बैठक अधबीच ही छोड़ कर पहले इस मामले को उठाया है। एचआर हैड द्वारा दिये गये ब्यौरों को पढ़ा है, कोट की गयी सभी कानूनी धाराओं को देखा-परखा है और बैठक में उपस्थित सबके साथ शेयर किया है। इसके बाद उन्होंने सर्वसम्मति से निर्णय लेते हुए वर्मा के तत्काल डिसमिसल का आदेश दे दिया है। एसआर हैड को ताकीद कर दी गयी है कि इस मामले में फौरन कार्रवाई की जाये। चंडीगढ़ ज़ोन के सेकेंड इन कमांड को चार्ज संभालने के आदेश भी साथ ही साथ जारी करने के लिए कहा गया है। डिसमिसल के लिए जो कानूनी धाराएं लगायी जानी हैं, उनके अनुसार डिसमिसल को कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सकती। इस तरह से संस्थान से नौकरी समाप्त होने पर अन्यथा मिलने वाले बेइंतहां लाभों में से वर्मा को अब फूटी कौड़ी भी नहीं मिलेगी।
इससे पहले कि एचआर हैड बैठक कक्ष से बाहर आते, एक और गेम खेला जा चुका है। सीनियर वाइस प्रेसिडेंट (पर्सोनल) मिस्टर मल्होत्रा ने इस मामले पर एचआर हैड द्वारा तैयार किये गये नोट पर अपने हस्ताक्षर किये, उसे चेयरमैन की तरफ हस्ताक्षर के लिए बढ़ाया और एक्सक्यूज मी कह कर एटैच्ड वाश रूम में घुस गये। तीन मिनट बाद जब वे हाथ पोंछते हुए बाहर आये हैं तो पूरी बाजी पलटी जा चुकी है।
एचआर हेड चुनौती न दी जा सकने वाली सारी कानूनी धाराएं जोड़ते हुए आर डी वर्मा, ज़ोनल हैड, चंडीगढ़ का डिसमिसल लेटर तैयार करके फैक्स करवा पायें, इससे पहले ही चंडीगढ़ से वर्मा का तत्काल प्रभाव से नौकरी से त्यागपत्र आ गया है। अब मैंनेजमेंट की ओर से भेजे जाने वाले डिसमिसल लेटर का कोई मतलब नहीं रह गया है। सीनियर वाइस प्रेसिडेंट मिस्टर मल्होत्रा एक बार फिर अपने एक और पिट्ठू को साफ-साफ बचाने में कामयाब हो गये हैं। बेशक वे बाद में वर्मा की कितनी भी लानत-मलामत करें, लेकिन उसे इस तरह से नौकरी से बेदाग बाहर करवा ही लिया है उन्होंने। और तो और, डिसमिसल से पचीस लाख रुपये के करीब आर्थिक लाभों की और अच्छी खासी सुविधाओं की जो चपत लगती, उससे वर्मा साफ-साफ बच गये हैं। सीनियर वाइस प्रेसिडेंट मिस्टर मल्होत्रा हमेशा वही करते हैं जो चेयरमैन रमणन के आदेशों के खिलाफ जाता हो। संस्थान जाये भाड़ में।
अब सब कुछ ऑफिशियल हो गया है। खबर पर सेंट्रल बोर्ड की मुहर लग गयी है। धीरे-धीरे चंडीगढ़ से भी विश्वस्त सूत्रों से ज्यादा और पक्की खबरें आने लगी हैं। एचआर विभाग का तंत्र अपने हिसाब से खबरें प्रसारित कर रहा है। बेशक हर खबर अपने आप में दूसरी खबर से अलग है और सारी खबरें आपस में मैच नहीं कर रहीं। फिर भी सारी खबरों का निचोड़ निकाला जाये तो उसके अनुसार किस्सा कुछ यूं बनता है।
दरअसल वर्मा ने पुलिस द्वारा गिरफ्तार किये जाते ही जो इकलौता फोन करने की इजाज़त पुलिस से मांगी थी, वह फोन मल्होत्रा साहब को ही किया गया था। देखा जाये तो वर्मा की ज़मानत भी मल्होत्रा के दस फोन खड़काने के बाद ही हो पायी थी। मल्होत्रा कभी खुद चंडीगढ़ ज़ोन के हैड रह चुके थे और वहां अपनी पोस्टिंग के दौरान उन्होंने सबसे जो दारू-संबंध बनाये थे, अब जा कर वे उन संबंधों को भुना पाये थे। पूरा सिस्टम हिला दिया था उन्होंने रातों-रात लेकिन किसी तरह भी वर्मा के खिलाफ दिये गये मिस कैथरीन के बयान को नहीं बदलवा पाये थे। बल्कि मल्होत्रा के ज्यादा ज़ोर देने का ही नतीज़ा रहा हो शायद कि खबर अखबारों तक लीक हो गयी है और बात का बतंगड़ बन गया है।
उड़ती-उड़ती खबर के अनुसार बद्दी, हिमाचल प्रदेश में फ्रांस की एक कम्पनी का हेल्थ केयर उत्पादों का एक प्लांट है। कम्पनी के हैड ऑफिस से जुड़ा एक बेहद तकनीकी मामला कई दिन से चंडीगढ़ ज़ोनल ऑफिस में अटका पड़ा था। फ्रांस से कम्पनी के मुख्यालय से एक वरिष्ठ अधिकारी कैथरीन जब फैक्टरी विजिट पर आयीं तो ये मामला सुलटाने के लिए चंडीगढ़ ज़ोनल ऑफिस भी गयीं। वह अपने साथ जोनल हैड के लिए अपनी कम्पनी के उत्पादों का एक गिफ्ट पैक भी लायी थीं। ये एक सामान्य सी औपचारिकता थी।
अब हुआ ये कि ज़ोनल हैड पचपन वर्षीय वर्मा जी बेहद खूबसूरत तीस बरसीय कैथरीन पर फिदा हो गये। कैथरीन के बात करने के दिलकश तरीके और पहनावे के खुलेपन के गलत अर्थ लगा बैठे वर्मा जी उसे देखते ही उस पर दिल हार बैठे। वे उस पर इतने ज्यादा फिदा होते चले गये कि कागज़ात तैयार हो जाने के बावजूद उसे कई दिन तक नहीं दिये और आज कल पर टरकाते रहे। हर बार उसके आने पर सामने बिठा कर लंतरानियां हांकते रहे। बार-बार हाथ मिलाने के बहाने उसे छूने या उसके नजदीक आने की कोशिशें करते रहे। ऊपर से तुर्रा ये कि उसके आने पर केबिन की लाल बत्ती भी जला देते ताकि कोई डिस्टर्ब करने न आ सके। वो बेचारी कहती-कहती थक गयी कि मामला ठीक होने और पेपर्स पूरे होने के बावजूद उनकी कम्पनी को लेटर न मिल पाने के कारण उन्हें बहुत नुक्सान हो रहा है। उसे बार-बार अपनी वापसी की तारीख बदलनी पड़ रही है। अगर पेपर्स तैयार हैं तो दे दिये जायें और अगर कहीं कोई कमी है तो बताया जाये, लेकिन वर्मा जी पर पता नहीं इश्क का कैसा भूत सवार हुआ कि पेपर्स तैयार होने के बावजूद कई दिन तक नहीं दिये तो नहीं ही दिये।
आखिर कल शाम वर्मा साहब पेपर्स लेकर उसके होटल जा पहुंचे। मैडम को फोन करके बताया कि देर शाम तक बैठ कर उन्होंने पेपर्स अपनी निगरानी में तैयार करवा लिये हैं और मामले की नज़ाकत को समझते हुए पेपर्स खुद ले कर उसके होटल आ रहे हैं। अखबार की खबर के अनुसार वर्मा जी ने उसे पेपर्स क्लीयर हो जाने की खुशी में डिनर का न्यौता भी दिया था।
वे उसके होटल खाली हाथ नहीं गये, बल्कि पीने-पिलाने का पूरा इंतज़ाम करके चले। उन्हें लगा आज या तो आर या पार का खेल हो ही जाये। एक पल के लिए भी नहीं सोचा कि उनकी इस हरकत का क्या परिणाम हो सकता है। उनके खुद के लिए या संस्थान के लिए। ऑफिस में किसी को भी विश्वास में नहीं लिया था। आज तक ऐसा कभी नहीं हुआ था कि क्लायेंट्स के पेपर्स देने खुद ज़ोनल हैड उसके होटल जा पहुंचे। ये संस्थान के नियमों से सरासर खिलाफ है। यहां तक कि चपरासी भी कहीं पेपर्स देने नहीं जा सकता। नियमानुसार पेपर्स या तो कूरियर किये जाते हैं या पार्टी कलेक्ट करने के लिए खुद इंतज़ाम करती है।
कैथरीन कई दिन से उनकी टपकती लार देख चुकी थी। हो सकता है, उसे इस तरह का एकाध अनुभव हाल ही में पहले भी हो चुका हो। ऊपर से वर्मा द्वारा कई दिन से लटकाये बिठा कर भी पेपर्स न देने के कारण वह भड़की बैठी थी। उसका सारा शेड्यूल बिगड़ा जा रहा था।
ये कयास भिड़ाया जा रहा है कि अपने होटल में आये इतने सीनियर आफिसर को देख कर कैथरीन ने अपने अटके काम का लिहाज करते हुए वर्मा को स्माइल किया होगा, बैठने के लिए कहा होगा। वर्मा के हाथ में अपनी फाइल देख कर उनके हाल-चाल पूछे होंगे, उनकी लायी शराब के लिए कम्पनी देना स्वीकार कर लिया होगा, उन्हें एकाध पैग का साथ दिया होगा, लेकिन जब वर्मा जी खुल्ला खेल फर्रुखाबादी खेलने लगे होंगे तो कैथरीन ने भी, बताते हैं, अपने पत्ते दिखा दिये। होटल के रिसेप्शन पर फोन किया, होटल की सिक्यूरिटी पर उंगली उठायी और होटल वालों को पुलिस बुलवाने पर मज़बूर किया।
ये भी बताते हैं कि कैथरीन के इस तरह से बिदक जाने और होटल की सिक्यूरिटी को बुलवा लेने से मामला बिगड़ता देख वर्मा ने कैथरीन के कमरे से भागने की कोशिश की और दरवाजे की ओर लपके, लेकिन बताते हैं कि कैथरीन ने उनका गिरेबान पकड़ लिया और कमरे के बाहर पैसेज में ले आयी। वह बेहद गुस्से में थी और उसने चिल्ला-चिल्ला कर भीड़ जुटा ली थी। एक तो होटल का मामला, ऊपर से युवा विदेशी लड़की और तीसरे उसके हाथ में एक अधेड़ आदमी का कॉलर, उसे सारी बाजी अपने पक्ष में करने में एक मिनट भी नहीं लगा।
वर्मा जी की सारी इश्कबाजी धरी रह गयी और वे पुलिस के हवाले कर दिये गये।
कैथरीन ने वर्मा पर कमरे में अनधिकृत प्रवेश करने और छेड़छाड़ करके शारीरिक और मानसिक रूप से तकलीफ पहुंचाने का आरोप लगाया।
अपनी इस हरकत से वर्मा रातों-रात चंडीगढ़ के और पूरे संस्थान के नये हीरो बन गये हैं।
याद करता हूं, ये वही वर्मा जी हैं जिन्हें और उनकी पत्नी सुषमा वर्मा को बरसों तक ऑफिस में चिड़ा-चिड़ी के नाम से जाना जाता रहा। मैं वर्मा को पिछले 25 बरस से तो जानता ही होऊंगा। संस्थान में नौकरी के पहले दिन से। बल्कि सच तो ये है कि संस्थान में आने से पहले से ही। गंजा सिर, तीखी और सामने वाले को भेदती आंखें, चेहरे पर हमेशा टेढ़े होंठों वाली एक कुटिल मुस्कान। इस मुस्कान को देख कर सामने वाले को तुरंत पता चल जाता था कि इस आदमी की नीयत साफ नहीं है। कद छोटा, रंग साफ। मैंने उन्हें हमेशा पैंट बुश्शर्ट और चप्पल में ही देखा। तेज-तेज चलते थे वर्मा।
उनकी पत्नी सुषमा वर्मा और मैं एक ही बैच के हैं। मिस्टर वर्मा से परिचय बेशक मेरे और सुषमा जी के संस्थान में चयन के लिए साक्षात्कार के दिन ही हुआ था, लेकिन शक्ल से मैं उन्हें पहले से जानता था। उन्हें पहले भी कई बार देख चुका था। उन दिनों मैं दिल्ली में था और हर तरह की नौकरी के लिए लिखित परीक्षाएं और इंटरव्यू दिया करता था। जब भी मैं किसी नौकरी के लिए लिखित परीक्षा देने जाता, परीक्षा के बाद बाहर आते समय उन्हें परीक्षा हॉल के बाहर बैठा देखता। मैंने उन्हें अक्सर देखा था लेकिन जानने की कोशिश नहीं की थी कि ये गंजा-सा, घुन्ना-सा आदमी हर बार परीक्षा हाल के बाहर बैठा किसकी राह देख रहा होता है। वहां ऐसे कई लोग होते थे जो अपनी बेटियों वगैरह को लिवाने आये होते थे। हर बार ऐसे लोग बदलते रहते थे लेकिन दिल्ली में दी जाने वाली सभी कम्प्टीशन परीक्षा केन्द्रों के बाहर मैं उन्हें देखा करता था। कई बार इंटरव्यू तक पहुंच जाने पर मैं उन्हें वहां पर भी आसपास मंडराता देखता था।
इस रहस्य से परदा तब उठा था जब इस संस्थान के लिए मैं लिखित परीक्षा में पास हो गया था और इंटरव्यू देने मुंबई यानी तब की बंबई आया था। श्रीमान वहां भी मौजूद थे। साथ में थी एक मरगिल्ली-सी, सकुचाती, शरमाती-सी लेकिन बेहद गोरी महिला। गोरेपन के बावजूद उसे सुंदर तो नहीं ही कहा जा सकता था। जनाब एक कोने में बैठ उसे कुछ रटवा रहे थे। तभी पता चला था कि ये आर डी वर्मा हैं और इनके साथ की महिला इनकी पत्नी सुषमा वर्मा। बताया गया, वर्मा जी इसी संस्थान में दिल्ली में काम करते हैं। तभी मुझे याद आया था कि ये वही हैं जिन्हें मैंने अक्सर दिल्ली में अलग-अलग लिखित परीक्षाओं में सेंटर के बाहर बैठे देखा था।
जब मेरा चयन हो गया और जब मुझे दिल्ली ज़ोनल ऑफिस में मेडिकल कराने के लिए कहा गया तब ये दोनों वहां भी मौजूद थे। इसका मतलब मिसेज सुषमा वर्मा का भी चयन हो गया है और वे भी मेडिकल के लिए आयी हैं। तब पहली बार मिस्टर और मिसेज वर्मा से बात हुई थी। ये कहना शायद गलत होगा कि मिसेज वर्मा से भी बात हुई थी। मैं अगर सुषमा जी से कुछ पूछता था तो जवाब मिस्टर वर्मा ही देते थे।
मेरा मेडिकल हो गया था और मिसेज वर्मा को मेडिकल के लेवल पर ही रोक लिया गया था। तब वे चार महीने की प्रेगनेंट थी। उनसे कहा गया था कि वे डिलीवरी के 6 महीने बाद दोबारा मेडिकल के लिए आयें। तभी नये सिरे से मेडिकल होगा, अलबत्ता चयन सूची में उनकी वरिष्ठता कायम रहेगी। और इस तरह मिसेज वर्मा ने मेरे ज्वाइन करने के लगभग एक बरस बाद ज्वाइन किया था।
हम एक ही सेक्शन में थे। मुझसे सीनियर थीं वे रैंक में। और उस बात का अफसोस वे हमेशा करती रहीं कि मैं रैंक में उनसे जूनियर होने के बावजूद विभाग में उनसे सीनियर था। इसके लिए उन्होंने मुझे कभी माफ नहीं किया। तब तक श्री वर्मा भी अपना ट्रांसफर मुंबई करवा चुके थे।
उन दिनों संस्थान के पास मकानों की बहुत कमी थी और रहने के लिए सभी को अपना खुद का इंतजाम करना पड़ता था। मैं अंधेरी में पेइंग गेस्ट बन कर रह रहा था। वर्मा ने ही बताया था वे घाटकोपर में एक परिचित की कोचिंग क्लासेस में डेरा डाले हुए हैं। सोने की जगह और बाथरूम की सुविधा। सामान रखने के लिए बस, एक अलमारी। दिक्कत एक ही है कि क्लासेस खत्म होने के बाद यानी नौ बजे ही वहां जा सकते हैं। 6 महीने के बच्चे को वे दिल्ली में नानी के पास छोड़ कर आये थे। शाम 6 बजे ऑफिस छूटने के बाद उन्हें मजबूरन दो-तीन घंटे सड़कों पर ही गुज़ारने पड़ते। स्टाफ के लिए नाश्ते और खाने की व्यवस्था संस्थान में थी, शाम का खाना उन्हें होटल में खाना पड़ता। इसी चक्कर में वे आफिस बंद हो जाने के बाद सड़कों पर भटकते फिरते।
दोनों को हर शाम एक दूसरे का हाथ थामे गेटवे, कोलाबा, मैरीन ड्राइव या चौपाटी पर देखा जा सकता था। दोनों आपस में एक-दूसरे से इतने गुंथे हुए रहते थे कि कभी किसी तीसरे से बात ही नहीं करते थे। दिन में भी किसी और से कम ही बात करते। यहीं से वे चिड़ा-चिड़ी कहलाने लगे थे। आपसी नजदीकी और निर्भरता की सारी सीमाएं लांघते हुए। तब दोनों की उम्र तीस के आस-पास तो रही ही होगी। हमारा विभाग सड़क के इस तरफ वाली इमारत में तीसरी मंजि़ल पर था और मिस्टर वर्मा का विभाग सड़क के उस तरफ ठीक सामने वाली इमारत में पांचवीं मंजि़ल पर था। यानी पति-पत्नी आमने सामने की इमारतों में बैठते थे।
दोनों एक साथ ऑफिस आते, अपनी उपस्थिति दर्ज करते, और कैंटीन की तरफ चल देते। दिन भर कई बार इंटरनल फोन पर बात करते, यहां तक कि अगर मिसेज वर्मा को किसी मामले पर बात करने के लिए किसी दूसरे अधिकारी की मेज पर पांच मिनट के लिए भी जाना होता तो वह अपने पति को उस अधिकारी का इंटरनल नम्बर बता कर ही उस मेज तक जाती। उस अधिकारी का इंटरनल फोन बजते ही मिसेज वर्मा पूरे विश्वास के साथ बता देती कि मेरा फोन है। दोनों इंटरनल फोन दिन में कई बार बात करते और एक-एक मिनट की खबर इधर से उधर होती रहती।
लंच वे एक साथ करते, लंच के बाद दस मिनट की वॉक एक साथ करते। विदा होते समय अगर वे सड़क के इस तरफ होते, तो मैडम इंतज़ार करतीं कि वर्मा जी सड़क पार कर लें या सड़क के उस तरफ होने पर वर्मा जी बीवी के सड़क पार करने की राह देखते और दोनों एक दूसरे की तरफ हाथ हिला कर बाय करते। इतना ही नहीं, वर्मा अपने फ्लोर पर पहुंच कर इस बिल्डिंग की तरफ वाली शीशे की खिड़की के पास खड़े हो जाते। तब तक मैडम तीसरी मंजि़ल पर सड़क की तरफ बने लेडीज़ वाशरूम की खिड़की पर जा खड़ी होतीं और दोनों वहां से सड़क के आर पार अपनी अपननी खिड़की से टाटा, बाय-बाय करते। ये देखने लायक नज़ारा होता। सब लोग देखते और मज़े लेते।
दोपहर को बेशक ऑफिस की तरफ से सीट पर चाय सर्व होती लेकिन वे दोनों चाय के बाद एक बार फिर बाहर निकल जाते और आधे पौने घंटे तक मटरगश्ती करने के बाद लौटते। सारा ऑफिस उनके इस चिड़ा-चिड़ी इश्क का मज़ाक उड़ाता लेकिन वे कभी किसी की परवाह न करते।
यह एक बहुत बड़ी सच्चाई थी कि मिसेज वर्मा अपने काम में पूरी तरह से लद्धड़ थीं। न काम आता था, न सीखना चाहतीं और न ही करना चाहतीं। किसी तरह से दिन पूरा करतीं और अपने आप में मस्त रहतीं। कोई कुछ कह दे तो अपनी सीट पर बैठे कसमिन लड़कियों की तरह टसुए बहाना शुरू कर देतीं। पता चला था कि उन्होंने कहीं से पत्राचार पाठ्यक्रम के माध्यम से उपाधियां हासिल कर रखी थीं। एक सच ये भी था कि ये नौकरी उन्हें पति की कोशिशों के कारण ही मिली थीं और वे बस, किसी तरह निभा रही थीं। वे ऐसी अकेली नहीं थीं ऐसी। कई लोग इसी तरह नौकरियां कर रहे थे और इस तरह नौकरी करते हुए पूरी जिंदगी गुज़ार देते थे।
उन्हें ऑफिस की तरफ से नियमित घर मिलने में तीन बरस तो लग ही गये होंगे लेकिन उनका चिड़ा-चिड़ी का खेल हमेशा इसी तरह चलता रहा और वे पूरे ऑफिस में अपने अनूठे अंदाज के प्रेम के लिए जाने जाते रहे। घर मिल जाने के बाद बेशक उनकी शामें या रातें बदली होंगी, दिन और दिल नहीं बदले।
इस बीच सबकी तरह बारी-बारी से मिस्टर वर्मा और मिसेज वर्मा के भी रूटीन ट्रांसफर हुए लेकिन ट्रांसफर चाहे मिस्टर वर्मा का हुआ हो या मिसेज वर्मा का, कह सुन कर दोनों ने पहले तो कई बरस ट्रांसफर रुकवाये, और जब रुकवाना संभव नहीं हुआ तो दोनों ने एक ही सेंटर पर करवा लिया चाहे इसके लिए किसी जमे-जमाये अधिकारी को बेदखल करना पड़ा हो। दो-एक बार तो मल्होत्रा ही थे एचआर में। बहुत पहले मल्होत्रा कॉलोनी में इनके पड़ोसी रह चुके थे और पूल कार के इनके पार्टनर भी। बरसों तक दोनों के परिवारों के बीच अच्छे संबंध रहे। जब तक पिछले केन्द्र से मल्होत्रा साहब का परिवार नहीं आया था, वे वर्मा दम्पत्ति के ही मेहमान बने रहे। मल्होत्रा साहब बाद में हमेशा वर्मा परिवार के प्रति पड़ोसी धर्म निभाते रहे। यही वजह रही कि हर बार वर्मा दम्पत्ति एक साथ नये सेंटर पर चल पड़ते। संस्थान में और भी कई दम्पत्ति काम करते थे लेकिन एक साथ दोनों का एक ही सेंटर पर जाना बहुत बड़ी बात माना जाता था।
वर्मा दम्पत्ति बाद में जहां भी रहे, उनके चिड़ा-चिड़ी वाले किस्से हर सेंटर से सुनने में आते रहे। अलबत्ता, इस बार मिसेज वर्मा मिस्टर वर्मा के साथ चंडीगढ़ ट्रांसफर ले कर नहीं गयीं और वहीं ये हादसा हो गया। इनकी सबसे छोटी बेटी बारहवीं में है इसलिए चाह कर भी वे अपने पति के साथ नहीं जा पायीं। लोग तो अब ये भी कयास भिड़ा रहे हैं कि हो सकता है, इस लम्बे अलगाव के कारण ही वर्मा जी अपने आप पर काबू न कर पायें हों और गोरी चमड़ी देख कर फिसल पड़े हों।
कारण कुछ भी रहा हो, जो कुछ हुआ है सामने है। सबकी प्रतिक्रिया अलग-अलग है। अगर कुछ अफसर मज़े ले रहे हैं तो कुछ लोग डरे हुए भी हैं। वे लोग ज्यादा डरे हुए हैं जो केबिन में बैठते हैं और जिनके पास लेडीज़ विजिटर्स ज्यादा आती हैं। वैसे तो वो लोग भी डरे हुए हैं जिनके पास लेडीज़ स्टाफ ज्यादा है।
विपिन चंद्र और त्रिपर्णा बसु के मामले में भी तो यही हुआ था। दोनों आगे-पीछे के बैच के थे। रिसर्च विंग में थे इसलिए हमेशा उन्हें लगभग एक-साथ काम करने के मौके मिलते रहे। कम से कम बीस बरस से तो एक-साथ काम कर रहे थे। दोनों ही बहुत सीनियर रैंक तक पहुंच गये थे। विपिन ने त्रिपर्णा की गोपनीय रिपोर्टें कई बार लिखी होंगी। इन्हीं के आधार पर त्रिपर्णा को कैरियर की सीढि़यां चढ़ने में मदद भी मिली होगी। मैत्री भाव दोनों में बेशक न रहा हो लेकिन मन मुटाव जैसी बात भी नहीं थी। जैसे ऑफिस में होता है, सहज औपचारिक संबंध थे उनमें। कोई ऐसा मामला भी कभी सुनने में नहीं आया था कि दोनों में कहीं कोई कहा-सुनी हो गयी हो, लेकिन कितनी देर लगी त्रिपर्णा को विपिन पर सैक्सुअल हैरेसमेंट का इल्जाम लगाने में। एक मिनट भी नहीं। लोग दांतों तले उंगली दबा बैठे। कोई सोच भी नहीं सकता था कि विपिन ऐसा कर सकते हैं वो भी अपनी बयालीस वर्षीय सहकर्मी के साथ।
इस मामले में बताया गया कि विपिन और त्रिपर्णा किसी रिसर्च प्रोजेक्ट पर एक साथ काम कर रहे थे। सवेरे सवा दस का समय रहा होगा। ऑफिस में अभी लोग आने शुरू हुए ही थे। त्रिपर्णा ने विपिन से इंटरनल फोन पर पूछा – उनके केबिन में आ कर डिस्कस करने के बारे में। ये एक सामान्य-सी बात थी और पूछना भी उतनी ही सामान्य-सी औपारिकता। अक्सर वरिष्ठ स्तर के अधिकारी एक दूसरे के केबिन में बिन बताये ही आते-जाते रहते थे लेकिन किसी मामले पर चर्चा करने के लिए पूछ कर जाना इसलिए बेहतर रहता था कि हाथ में फाइलें होतीं और हो सकता है, वह अधिकारी जगह पर ही न हो या किसी और के साथ बिजी हो।
बताते हैं कि जब त्रिपर्णा विपिन के केबिन में पहुंचीं तो वे अपना कम्पयूटर ऑन किये हुए कुछ देख रहे थे। त्रिपर्णा को सामने बैठने के लिए कह कर भी अपने स्क्रीन पर आंखें गड़ाये देखते रहे और बात शुरू ही नहीं की। त्रिपर्णा ने दो-एक बार इशारा किया लेकिन विपिन स्क्रीन में ही उलझे रहे और मंद-मंद मुस्कुराते रहे।
जब त्रिपर्णा को इंतज़ार करते हुए बहुत देर हो गयी और उन्होंने सर.. कह कर उनका ध्यान अपनी ओर दिलाना चाहा तो आखिर विपिन ने उनकी तरफ देखा और मुस्कुरा कर उन्हें अपनी सीट के पास रखी एक कुर्सी पर बैठने के लिए कहा। त्रिपर्णा ने ज्यों ही स्क्रीन की तरफ देखा, उनके तो होश ही उड़ गये। स्क्रीन पर हार्ड कोर पोर्न फिल्म चल रही थी। आवाज़ म्यूट की गयी थी। त्रिपर्णा अचानक फट पड़ीं - ये सब क्या चल रहा है सर? ये सब देखना था तो मुझे डिस्कस करने के लिए बुलाया ही क्यों। आप शौक से देखिये, मुझे क्यों दिखा रहे हैं? डिस्गस्टिंग! त्रिपर्णा बेहद घबरा गयी थीं और उन्हें सूझा ही नहीं कि क्या करें। इससे पहले कि वे हड़बड़ा कर विपिन के केबिन से बाहर आतीं, बताते हैं कि विपिन ने मुस्कुरा कर कहा था - अरे इसमें ऐसा कुछ नहीं है। वी आर मैच्योर पीपल। सब चलता है। वी कैन ...। उनका अधूरा वाक्य वहीं उनके केबिन में टंगा रह गया था। त्रिपर्णा गुस्से में दनदनाती हुई आफिसर्स एसोसिएशन की लेडीज विंग की प्रतिनिधि के पास लपकीं और उन्हें रोते हुए पूरा किस्सा सुनाया। तब तक आस-पास दो-चार सिर और जुड़ गये थे। बात को पर लगते देर नहीं लगी। आनन-फानन में मोर्चा तैयार हो गया और कई महिलाएं ऑफिस में बने सैक्सुअल हैरेसेमेंट इन वर्किग प्लेसेस के खिलाफ एक्शन ग्रुप की इंचार्ज के पास जा पहुंचीं।
शिकायतनामा तैयार हुआ, त्रिपर्णा ने हस्ताक्षर किये, उसे एचआर में दिया गया, उस पर कार्रवाई हुई, सेंट्रल बोर्ड की तत्काल बैठक बुलायी गयी और तीसरे दिन तक विपिन को बाहर का रास्ता दिखाया जा चुका था।
मामले की गंभीरता की हवा लगते ही विपिन उस दिन समय रहते ही अपने केबिन से चुपचाप खिसक लिये थे। फिर कभी वापिस नहीं आये।
इस मामले में सच क्या था, आज तक कोई नहीं जान सका है। विपिन से शायद ही किसी की मुलाकात हुई हो। उन्हें तो इस्तीफा देने का समय भी नहीं मिल पाया था। डिसमिसल पत्र उनके घर भिजवा दिया गया था। त्रिपर्णा से कभी कोई पूछने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाया। सच वही माना गया जो उन्होंने अपनी शिकायत में लिख कर दिया था।
ऐसे मामलों में यही तो दिक्कत है। कोई सुनवाई नहीं। पीड़ित पक्ष ने जो कह दिया वही सही। विपिन के शानदार कैरियर का इतना दु:खद अंत किसी ने भी नहीं सोचा था। बेचारे शर्म के मारे अपनी ड्राअर्स तक खाली करने नहीं आये। अब किस-किस को अपने बेकसूर होने की सफाई देते फिरें जबकि मैनेजमेंट का फैसला उन्हें एक भी शब्द कहने का मौका दिये बिना उनके खिलाफ सुना दिया गया। उन्हें सारे आर्थिक लाभों से वंचित करते हुए।
बाद में लोग दबी जुबान से अलग ही किस्सा कहते सुने गये। अपने विभाग के वरिष्ठता क्रम से अगली विदेशी पोस्टिंग विपिन चंद्र की थी। बाहर जाने के लिए विभाग में उनके बाद त्रिपर्णा का नम्बर आता लेकिन विपिन के तीन बरस बाद लौटने के बाद। तो इसी मौके को हड़पने के लिए त्रिपर्णा ने ये चाल चली।
जो लोग विपिन के बेकसूरवार होने की बात करते हैं वे बताते हैं कि बेशक विपिन के कम्प्यूटर में ब्ल्यू फिल्म की सीडी रही होगी, विपिन ने देखी भी होगी और त्रिपर्णा ने भी देखी होगी, लेकिन ये प्लांटेड सीडी थी। किस्से के इस संस्करण के अनुसार त्रिपर्णा अपने सिस्टम पर जो काम कर रही थी, उसी की सीडी बना कर लायी थी। जैसा कि दोनों में तय हुआ था, वह पिछली शाम एक नज़र देखने के लिए सीडी घर पर ले कर गयी थी और वही डेटा दिखाने के लिए विपिन के केबिन में आयी थी। ये एक सामान्य सी बात थी। लेकिन इसी सामान्य बात को असामान्य बना दिया उस ब्लू फिल्म की सीडी ने जो अपनी सोची-समझी चाल के तहत त्रिपर्णा ले कर आयी थी। विपिन की सीट की तरफ आ कर खुद त्रिपर्णा ने उनके सीपीयू में सीडी डाली थी, उसे चलाते ही फारवर्ड कर दिया था और सीन इस तरह का बना दिया था जैसे लगे कि दरअसल विपिन उसके केबिन में आने से पहले से ये सीडी देख रहे थे और जान बूझ कर ऐसे वक्त पर उसे बुलाया। बाद में डेटा की सीडी तो मेज़ पर पायी गयी थी लेकिन कथित ब्लू फिल्म वाली सीडी गायब थी।
अब ये बताना किसी के लिए भी संभव नहीं था कि आखिर वो सीडी गयी कहां।
बेशक त्रिपर्णा विपिन को अपने रास्ते से हटाने में सफल हो गयी हों, लेकिन हुआ उलटा ही था। त्रिपर्णा को तीसरे दिन ही नार्थ ईस्ट ज़ोन का हैड बना कर वहां से हटा दिया गया। जैसे सैक्सुअल हैरेसमेंट वाले मामले में कोई सुनवाई नहीं थी, जनहित में किये गये ट्रांसफर के मामले में भी कोई सुनवायी नहीं थी।
ये विपिन त्रिपर्णा केस के बाद ही हुआ था कि पूरे संस्थान में ऑफिशियल संवाद के सारे इलैक्ट्रानिक साधन एकदम सीमित कर दिये गये थे। रातों-रात एक बाहरी एजेंसी को काम दे दिया गया था। अब ऑफिस में हर सिस्टम में सिर्फ कार्पोरेट ईमेल के इस्तेमाल की ही अनुमति थी। जीमेल, फेसबुक और अन्य खाते एकदम बैन कर दिये गये। लगभग सारी साइट्स पर बैन लगा दिया गया। कुछ भी खोजने पर गूगल सर्च हर बार यही बताता कि इस साइट पर जाने की अनुमति नहीं है। पोर्न साइट देख पाना तो दूर, अब विकीपीडिया भी सबकी पहुंच से बाहर कर दिया गया था। यहां तक कि पैनड्राइव के इस्तेमाल की भी अनुमति नहीं थी अब। ऑफिस के काम से किसी साइट विशेष पर जाने के लिए विभाग के प्रभारी के माध्यम से आइटी एडमिनिस्ट्रेटर से लिखित अनुमति लेनी होती जो आम तौर पर ठंडे बस्ते में डाल दी जाती।
पूरा संस्थान पहले ही से पूरी तरह से कम्प्यूटरों पर काम कर रहा था, अब इतनी सारी बंदिशें लग जाने से सामान्य काम भी बुरी तरह से प्रभावित होने लगा था। बेशक समय बीतने के साथ-साथ इन सब बंदिशों की आदत पड़ जाती लेकिन फिलहाल सब लोग विपिन त्रिपर्णा कांड को इन सब के लिए दोषी मान रहे थे। कोस रहे थे उन्हें।
लेकिन डॉक्टर चोपड़ा का मामला थोड़ा अलग रहा। इस बरस का दूसरा मामला था वह। डॉक्टर चोपड़ा लखनऊ ज़ोन के हैड थे। बहुत काबिल अफसर माने जाते थे। बताया गया कि अपने प्रोजेक्ट की रिपोर्ट देने आयी एक मैनेजमेंट ट्रेनी से अपने केबिन में ही इश्क लड़ा बैठे। पता नहीं कितना सच है इस बात में लेकिन माना तो वही गया जो लड़की ने अपनी शिकायत में लिखा – ही ट्राइल्ड टू मोलेस्ट मी इन हिज़ केबिन। ही एम्ब्रेस्ड मी एंड किस्ड मी (उन्होंने अपने केबिन में मुझसे छेड़खानी करने की कोशिश की। उन्होंने मुझे अपने गले से लिपटाया और गाल पर चूमा)।
उसके पिता सरकार में तोप किस्म के कोई अधिकारी रहे होंगे। इधर लड़की ने अपने बाप से शिकायत की, उधर दनदनाता फैक्स चेयरमैन के नाम। इतना ही नहीं, पिताश्री ने चेयरमैन को फोन पर ही लतिया दिया कि कितनी असुरक्षित हैं लड़कियां आपके संस्थान में।
हालांकि डॉक्टर चोपड़ा को भी तत्काल प्रभाव से डिसमिस करने के आदेश जारी किये जाते, उस दिन खबर मिलते मिलते शाम हो गयी थी, केन्द्रीय बोर्ड की बैठक अगले दिन ही बुलायी जा सकती, और कुछ किया जा सकता, लेकिन उस मामले में भी मल्होत्रा साहब उनके तारणहार बन कर सामने आ गये थे। ये अपनी तरह का पहला मामला था इसलिए चेयरमैन ने मल्होत्रा साहब से डॉक्टर चोपड़ा से सफाई मांगने के लिए कहा। सफाई देने के लिए डॉक्टर चोपड़ा रात की फ्लाइट पकड़ कर सीधे मुंबई आ धमके और मल्होत्रा के पैरों पर गिर पड़े। मल्होत्रा साहब का डॉक्टर चोपड़ा से भी कोई पुराना याराना था। सो भाई बिरादर को अभय दान दे दिया और तत्काल प्रभाव से मुंबई के एक बेकार से विभाग का हैड बनवा कर यहीं बुलवा लिया। वह डिपार्टमेंट वरिष्ठ अधिकारियों में आम तौर पर सज़ा के तौर पर माना जाता था और कई दिनों से खाली चल रहा था। बस, टैग लगा दिया कि नौकरी से निकाल नहीं रहे, यहां आओ, ज्वाइन करो, और चुपचाप इस्तीफा दे कर अलग हो जाओ।
मानना पड़ेगा पंजाबी पुत्तर चोपड़ा को भी। लखनऊ वापिस ही नहीं गये और हैड ऑफिस में ही उस सड़े-से विभाग में ज्वाइन कर लिया। ये जनवरी की बात है। जनाब ज्वाइन करने के दूसरे दिन ही दस दिन की ज्वाइनिंग टाइम की छुट्टी ले कर निकल गये। आये तो तीसरे दिन एक महीने का नोटिस देते हुए इस्तीफा लिख कर दे दिया। चार-पांच दिन औपचारिकता के लिए आये और एलटीसी पर सिंगापुर निकल गये। जाने से पहले अपने प्राइवेट सेक्रेटरी को अपना प्रोफाइल, खास तौर पर खोला गया नया ईमेल आइडी और पासवर्ड इस हिदायत के साथ दे गये कि देश भर के सभी मैनेजमेंट संस्थानों में उनकी ओर से फैकल्टी पोजीशन के लिए एप्लाई करे। प्राइवेट सेक्रेटरी ने अपनी पूरी जिंदगी में ऐसा काम नहीं किया था। बेचारा दिन-भर एक-एक संस्थान का ईमेल आइडी खोज-खोज कर ईमेल भेजता रहता। एक अन्य जूनियर अधिकारी की ड्यूटी लगा दी गयी कि वह देखे कि पूरे बरस में और इस्तीफा देने की हालत में मिलने वाली वित्तीय सुविधाएं क्या-क्या हैं, उनके फार्म भर के रखे और उनके वापिस आते ही उनसे साइन करा ले।
आप जनवरी में रिटायर हों या दिसम्बर में, संस्थान के नियमों के अनुसार 15 कैजुअल लीव ले सकते हैं। उन्होंने सारी कैजुअल लीव लीं। जाते-जाते वे संस्थान को इतना चूना लगा गये कि मल्होत्रा साहब ने भी एक बार तो सोचा होगा कि कौन-सी आफत मोल ले ली।
किस्मत के धनी रहे चोपड़ा कि कई बरस तक मैनेजमेंट के विषय पढ़ाने और मैनेजमेंट के विषयों पर लिखी गयी किताबों के बलबूते पर नोयडा के एक मैनेजमेंट में अच्छे-खासे वेतन पर बुला लिये गये। आखिर उनके प्रोफाइल में ये तो कहीं नहीं लिखा था कि यौन शोषण के गंभीर आरोप के चलते उन्हें अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा है। इस्तीफा देने और चुपचाप विदा होने के बीच वे मुश्किल से सात-आठ दिन ही ऑफिस आये होंगे। अगर आये भी तो अपने केबिन में बैठे आगामी भविष्य के लिए जुगतें भिड़ाते रहे। वैसे भी उन्होंने आने के पहले ही दिन विभाग में सब से यह कह दिया था कि रूटीन मामले उनके पास न लाये जायें। सब लोग पहले ही तरह अपना काम करते रहें।
सब हैरान थे कि बंदे के चेहरे पर अपने किये को ले कर बिल्कुल भी अफसोस नहीं था और न ही इस बात को ले कर कोई मलाल ही था कि वे कितना गलीज काम करके भी अपने पद पर बने हुए हैं। शर्म लिहाज की बारीक सी रेखा भी उनके चेहरे पर नहीं थी। वे जितने दिन भी ऑफिस आये, शायद ही अपने केबिन से बाहर निकल कर किसी से मिलने के लिए गये हों। उनसे मिलने भी कोई नहीं आया। वे मल्होत्रा साहब के साथ अपने संबंधों के चलते संस्थान में टिके हुए थे और गिन-गिन कर रिटायरमेंट के समय मिलने वाली सारी सुविधाएं बटोर रहे थे।
पहले भी इस तरह की घटनाएं संस्थान में होती रही थीं, लेकिन इक्का-दुक्का। बल्कि एकाध मामले में तो बाद में गोपनीय रूप से जांच करने पर आरोप झूठा भी पाया गया था लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। सज़ा दी जा चुकी थी। अब भुक्तभोगी के लिए कुछ भी नहीं किया जा सकता था।
लेकिन एक ही बरस में चार वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा लगभग एक जैसी हरकत सबको चिंता में डाल रही है। मैं भी चिंता के इस ग्राफ से बाहर नहीं हूं। मेरे विभाग में चालीस के स्टाफ में से उन्नीस महिलाएं हैं। त्रिपर्णा के बारे में सोचता हूं तो रूह कांप जाती है। यदि उस मामले में त्रिपर्णा ने चाल चली हो तो वह अपने स्वार्थ के लिए किसी और बेकसूर के कैरियर के साथ कैसे खिलवाड़ कर सकती है। अगर त्रिपर्णा ऐसा कर सकती है तो कोई भी महिला कर सकती है।
हमारे विभाग में भी यौन उत्पीड़न के खिलाफ किसी भी तरह के मामले की रिपोर्ट करने के लिए नियमानुसार एक समिति बनी हुई है। जो महिला अधिकारी इस समिति की कोआर्डिनेटर है, सरिता शर्मा, उसके नाम की कभी मैंने ही सिफारिश की थी। मैंने उससे ज्यादा खडूस महिला आज तक नहीं देखी। शादी नहीं की है उसने, लेकिन देखने से चार बच्चों की मां लगती है। काम न करने और दूसरों के काम में नुक्स निकलने में उसे गज़ब की महारत हासिल है। ऊपर से तुर्रा यह कि कब किसके खिलाफ मोर्चा खोल दे, पता नहीं। सारा स्टाफ उससे परेशान है, उससे खार खाता है, लेकिन उन सबकी गोपनीय रिपोर्ट वही लिखती है, कोई भी खुल कर उसके खिलाफ शिकायत नहीं करता।
काम को ले कर मेरी उससे अक्सर झड़प होती रहती है। ऐसा बहुत कम होता है कि वह किसी काम से मेरे केबिन में आये और बिना झगड़ा किये लौट जाये। बेशक हम दोनों में सारी बहसें ऑफिस के कामकाज को लेकर ही होती हैं और हमारा आपस में कोई कम्प्टीशन भी नहीं है, फालतू या व्यक्तिगत संवाद होने का सवाल ही नहीं उठता लेकिन जब से ऑफिस में चोपड़ा, विपिन और वर्मा के केस हुए हैं, मैंने और मेरे जैसी हालत वाले अधिकारियों ने कई अतिरिक्त सावधानियां बरतनी शुरू कर दी हैं। जब भी वह किसी काम के लिए केबिन में आती है, मैं किसी न किसी बहाने से किसी और अधिकारी को बुला लेता हूं या किसी न किसी बहाने से केबिन का दरवाजा खोल देता हूं।
क्या पता उसके भीतर भी कोई त्रिपर्णा छुपी बैठी हो और कब उस पर हावी हो जाये।