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पूजा की अंगूठी

पूजा की अंगूठी

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दोपहर बाद से ही सब ने तैयार होना शुरू कर दिया था। क्योंकि ट्रैक्टर-ट्रॉली से जाना था, तो कम से कम 2 घंटे तो आराम से लगेंगे ही। तो मैं भी नहा-धोकर एक दम तैयार था। मैं बस इस इंतज़ार में था कि कब चलने के लिए बुलावा आये और कब हम चलें। मैं अकेला नहीं जा रहा था, मेरे पापा और मेरा छोटा भाई भी जा रहे थे। छोटा भाई भी मेरे साथ ही तैयार हो गया था, लेकिन उसे शायद इतनी जल्दी नहीं थी जाने की। या यूं कहिए की उसने सोच रखा था 'कि जब भी जाना होगा तो चल देंगे, ऐसा तो नहीं है कि सब चले जाएंगे और मुझे छोड़ देंगे।

मुझे घूमने-फिरने का बहुत शौक था। ऐसा पहली बार ही नहीं है। अब से पहले भी मैं कई बार गया था शादियों और बारातों में। तो तब भी ऐसा ही होता था, मैं सबसे पहले तैयार हो जाता था, और बैठ जाता था बारात वाली बस में जाकर सबसे पहले।


पता नहीं अभी तक पापा जी क्यों नहीं आए खेत से। जब कि सुरेंद्र भैया ने सभी मोहल्ले वालों को एक दिन पहले ही बता दिया था कि 'कल लक्ष्मी दीदी का भात भरने जाना है, तो सब टाइम से तैयार हो जाना। लेकिन पापा जी पता नहीं अभी तक क्यों नहीं आये।


मेरे दिमाग मे ये सवालों का झंगोल उधेड़बुन कर ही रहा था कि तभी पापा जी भी आ गए। उन्हें देख कर मैंने चैन की सांस ली।

पापा जी भी कुछ ही देर मै तैयार हो गये और उन्होंने हम दोनों भाइयों से कहा कि "तुम जाकर ट्रैक्टर-ट्रॉली में बैठौ मैं भी तुम्हारे पीछे आता हूं।"

एक बार तो मेरे दिमाग मे आया कि 'अभी तो कोई बुलाने भी नहीं आया तो फिर एसे कैसे चले जाए।' मैं सोच ही रहा था कि पापा जी फिर दुबारा बोले, "सुरेंद्र मुझे रास्ते में ही मिल गया था। तभी उसने मुझे बता दिया था।" पापा जी के इतना कहते ही जैसे मानों मेरे मन मे 'लड्डू' फूटने लगे, और मैं सरपट-सरपट ट्रैक्टर-ट्रॉली की तरफ बढ़ता चला। और मेरे पीछे मेरा छोटा भाई जिसे कोई जल्दी नहीं थी।

वो भी मुझसे थोड़ा ही पीछे था, मैंने उसे आवाज लगते हुए कहा 'जल्दी चल यार वर्ना ट्रॉली में जगह नहीं मिलेगी।' तो तू लटक के चला जाना, उसने जवाब देते हुए अपने कदमों को थोड़ी रफ्तार दी। कुछ ही देर में पहुंच भी गए। वहां जाकर देखा तो सब चलने के लिए तैयार थे बस हमारा और पापा जी का ही इंतज़ार किया जा रहा था। हम ट्रॉली मैं बैठ गए। कुछ ही देर बाद पापा जी भी आ गए। फिर जोर से सभी ने एक साथ 'कुटि वाले बाबा की जेय.....' बोली और चल दिये।

पहुंचते -पहुँचते लगभग रात ही हो चुकी थी और करीब 'सवा दो' घंटे मैं हम महल पहुंच गए।

औरतों और बच्चों को दीदी के घर ही उतर दिया था। तो मैं भी वही उतर गया, और हम दीदी के किसी पड़ोसी के घर मे ठहर गए। बाकी लोग बारात वाली जगह पहुंच गए।

कुछ देर बाद ही भात भरने की रस्म शुरु हो गयी। एक-एक करके सब पटरी पर चढ़ने लगे और थाली में अपनी इच्छा अनुसार रुपये डालते गए और 'गोला, लड्डू' लेकर निकलते गए। साथ ही गीत की रस्म भी चल रही थी। औरत भात भराई के गीत गा रही थी। कुछ ही देर में मेरा नंबर भी आने ही वाला था। लेकिन मेरा ध्यान भात पर नहीं, कहीं और ही था। मेरा ध्यान तो उस पर था जो दीदी को 'गोला ओर लड्डू' पकड़ा रही थी। वो बहुत प्यारी और सुंदर थी, उसके घुंघराले बाल, काली आंखें, उसका लम्बा कद, उसकी पतली कमर, मानो जैसे कोई अप्सरा हो। उसने भी मुझे देखा मगर जाहिर नहीं होने दिया। बस चुपचाप अपने काम में लगी हुई थी, और बीच-बीच में मुझ पर चोरी से नजर मार लेती थी। लेकिन मैं था कि उसे घूरे जा रहा था और मन ही मन मुस्कुरा रहा था। मैंने तो यहाँ तक भी सोच लिया था कि उसे कैसे प्रोपोज़ करना है। प्रोपोज़ करने के बाद उसको 'किश' कैसे करनी है।

मैं ख़यालों मैं खोया हुआ था तभी मेरी बरी भी आ गयी। 'कमल' पीछे से आवाज आई। मैंने पापा जी के दिये रुपये जेब से निकले और थाली में रख दिये। 'चार-पाँच बार मेरा आरता किया गया। इस बीच उसकी नजर मुझ पर ही थी लेकिन उसकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया दिखाई नहीं दे रही थी।



मेरे माथे टीका लगाकर दीदी ने गोला लड्डू मांगा तो उस लड़की ने अपनी आंखों से मेरी तरफ इशारा करते हुए दीदी को लड्डू और गोला पकड़ाए।



उसका इशारा क्या था मुझे अभी तक समझ नहीं आया, लेकिन अंदर ही अंदर एक अजीब सी खुशी मेरे दिल में उछाले मार रही थी। अंदर से ऐसा एहसास हो रहा था मानो 'जैसे किसी ने मेरे गाल पर पप्पी करली हो' या यूं कहो कि मुझे उस ख़ुशी को शब्दों मैं बयां करना नहीं रहा था। मेरी उम्र ज्यादा भी तो नहीं थी, जो मैं इन सब इशारो का मतलब समझ पाता। मैं करीब 14-15 साल का ही हूँगा। लेकिन वो मुझसे बड़ी ही थी।

खैर मैं वहाँ से आया और दिया सामना 'गोला, लड्डू' मैंने एक थैले मैं रख दिया। जैसे मैंने गोला थैले में रखा तो उसमें से कोई आवाज आई ,जैसे उसके अंदर कोई चीज पड़ी हो। खैर मैंने इस बात पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया।

कुछ ही देर मैं सब लोग फ्री हो गये और खाना खाने चले गये, उन्हीं के साथ मैं और मेरा भाई भी चल दिये।

खाना खाने के बाद वापस उसी घर पर आ गऐ। कमरे मैं थोड़ी भीड़ हो गयी थी। क्योंकि हमसे दूसरे रिश्तेदार भी उसी कमरे मेे रुके हुए थे। मैं कमरे में पड़े बैड पर लेट गया और उसी लड़की के बारे में सोच रहा था और उसके इशारे को समझने की कोशिश कर रहा था। मैं मन ही मन उस गुत्थी को सुलझाने की कोशिश कर ही रहा था कि तभी वो लड़की भी उसी कमरे में आ गयी।

उसे देखते ही मेरी हालत समझो खराब हो गयी, मैं उसे देख रहा था और वो मुझे देख रही थी। मैं शर्म के मारे ज्यादा देर तक नहीं देख पाया, लेकिन वो मुझे देखती मंद मंद मुस्कराती हुई आकर सीधा बेड पर बैठ गयी।

सब लोग आपस में बात करने मेे लगे हुऐ थे। कोई खाने की बात कर रहा था।

'तूने कितने रसगुल्ले खाये' एक ने पूछा।

'मैंने तो चार खाये, और तूने,,,? दूसरे ने जवाब देते हुए पूछा।

'तोपै बस चार ही खाये गए,

"मैंने तो सात खाये, चार काले और तीन सफेद" जवाब दिया।

बाकी सब भी इसी तरह से कोई न कोई मुद्दे पर बात कर रहे थे। लेकिन मेरे दिल और दिमाग में तो सिर्फ अब एक ही मुद्दा breaking news की तरह बार बार चल रहा था। इसे चलना नहीं कहेंगे इसे सनसनी कहेंगे। दिल 'धकधक-धकधक' कर रहा था, दिमाग पूरी खोपड़ी मैं फड़फड़ा रहा था।

अब वो और मैं एक ही बैड पर बैठे थे और वो पूरे कमरे में नज़र घूमा-फिरा कर मेरी तरफ देखती, मानों जैसे कुछ कह रही हो या कहना चाहती हो। मैंने कहा था न कि मुझे इशारों की भाषा समझ नहीं आती।

इसी बीच उसी के गाँव की एक लड़की आकर उसके पास बैठ गयी।

"तूने खाना खा लिया।" दूसरी लड़की ने पूछा।

"नहीं.... अभी नहीं खाया" उसने जवाब दिया।

"कब खायेगी...? एक बार फिर उसने पूछा।

"खालूंगी यार... अभी भूख नहीं है..... अच्छा एक काम कर दे।"

उसने चिड़चिड़े ढंग से जवाब देते हुये कहा, जैसे मानो बस उसे वहा से भागना चाहती हो।

"क्या" उसने पूछा।

"एक ग्लास पानी चाहिए...किसी की नींद खोलनी है...टाइम से पहले सोने जा रहा है कोई।"

"ठीक है, अभी लाती हूँ।" कहके चली गयी।

शायद उसने पूरी बात नहीं सुनी थी। लेकिन उसकी बात का मतलब मैं साफ-साफ समझ गया था। और मैं उठकर बैठ गया। ये सोचकर कि कहीं वो सच मे मेरे ऊपर पानी ना डाल दे। एक बार को मैंने सोचा कि हो सकता है शायद किसी और की बात कर रही हो, लेकिन फिर सोचा कि उसके अलावा और कोई तो नहीं लेट रहा है कमरे में।

"मैं सो नहीं रह।" किसी तरह हिम्मत करके मैंने उसे बताया। लेकिन उसकी तरफ से कोई जवाब नहीं आया और अनसुना कर के पूरे कमरे में नज़र घुमाई और फिर बिना कुछ कहे मेरी तरफ देख कर मुस्कुराई। शायद वो समझ गयी थी कि मैं बहुत बड़ा फट्टू हूँ। मैंने हिम्मत करके फिर उससे पूछा "क्या आप मेरी बात कर रही हो।"

उसने कुछ सोचने के बाद जवाब तो नहीं दिया लेकिन उल्टा एक सवाल मुझसे पूछा "तेरा नाम क्या है ?"

"कमल" मैंने जवाब दिया। उसने कुछ नहीं कहा बस मेरी तरफ फिर से क़ातिलाना अंदाज़ में देखा। उसके बार बार के देखने से मानों वो मेरी नजरों से होती हुई सीधी दिल तक दस्तक दे रही थी। और जितनी बार वो देखती उतनी ही बार मेरे मन्दिर और मन मंदिर मैं घंटी बजती। कुछ देर तक मैं भी इस बीच उलझा रहा कि 'मैं भी इसका नाम पूछ के देखूँ, या नहीं...., चल पूछ ही लेता हूँ और फिर मैंने हिम्मत करके उससे पूछ लिया।

"और आपका क्या नाम है" मेने हल्की सी आवाज मैं डरते -2 पूछा।

"पूजा" उसने जवाब दिया।

उसका नाम जानने के बाद मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। मैंने उससे उसका नाम पूछ कर मानो जैसे कोई फ़तह हासिल कर ली हो। अभी हम बात करने लगे ही थे कि तभी छोटा भाई आया और बोला "चलो सब ट्रॉली मैं आकर बैठ जाओ, हम चलने वाले हैं , ट्रॉली जाने वाली है। रात के करीब 11 बज चुके थे। और जो हमारे साथ के बच्चे थे और औरतें थी सब चलने लगे। जाने के नाम से मेरा दिल एक दम उदास हो गया, होता भी क्यों नहीं, मुझे अपनी ज़िंदगी मैं पहली बार प्यार का स्वाद पता चला, कि ये कितना प्यारा, कितना सुहाना और कितना पवित्र होता है। प्यार कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे जाकर मैं किसी दुकान से खरीद लूँ।

जाना तो पड़ेगा, एक बार मैंने उसकी तरफ देखा तो उसके चेहरे की रौनक भी मानों जैसे गायब हो चुकी थी। उसकी आंखें मुझे डीगडिगी लगाए देख कुछ कहना चाहती थी। लेकिन वो बिना कुछ कहे बैठी रही और अपने हाथ की उँगली को देखने लगी। 'अरे इसकी अंगूठी कहाँ है..? जो इसने भात देते टाइम पहनी हुई थी, कहीं गिर तो नहीं गयी, शायद वो ये तो नहीं कहना चाहती हो कि 'उसकी अंगुठी खो गई।

मैंने जब उसकी उंगली देखी तो एक दम से इतने सारे सवालों ने मुझे घेर लिया था। लेकिन अब उससे पूछूँ भी तो कैसे, अब टाइम भी नहीं है, इतना भी तय है कि हम आज के बाद कभी मिलेंगे नहीं। मेरा मन उखड़ने लगा, मानो जैसे मेरा दिल उस लड़की ने अपने पास रख लिया है और अब उसे देना नहीं चाहती।

जाना था तो मैं उसे इसी हाल मैं छोड़ कर आ गया। कमरे से बाहर निकलने के बाद मैंने एक बार पीछे मुड़कर देखा तो वो मुझे एक खिड़की से झांक कर देख रही थी। अब मैं समझ चुका था कि जो आग इधर है वो आग उधर भी लगी है।

सब लोग आ चूके थे तो हम चल दिये। मेरे लिए तो एक काम मिल चुका था, वो काम था कि पूरे रास्ते उसके ख्यालों मैं खोया रहूं।

चलते - चलते सब लोग बात कर रहे थे। तो उनमें से कुछ ने बात करते करते गोला खाना शुरु कर दिया, जिससे सफर मैं मन लगा रहे। तो मेरी भी इच्छा हुई तो मैंने भी अपने थैला से गोला निकल लिया। मैंने थैले से गोला निकला तो गोला पहले से ही चटका हुआ था, तो उसे तोड़ने मैं कोई परेशानी नहीं हुई। लेकिन ये क्या ? मैंने जब गोला तोड़ा तो देखा कि उसमें "पूजा की अंगूठी" थी, वही अंगूठी जो उसने भात भरते समय पहनी थी।

मैं तुरंत समझ गया कि वो क्या कहना चाहती थी। मैं अपना माथा पकड़ कर बैठ गया, और खुद को कोसने लगा, की अगर उसके इशारे को समझ जाता तो शायद वो मेरी ज़िंदगी का पहला प्यार बन जाती। अगैर-वगैरा ये- वो, बहुत सी बात मेरे दिमाग में चलने लगी और मैं खुद को बद्दुआ देने लगा। लेकिन अब क्या हो सकता है। मैं पूरे रास्ते अपना माथा पकड़ कर बैठा रहा।


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