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विज्ञान, भगवान और प्रमाण

विज्ञान, भगवान और प्रमाण

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विज्ञान क्या है? भगवान क्या है और ईश्वर का प्रमाण क्या है? जहाँ तक विज्ञान की बात है तो ये पूर्णतया साक्ष्य पर आधारित अर्जित किया हुआ ज्ञान है। सारे लोग कहते आ रहे हैं ईश्वर के बारे में, उसके होने के बारे में , फिर भी विज्ञान ईश्वर की मौजूदगी के बारे में कोई साक्ष्य क्यों नहीं जुटा पा रहा है? ताज्जुब की बात तो यह है कि विज्ञान ईश्वर की मौजूदगी के बारे में कोई साक्ष्य नहीं जुटा पा रहा है , तो ईश्वर की नामौजूदगी के बारे में भी कोई साक्ष्य जुटा पाने में इसे कोई सफलता नहीं मिली है। आइये देखते हैं कि आखिर में ये द्वंद्व क्या है? ये उलझन क्या है? ये गुत्थी क्या है? चलिए कोशिश करते हैं इस गुत्थी को सुलझाने की ।

बचपन से ही हमें यह शिक्षा प्रदान की जा रही है कि इस सृष्टि में जो भी तत्व मौजूद हैं वह दो प्रकार के होते हैं। इन तत्वों को मुख्य रूप से सजीव और निर्जीव में विभाजित किया गया है। हमें यह पढ़ाया गया कि इस सृष्टि का वह तत्व जो प्रजनन करने में सक्षम है और इस प्रक्रिया के द्वारा अपनी संख्या को बढ़ा सकता है वह सजीव है और वह तत्व जो प्रजनन करने में असक्षम है वह निर्जीव है।

जैसे-जैसे हमारी उम्र बढ़ी हमने यह जाना कि हर मौजूद पदार्थ का मूल परमाणु होता है। यह परमाणु ही है जिसके मिलने से सजीव या निर्जीव तत्व बनते हैं। अर्थात जिस तरह से एक मकान का मूल तत्व ईट है उसी प्रकार से इस सृष्टि में पाई जाने वाली हर एक वस्तु मूल तत्व परमाणु है। कोई भी पदार्थ हो चाहे सजीव या निर्जीव, वो सारे पदार्थ रसायनिक तत्वों से बने होते हैं और ये रसायनिक तत्व परमाणुओं के विशिष्ट संयोग से बने होते हैं।

जैसे जैसे हमारी उम्र बढ़ती गई वैसे-वैसे हमने जाना कि इस सृष्टि में जितने भी रासायनिक तत्व है उनके मूल में यह परमाणु ही होते हैं। हमने मेंडलीफ का टेबल भी देखा जिसमें परमाणु नंबर के हिसाब से सृष्टि में पाए जाने वाले सारे रासायनिक तत्वों की परिभाषा की गई। मेंडलीफ के टेबल के आने से पहले समान परमाणु भार के आधार पर इस सृष्टि में पाए जाने वाले तत्व की परिभाषा करने की कोशिश की गई जो कि गलत साबित हुई। हमें यह भी ज्ञात हो गया कि मेंडलीफ का टेबल भी सारे तत्वों को ठीक परिभाषित नहीं कर पाता है। मेंडलीफ टेबल परमाणुओं संख्या के बढ़ते नंबर के आधार पर तत्वों को सजाता है। फिर भी कुछ रसायनिक तत्व इस सिद्धांत का पालन नहीं करते और उन्हें मेंडलीफ टेबल में अलग से रखा गया है।

जैसे-जैसे विज्ञान आगे बढ़ता गया, सृष्टि में पाए जाने वाले सारे तत्वों को नए तरीके से परिभाषित करने की कोशिश की गई। वैज्ञानिक मूल तत्वों की पहचान करने की कोशिश करते रहे। सर्वप्रथम सजीव और निर्जीव की परिभाषा गलत साबित हुई क्योंकि सजीव और निर्जीव के बीच की बहुत सारी कड़ियां इस सृष्टि में मिली। वायरस एक ऐसा तत्व है जो कि किसी भी जीवित प्राणी के बाहर निर्जीव की तरह हजारों वर्षों तक पड़ा रह सकता है। वही वायरस यदि किसी भी सजीव प्राणी के भीतर डाल दिया जाए सजीव की भांति प्रजनन करने लगता है। इस वायरस की मौजूदगी ने सजीव और निर्जीव की परिभाषा को धूमिल कर दिया। वायरस को सजीव और निर्जीव के बीच की कड़ी माना गया। वैज्ञानिकों को इस बात का एहसास हो गया कि इस सृष्टि में पाए जाने वाले तत्वों को सजीव और निर्जीव के रूप में परिभाषित नहीं किया जा सकता है।

जैसा कि मैंने ऊपर बताया है कि सृष्टि में पाए जाने वाले सारे तत्वों की व्याख्या परमाणु भार और फिर परमाणु नंबर के आधार पर करने की कोशिश की गई जो कि सही साबित नहीं हुई। मेंडलीफ का टेबल भी सारे रासायनिक तत्वों को सही तरीके से परिभाषित नहीं कर पाया। मेंडलीफ के टेबल में एक ही खाने में बहुत सारे रासायनिक तत्वों को डालना पड़ गया। इसे यह तो ज्ञात हो गया कि परमाणु नंबर के आधार पर भी इस सृष्टि में पाए जाने वाले सारे तत्व की सही तरीके से परिभाषित नहीं किया जा सकता।

विज्ञान के आविर्भाव के साथ यह भी जाना गया कि परमाणु भी इस सृष्टि का मूल तत्व नहीं है। परमाणु में इलेक्ट्रॉन प्रोटॉन और न्यूट्रॉन से बने होते हैं। वैज्ञानिकों का अनुसंधान जारी रही। फिर यह ज्ञात हुआ कि इलेक्ट्रॉन प्रोटॉन और न्यूट्रॉन भी तोड़े जा सकते हैं। आज के वैज्ञानिकों ने यह जान लिया है कि इलेक्ट्रॉन एक साथ तत्व और ऊर्जा की तरह व्यवहार करता है। इस तरीके से वैज्ञानिकों की यह कोशिश अब तक यह साबित नहीं कर पाया है सृष्टि का आखिर में मूल तत्व है क्या?

समय बीतने के साथ मेरे मन में यह अवधारणा स्थापित हो चुकी है कि वैज्ञानिकों की यह कोशिश सर्वथा उचित नहीं है। आप इस ब्रम्हांड में मूल तत्व की परिभाषा एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से कर ही नहीं सकते। वैज्ञानिक वस्तुपरक दृष्टिकोण से सृष्टि में पाए जाने वाले हर तत्व की बहिर्मुखी व्याख्या कर रहे हैं जो कि गलत है। इस सृष्टि में पाए जाने वाले हर एक तत्व की वस्तुपरक व्याख्या हो ही नहीं सकती।

यदि हम विज्ञान की बात करें तो विज्ञान कभी भी पाए जाने वाले इस मूल तत्वों की पहचान नहीं कर सकता। क्योंकि विज्ञान हमेशा प्रयोगों पर आधारित है। और इस सृष्टि में पाए जाने वाला मूल तत्व तो व्यक्तिगत अनुभूति की बात है। एक वैज्ञानिक इस बात को कैसे परिभाषित कर सकता है कि इस सृष्टि में पाए जाने वाला हर एक चीज अपने आप में जिस विशेष तरह का गुण धारण किए हुए हैं, उसका सार्वभौमिक पैमाना क्या हो? यदि वो मूल तत्व है तो निश्चित ही सारे मापदंडों पर खरा उतरेगा, पर वास्तव में ऐसा है नहीं। यहाँ तक कि बोसॉन एलिमेंट भी इस कसौटी पर खरा नहीं उतरता।

अभी हाल फ़िलहाल में वैज्ञानिकों ने स्ट्रिंग थ्योरी के द्वारा सारे ब्रह्माण्ड की व्याख्या करने की कोशिश की है। इस सिद्धांत के अनुसार इस ब्रह्माण्ड में कुल 11 आयाम है। अभी तक केवल 4 आयामों से कम चलाया जा रहा था। ये आयाम थे लम्बाई , चौड़ाई , उचाई और समय। लेकिन वैज्ञानिकों का दावा अभी की विश्वास से परिपूर्ण नहीं है कि उनका ये सिद्धांत ब्रह्मांड की सारी गुत्थियों को सुलझा सकता है। समय के अनुसार सारे सिद्धांत बदलते जा रहे है। कोई भी सिद्धांत इस ब्रह्मांड में व्याप्त मूल तत्व को परिभाषित करने में असक्षम रहा है।

इस ब्रह्माण्ड में पाए जाने वाले सारे तत्वों, जीवों, जंतुओं, पेड़, पौधों में कोई न कोई मौलिक गुण है। एक ईट सीमेंट के साथ ही दुसरे ईट से जुड़ पाता है। यदि आप दो ईटों को आटे के साथ जोड़ने की कोशिश करते हैं तो वो जुड़ नहीं पाते। आग लकड़ी को जला देती है। आग कागज़ को जला देती है। यदि आग का संयोग पानी से करा दिया जाए तो आग बुझ जाती है। क्या सीमेंट में ,आग में ,लकड़ी में, पानी में किसी विशेष तरह का गुण नहीं है? फिर आप लकड़ी ,सीमेंट , आग, पानी इत्यादि को और निर्जीव की परिभाषा में डालकर क्यों छोड़ देते हो।

आग ,लकड़ी ,पानी ,सीमेंट भी तो एक जीवंत प्राणी की तरह व्यवहार कर रहे हैं। बहुत पहले आदमी का दृष्टिकोण इन पदार्थों के प्रति एक निर्जीव की तरह ही था। जगदीश चंद बोस ने अपने प्रयोगों से यह दिखा दिया कि पौधे एक सामान्य जीव की तरह डरते हैं ,हंसते हैं ,खुश होते हैं और वैज्ञानिक जगत में यह विचार स्थापित किया कि पौधों के साथ निर्जीव की तरह व्यवहार नहीं करना चाहिए। पौधों को भी एक जीव की तरह लगा देखा जाने लगा।

बहुत कम लोग यह जानते हैं कि जगदीश चंद्र बसु ने न केवल पौधों के साथ प्रयोग किया, बल्कि टीन के धातुओं के साथ भी प्रयोग किया। योगानंद परमहंस अपने प्रसिद्ध किताब "ऑटोबायोग्राफी ऑफ ए योगी" में लिखते हैं कि एक दिन वो वह जगदीश चंद्र बसु के पास गए। जब जगदीश चंद बसु ने एक चाकू को टीन के बर्तन को दिखाया तो टीन के बर्तन में संवेदना आ गई। जगदीश चंद्र बसु का मशीन उस टीन में भय के कम्पन को दृष्टिगोचित करने लगा। जब जगदीश चंद्र बसु ने चाकू को बर्तन से हटा दिया तब टीन की बर्तन में दिखने वाली वो सारी संवेदनाएं बंद हो गई। कहने का तात्पर्य यह है कि योगानंद परमहंस को बसु साहब ने यह दिखाया कि केवल पौधे ही नहीं बल्कि टीन से बने हुए पदार्थ भी एक सजीव प्राणी की तरह व्यवहार करते हैं।

इलेक्ट्रान अपनी सामान्य अवस्था मे अलग तरीके से व्यवहार करते हैं। जब इन्हें प्रयोगशाला में किसी वैज्ञानिक द्वारा देखा जाता है, तब ये अलग तरह से व्यवहार करने लगते हैं। अर्थात ये इलेक्ट्रोन भी बिल्कुल जीवित प्राणी की तरह व्यवहार करते हैं।

जगत में पाए जाने वाले चांद ,तारे ,सूरज यहां तक कि धरती भी सजीव प्राणी की तरह व्यवहार करते हैं। एक जीव की तरह इन तारों और ग्रहों का जन्म भी होता है और समय बीतने के साथ तारे खत्म भी हो जाते हैं। तारों की अंतिम परिणिति ब्लैक होल में होती है। यह सारा का सारा ब्रह्मांड डार्क मैटर और डार्क एनर्जी के द्वारा एक व्यवस्थित तरीके से एक दूसरे में जुड़ा हुआ है।

यहां तक कि एक तारे का ब्लैक होल बनाना भी एक गणितीय सिद्धांत के निर्धारित होता है और इसकी व्याख्या भारतीय वैज्ञानिक श्री चंद्रशेखर ने की थी। धरती या अनगिनत तारे गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत से एक दूसरे से परस्पर संबंधित है।

धरती पर पाई जाने वाली नदी, समुद्र सारे के सारे एक सजीव प्राणी की तरह ही व्यवहार कर रहे हैं। नदी चुपचाप अपना मार्ग ढूंढते हुए सागर में जाकर मिल जाती है। सागर कभी भूलकर भी अपना किनारा तोड़ता।आग भी एक विशेष परिस्थिति में ही जलता है और वो भी एक सीमा से भीतर।

बादल के भी अपने नियम है। जब तक आद्रता एक निश्चित सीमा को पार नहीं कर जाती तब तक बादल पानी बन कर नीचे नहीं आता। पानी को जब गर्म करते हैं तो पानी भी निश्चित ताप पर ही जाकर भाप बनता है।

धरती सूरज के चारों और घूम रही है। चाँद धरती के चारों ओर। सूरज भी एक आकाश गंगा का हिस्सा है। ये आकाश गंगा भी एक वृहद आकाश गँगा का हिस्सा है। ये आकाश गंगाएं भी अनगिनत तारों का समूह है जो एक सुनियोजित तरीके से एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं।

यदि आप लोहे को बिना गर्म किए मोड़ने की कोशिश करें तो वह मुड़ता नहीं है। कांच को भी आप गर्म करके ही मोड़ सकते हैं। यदि आप कांच को बिना गर्म किया ही मोड़ने की कोशिश करें तो वह टूट जाएगा। इस सृष्टि में पाई जाने वाली जितनी रचनाएं हैं सारी की सारी एक नियम, एक गुण, एक धर्म का पालन करती हैं।

हमारे उपनिषदों में ,हमारे पुराणों में जगत के मूल तत्व को ब्रह्म के नाम से परिभाषित किया गया है। कहीं-कहीं पर इसे ब्राह्मण भी कहा गया है। जब एक साधक अपनी समाधि की उच्च अवस्था में पहुँचता है तो उसे उस मूल तत्व के दर्शन होते हैं और यह ज्ञात होता है कि इस सृष्टि में उस मूलतत्व के अलावा कुछ भी नहीं है। वही है और केवल वही है इस सृष्टि में।

मेहर बाबा ने अपनी किताब " गॉड स्पीक्स " में यह बताया है कि इस सृष्टि में पाए जाने वाला हर एक जीव उसी मूल तत्व से, उसी परमतत्व से निकलता है और फिर गैस, तरल ,पत्थर ,पौधा ,मछली, अमीबा, जीव, जंतु , आदमी की अवस्था से गुजरता हुआ अपने आध्यात्मिक विकास के द्वारा उसी मूल तत्व , उसी परम ब्रम्ह में लीन हो जाता है।

सारा जगत एक विशेष नियम, एक विशेष धर्म का पालन करते हुए सुनियोजित तरीके से सम्बद्ध है। कुछ तो है जो इन सब मे व्याप्त है और और वो ही इस ब्रह्मांड का परम तत्व है। हमारे ऋषियों ने से अनुभूति करने की अपनी एक अलग विधा विकसित की है।

वैज्ञानिकों का दृष्टिकोण ही उनके लक्ष्य में बाधा बन रहा है। आदमी प्रेम में पड़ता है तो उस प्रेम को केवल वही व्यक्ति अनुभूत कर सकता है। यदि वैज्ञानिक बाहर से इस प्रेम को समझने की कोशिश करें या प्रयोगशाला में देखने की कोशिश करें तो वह कभी भी प्रेम को नहीं देख पाएगा। ऋषियों ने बताया है कि वो परम तत्व व्यक्तित्व अनुभूति की बात है। इसे खोजा नहीं जा सकता, इसे अनुभूत किया जा सकता है।

यदि वैज्ञानिक इस सृष्टि में पाए जाने वाले हर एक तत्व को परिभाषित करने की कोशिश करेगा , मूल तत्व को पहचानने की कोशिश करेगा, तो यह उसके लिए कभी भी संभव नहीं हो पाएगा क्योंकि सृष्टि में पाए जाने वाले मूल तत्व की पहचान व्यक्तिपरक है न की वस्तु परक। जब तक वैज्ञानिक स्वयं उस परम ब्रह्म का साक्षात्कार नहीं कर पाता तब तक इस सृष्टि में पाए जाने वाले उस परम ब्रह्म परम मूल तत्व से उसकी पहचान नहीं हो सकती।


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