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Anju Sharma

Romance

0.8  

Anju Sharma

Romance

छत वाला कमरा और इश्क वाला लव

छत वाला कमरा और इश्क वाला लव

16 mins
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ये कमबख्त मन भी ना, कोई किताब होती तो झट से बंद कर रख देती शेल्फ पर, पर मन तो मन है!  नहीं होना बंद, नहीं टँगना शेल्फ पर!  तो क्या चाहिए इसे?  अब कहाँ की सैर पर निकलना चाहता है?  कभी-कभी काम में डूबे रहने के बाद आँखें आराम  माँगती हैं पर सोने जाओ तो निद्रालोक के द्वार पर बड़ा-सा ताला टँगा मिलता है।  ऐसी ही एक रात, यूँ ही अनमने ही, नैना ने फेसबुक पर 'लॉगिन' किया।  रात का एक बज चुका था!  घरवालों के साथ घर भी नींद के आगोश में डूब चुका है पर ये दिल है कि माँगे मोर!  "चैटिंग?" "उँह, बोरिंग!"  "तो.…?"   बस यूँ ही कीबोर्ड पर खेलते  'होम' पर कुछ खास लगा नहीं नैना को जो मन को राहत मिलने का सबब बनता।  काफ़ी  दिन से मित्र बनने के लिए ढेरों 'रिक्वेस्ट' पेंडिंग थीं। उसने 'फ्रेंड रिवेस्ट' चेक करने के लिए क्लिक किया।  दूसरे ही नंबर पर एक नाम से नैना की अर्धसुप्त चेतना को हल्का सा झटका लगा।  साँसों के स्पंदन ने  इस  एक झटके के बाद गति पकड़ ली और तभी जैसे कमरे में कहीं से इलायची की भीनी-भीनी महक घुलते हुए हौले से उसे छूकर गुज़र गई। 

 

"अनुराग मिश्रा!!!!!!!!"  वह लगभग चीख उठी।

 

"धत्त पगली!!!!!!... पर अनुराग मिश्रा तो जाने कितने होंगे।"

 

दिल की धड़कनें  चलते-चलते अनायास-सी मानों ट्रेड मिल पर सवार थीं।  नैना कुछ पल रुकी और फिर दिल थामकर उसने प्रोफ़ाइल पिक पर क्लिक कर दिया।  पिक में एक दीवार से टेक लगाकर खड़े सुदर्शन पुरुष की पूरी फोटो थी।  धाड़-धाड़ बजती धड़कनों के बीच काँपते हाथों से ज़ूम किया तो लगा दिल उछलकर हलक में फँस गया हो।

 

फैले हुये पिक्सेल के बावजूद ये वही था।  वही माने अनु, यानि अनुराग मिश्रा।  वही बेतरतीब दाढ़ी-मूँछ से झाँकती चमकीली, भूरी आँखें जो सदा से जाने किस तलाश में थीं और जो जाने एक वक़्त में कितनी बातें कह जाने में माहिर थीं। वही निकोटिन की परत चढ़े पतले और खामोश, आलसी, निठल्ले होंठ जो बोलने का काम अक्सर आँखों को सौंप पर निश्चिंत हो जाते थे।  शायद अब भी उनके पीछे एक इलायची दबी होगी जिसे सिगरेट की बू को धोखे से पीछे धकेलने का कांट्रैक्ट मिला होगा।  गोरा रंग वक़्त की सलवटों में कुछ दब सा गया था।  बाल पहले जैसे घने तो नहीं थे पर थे उतने ही काले और चमकदार।  अजीब बात थी दाढ़ी में चाँदी यहाँ-वहाँ से चमक कर उम्र के सरक गऐ  डेढ़ दशकों की चुगली कर रही थी।  कंधे कुछ झुक गये थे अलबत्ता इकहरा जिस्म अब भी उम्र के दबाव में आने से साफ इंकार करता मालूम होता था। 

 

तस्वीर को निहारती नैना जैसे जड़ हो गई थी।  उसे लगा उसके पाँव जैसे एक बीते समय में लौटती टाइम मशीन पर बाँध दिये गऐ  थे। अगले कुछ पलों में दशकों का फासला यूँ  तय हुआ मानों यह कभी था ही नहीं।  बीता समय धुंध के एक बादल में बदल गया जिसे चीरते हुए टाइम मशीन अब वहीं थी, उसी छत वाले कमरे में जहाँ 15 साल पहले नैना थी।

 

वे दो घर थे पर दो जैसे नहीं थे।  उन्हे अलग करने की शायद कोशिशें ही नहीं हुई कभी और इतिहास गवाह है कि शायद होती तो कामयाब ही नहीं होतीं।  उन्हे खून के रिश्ते या जात-बिरादरी ने नहीं खालिस दुनियावी दिल से जुड़े सम्बन्धों ने जोड़ा हुआ था जिसकी तसदीक करता था साझा आँगन और और छतों को जोड़ता वो रास्ता को मुंडेर के ऐन बीचों-बीच बना था।  और वहीं छत पर बना था वह कमरा जो युवा पीढ़ियों का साझा कमरा था। तीन पीढ़ियाँ एक दूसरे से दोस्ती के धागे में बँधी हर नयी पीढ़ी को विरासत में ये संबंध सौंप देती थी।  चौथी पीढ़ी ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई जब सिंह फॅमिली के बड़े बेटे के यहाँ बेटा आदित्य जन्मा।  दोनों घर जश्न के माहौल में डूब गऐ ।

 

नैना, दुबे परिवार की तीसरी पीढ़ी से थी।  बिन माँ-बाप की बच्ची कब सिंह फॅमिली के अपने से बड़े बेटों को 'माँ' पुकारते देख उनकी माँ को माँ कहने लगी उसे याद नहीं।  फिर होश सँभालने पर भी कोई और सम्बोधन जँचा ही नहीं।  तो अब उनकी माँ उसकी माँ थी और बाऊजी उसके बाऊजी।  माँ दूधपीती बच्ची को छोड़ इस दुनिया से रुख़सत हो गईं।  पता नहीं पिता के जाने के बाद रुखसती ने माँ को चुना या माँ ने रुखसती को पर नैना अकेली रह गई।  नि:संतान चाची ने माँ बनकर उसे सीने से लगा जरूर लिया था पर अकेलापन तो उसे विरासत में मिला था और यही अकेलापन उसे किताबों की दुनिया में ले गया।  उसका 'किताबी कीड़ा' होना अक्सर दूसरों के लिए कौतूहल का विषय था।  देवेन भैया, सिंह परिवार के सबसे छोटे बेटे, अक्सर नैना को चिढ़ाते,  नैना खाए बिना रह जाऐगी पर किताबों में इसकी जान बसती है!  अलग किया कि नैना खल्लास!

 

देवेन भैया के दोस्त तो स्कूल के समय से अक्सर घर आते थे।  नैना सबको जानती थी पर उसका संकोची स्वभाव कारण रहा होगा कि कभी किसी से कोई बात नहीं होती थी।  शब्द उसके इर्द-गिर्द चक्कर लगाते पर मौका काम ही पाते!  चुप्पी का दुशाला ओढ़े अपनी ही दुनिया में मगन रहती नैना!

 

 घर में होने वाली जन्मदिन या दीगर मौकों की पार्टियों में नैना अक्सर भाभी का हाथ बँटाती।  अभी नैना स्कूल में ही थी कि देवेन भैया कॉलेज पहुँच गऐ  थे, छत का कमरा अब नए चेहरों से गुलजार होने लगा था। आदित्य की बर्थड़े पार्टी में एक ऐसे ही चेहरे को खामोश, निर्विकार कोने में बैठे पाया था नैना।  कोल्ड ड्रिंक सर्व करते समय नज़रें मिली, इलायची की अजीब-सी महक ने उसे गिरफ्त में लिया तो जाने क्यों नैना को लगा ये ख़ामोशी एक दिखावा है या शायद उन आँखों में चलते सुनामी पर पड़ा एक पर्दा।  ये अनु था, अनुराग मिश्रा, देवेन भैया का जिगरी यार!

 

साल कुछ इसी तरह गुज़र गया।  अन्य दोस्तों के साथ अनु कई बार देर रात घर आता और रात को रुकता।  ऐसी ही एक रात देवेन भैया ने नैना से कोई किताब या मैगजीन देने को कहा।  नैना को 'मकसीम गोर्की की कहानियों की किताब' जब अगले दिन छत वाले कमरे की शेल्फ में मिली तो कई पेज मुड़े हुये थे।  अचरज ये था कि वे सभी नैना की भी प्रिय कहानियाँ थीं। फिर ऐसा आए दिन होने लगा, किताब जब पढ़ ली जाती तो नैना को शेल्फ पर रखी मिलती।  साथ ही कई बार कई पत्रिकाएँ और साहित्यिक-गैर साहित्यिक किताबें भी वहाँ मिलती जो नैना बिन कुछ कहे उठा ले जाती।  मुड़े हुये पन्ने अपने पढे जाने की तजवीज होते जिसे नैना ज़रूर पूरा करती।  

 

वह अब अक्सर हर दो-तीन दिन में आता रहता था।  बेतरतीब दाढ़ी के बीच परेशान चेहरा व तम्बाखू और उसकी गंध को छुपाने के लिए चबाई इलायची की गंध उस कमरे का स्थायी तत्व बन गई थी। एक रात नैना अपनी डायरी थामे फोल्डिंग पर लेटी चाँद को निहार रही थी कि छत के कमरे से आती आवाज़ों ने उसके ध्यान को तोड़ दिया।  चुप रहने वाले अनु की आवाज़ें कमरे की दहलीज़ पार कर नैना तक पहुँचती उसे विस्मय से भर रही थीं!

 

अगले दिन बिन पूछे ही भाभी ने बताया, अनु के पिता को उसका आंदोलनों में भाग लेना और पढ़ाई को बैक सीट पर करना बिलकुल पसंद नहीं था।  उनकी केवल एक इच्छा थी कि बड़े भाई की तरह अनु भी पढ़ाई पूरी करे और उनके यहाँ वहाँ फैले बिजनेस में हाथ बंटाए पर अनु तो जैसे किसी और मिट्टी का बना था।  उसे पिता की शानो-शौकत, बिजनेस और ऐशो-आराम में कोई दिलचस्पी नहीं थी। उसे न तो वो छोटा शहर रास आता था और न ही पिता का हिटलरी फरमान।  उस बड़े से हवेलीनुमा घर में उसका दम घुटता था।  एक तकरार से जैसे ताबूत में आखिरी कील ठुकी और वह पढ़ाई के बहाने दिल्ली आ गया।  माँ और बहन न होती तो वह कभी उन्हे अपनी शक्ल नहीं दिखाता।  दिन भर संगठन के कामों और आंदोलनों में अपने को झोंके रखता और तीन-चौथाई रात सिगरेट फूँकते हुये किताबों के काले हर्फों के सहारे काट देता।

 

उस रात भी माँ और दीदी उसे  लौटा लेने आए थे।  वहीं किसी दोस्त के घर पर टिके थे कि देवेन भैया का पता मिला पर अनु अपनी आज़ादी को कसकर मुट्ठी में थामते हुये जाने से साफ इंकार कर दिया।  अगले कई दिन छत का कमरा बेहद ख़ामोशी से दिन को रात और रात को दिन की तरफ आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ते देखता रहा।

 

तीन दिन बाद जब अनु शाम को लौटा तो नैना कमरे में ही थी।  नैना लौटने लगी तो देखा उसके हाथ में कुछ किताबें थीं।  'द कैपिटल' और 'चरित्रहीन' शेल्फ पर रखते हुये उसने बाहर जाती नैना को पुकारा।  इलायची की महक के पुल पर तैरते कुछ शब्दों ने नैना को छुआ, "इन्हें ज़रूर पढ़ना, तुम्हें पसंद आऐंगी।"  दो साल में अबोला टूटा था, नैना जैसे सिर से पाँव तक सिहर उठी और सर हिलाते हुए तेज़ी से सीढ़ियाँ उतर गयी। 

 

न अनु वापिस अपने घर लौटा और न ही लौटने को तैयार था अलबत्ता उसके बाद वह माँ और बहन से संपर्क में जरूर रहने लगा था।  कॉलेज खत्म होने को था पर वह दिल्ली से जोड़े रखने वाले इस बहाने को खोना नहीं चाहता था।  नैना भी अपने कॉलेज और दूसरे कोर्सेस में इतनी व्यस्त थी कि लाइब्ररी जाने का समय ही नहीं मिलता था।  पर शेल्फ पर मिलने वाली किताबें उसकी कमी महसूस ही नहीं होने देती थीं।

 

रविवार की एक दोपहर किसी फिल्म को लेकर  बहस छिड़ी हुई थी।  देवेन भैया अनिल कपूर की कोई फिल्म देखना चाहते थे और अनु का मन कुछ 'क्लासिक' देखने का था।

 

नैना ऊपर रस्सी पर सूखे कपड़े उतारते हुए बोली, "'प्रिया' पर 'सेंट ऑफ अ वुमन' क्यों नहीं देख लेते आप लोग। "

 

फिर क्या था अनु अड़ गया। अल पसीनो उसे भी बेहद पसंद थे और उस शाम दोनों को 'सेंट ऑफ अ वुमन' ही देखनी पड़ी।  अगली शाम इलायची की महक पर तैरता सा एक विनम्र सा शुक्रिया नैना को भला सा लगा।

 

उन दिनों अक्सर लाइट चली जाती थी और रात को सिंह फॅमिली की विशाल छत पर महफिलें जमने लगीं।  हर उम्र वर्ग की अलग बैठक, अलग बातें, किस्से-कहानियों और पकवानों की रेसिपी से लेकर मोहल्ले भर की गॉसिप।  इन सबसे अलग अनु और नैना की बातें फिल्मों और किताबों से केन्द्रित रहती।  दोनों की रुचियाँ एक थीं और किताबों और फिल्मों को लेकर एक जैसी पसंद इस बातचीत को इतना रोचक बना देती थी कि लाइट का चले जाना अब छत की उन बैठकों के लिए जैसे जरूरी ही नहीं रहा।  इसी बीच देवेन भैया ऊब कर सो जाते और वे दोनों अपनी-अपनी पसंद की फिल्मों और किताबों के नामों का उल्लेख करते रहते।  किसने कितनी किताबें पढ़ी और किस फिल्म में क्या खास था जैसे बताने की होड़ लगी रहती।  अनु नैना की पसंद पूछकर फिल्में देखता या फिर नैना को सजेस्ट  करता कि कौन सी अच्छी फिल्म लगी है। 

 

एक रात संगीत की महफिल में देवेन भैया ने गाया, "मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गाया।"  अनु और नैना ने डुएट गाया "अभी न जाओ छोड़कर कि दिल अभी भरा नहीं।"

 

कभी कभी संडे को छत वाले कमरे में सभी मित्रों की मीटिंग होती।  मुक्तिबोध और बाबा नागार्जुन के कविता पोस्टर बनाऐ जाते, बैनर तैयार होते। बिन कहे ही नैना या तो उनके साथ काम में जुट जाती या फिर उन्हे चाय-नाश्ता सर्व करती और हर तरह से मदद करती।

 

नैना उन दिनों बहुत खुश-खुश रहने लगी थी।  उदासी का स्थायी भाव उसके चेहरे से दूर होने लगा था।  उसकी आँखों के गुलाबी डोरे, खिली रंगत और हर समय रहने वाली मुस्कान किसी से छिपे कहाँ थे।  चाँद से मुलाकातों के साथ-साथ लाल डायरी के रंगे पन्नों की संख्या भी बढ़ने लगी।  चुपचुप नैना का मन किन गलियारों में भटकता कोई नहीं जानता था!  उसे कविता लिखते सबसे पहले भाभी ने ही देखा था।  शुरू में नैना की चाची को लगता वह नौकरी से बेहद ख़ुश है और अपने कैरियर को लेकर उसकी उलझनॉ के सिरे सुलझने का असर है।  पर भाभी को 'कुछ और' ही लगता था।  धीरे-धीरे इस 'कुछ और' में यहाँ से माँ और उधर नैना की चाची भी शामिल हो गईं। भाभी अक्सर नैना को छेड़ती और नैना शर्माकर सिर  झुका लिया करती। 

 

इधर अनु की आँखें भी अब बेचैनी पीछे छोड़ चुकी थीं। वह अब अक्सर कोई रोमांटिक डुएट गुनगुनाते हुए देवेन को गुदगुदा देता। दोनों ने मिलकर नया बिजनेस शुरू किया था।  देवेन हैरान था कि पुश्तैनी काम-धंधे से दूर भागने वाला अनु अपने काम को लेकर बेहद संजीदा और उत्साहित था।  न अब संगठन की सुध थी और न आंदोलनों की।  अब तो बस दिल्ली में पैर जमा लेने की जुगत में दिन रात बीत रहे थे।  कुछ हासिल कर लेने का जुनून उसे घेरने लगा था।  सिंह परिवार मे उसका बसेरा अब स्थायी हो गया था।  उसने पीजी भी छोड़ दिया था।  नैना से उसकी दोस्ती बरकरार थी और किताबों और म्यूजिक कसेट्स की अदला-बदली भी बदस्तूर जारी थी।  कभी कभी दोनों छत पर मन की बतियाया करते!  कहते हैं दीवारों के भी कान होते हैं, पर ये दोनों कहाँ सोचते थे!

 

एक दिन अनु की माँ और दीदी फिर आए।  इस बार दीदी की शादी थी, दो दिन अनु ने माँ और दीदी  को ढेर सारी शॉपिंग कराई।  दूसरे दिन नैना भी साथ थी, अनु को कहाँ मालूम था कि दीदी की जरूरतों का सामान कहाँ से अच्छा और सस्ता मिलेगा।  "ये वाली साड़ी बहुत अच्छी है, क्या कलर कॉम्बिनेशन है, ब्यूटीफूल न।" "देखिये न दीदी,  ये कंगन का सेट तो आप पर खूब फ़बेगा।"  "इस बैग का कलर और डिज़ाइन कितना यूनिक है।" "ओह, ये चप्पलें खूब टिकाऊ हैं।"  पूरा दिन चाँदनी चौक और करोल बाग में बीता और शॉपिंग बैग्स के बढ़ने के साथ-साथ बातों के पिटारे खाली होते रहे।  माँ को अनु की बदली रंगत का फार्मूला मिल गया था।  

 

रात का खाना सबने सिंह फॅमिली के साथ खाया।  लड़के-लड़की अंताक्षरी खेलते रहे पर उस रात छत के एक कोने पर हुई महिलाओं की बैठक में जाने क्या सुगबुगाहट हो रही थी, कि धीरे-धीरे पुरुषों ने भी अपनी बैठक की अघोषित समाप्ति की और महिलाओं की बैठक का हिस्सा बन गऐ ।

 

अगली सुबह जाते समय अनु की माँ ने एक सूट और एक लिफाफा नैना के कमरे में आकर उसे थमाया और सिर पर हाथ रखा तो साथ आई भाभी ने आगे बढ़कर अचरज में पड़ी, इंकार करती नैना के हाथों से थाम लिया।  उनके जाने के बाद भाभी ने नैना को गले से लगाकर चिकोटी काटी।

 

नैना के दिमाग की घंटी बजी!  कहीं ये लोग?  नहीं, नहीं.... ये कैसे हुआ?

 

भाभी की शरारती आँखें और उनका छेड़कर गुनगुनाना, महिलाओं की बैठक और अनु की माँ का प्यार, सब याद आने लगा।  सारी कड़ियाँ जुड़ रही थीं।  "तो क्या अनु  भी? ओह नहीं, ये नहीं हो सकता।  ये कैसे हो सकता है, आई मीन डिसगस्टिंग.....ओह नो.... हमारे बीच तो  कभी ऐसी कोई बात .... तो ????"  नैना का सिर घूमने लगा। 

 

"भाभी, ऐसा कुछ नहीं है!"

 

उसी मनोदशा में नैना ऑफिस चली गई और पूरा दिन बेचैन रही।  ये  सच था वह अनु को पसंद करती थी और शायद अनु को भी वह अच्छी लगती थी!  उनकी दोस्ती कई खुशगवार पलों की साक्षी रही थी! ये कुछ था जो दोनों को बाँधे था!  ये बंधन दोस्ती से परे था!  अपनेपन का अनोखा अहसास जो दोनों को ख़ुशी देता था!  कुछ ऐसा जो अधूरी नैना को पूरा करता था!  चुप्पी नैना के शब्दों को बेचैनी से भर देता था!  पर क्या ये साथ प्रेम है?  क्या नैना की तलाश  रास्ता अनु की ओर जाता है? नैना को वक्त चाहिए था!  प्रेम और दोस्ती के बीच एक महीन सी दीवार कहीं सर उठाये अपने वजूद की तलाश में मुँह बाऐ  खड़ी थी!

 

बेचैनी अस्तित्व को लपेटे रही, नहीं रहा गया तो हाफ डे लेकर घर चली आई।  पूरा रास्ता खुद से सवाल करते कटा!  ऑटोवाले ने चौंक कर पीछे देखा, जब उसने जोर से कहा "नहीं"!   इधर  दोनों घरों में सब लोग जैसे शाम के इंतज़ार में थे।  शाम को अनु लौटा तो सुगबुगाहट फिर शुरू हो गई।  बाकी दोनों महिलाओं ने भाभी को आगे कर दिया।  कुछ देर बार एक तोप का गोला भाभी पर दगा।

 

"नैना?  अपनी नैना? ओह भाभी!!!!!  हाँ, मुझे वो अच्छी लगती है, बहुत अच्छी, मेरी दोस्त है पक्की पर शादी?  नहीं भाभी, ऐसा तो कुछ नहीं?  आई मीन, ऐसा सोचा कैसे आपने?"

 

भाभी सिर पकड़कर बैठ गईं।  उन्हे लगता था या तो उनका दिमाग खराब है या फिर दोनों झूठ बोल रहे हैं।  दोनों को देखकर साफ़ लगता है,  दोनों मरीज़-ए-इश्क़ हैं पर दोनों ही मुकर गऐ ।  तो क्या दोनों प्रेम में नहीं हैं? भाभी सुबक उठीं।

 

अनु ने जमीन पर पंजों के बल बैठकर भाभी के आँसू पूछे और कहना शुरू किया, "ये ठीक है भाभी कि मैं और नैना एक दूसरे को बेहद पसंद करते हैं।  मुझे नैना का साथ अच्छा लगता है, उससे बतियाना, पसंद बाँटना, वी आर कम्फ़र्टेबल इन ईच अदर्स कंपनी।  हम दोनों अतीत में बेहद अकेले थे, बंद गुलाब से और एक दूसरे के साथ ने हमें खुलने में मदद की क्योंकि हम दोनों एक जैसे हैं।  उसके साथ की बहुत कद्र है मुझे पर क्या हम अच्छे, बहुत अच्छे दोस्त नहीं हो सकते।  जैसे मैं और देवेन!  अगर नैना लड़की है और मैं लड़का हूँ तो क्या जरूरी है हम प्यार में पड़े बिना एक दूसरे के साथ रह सकते ?"

 

दरवाजे पर खड़ी नैना को देखते हुए, अनु ने कहना जारी रखा, "नहीं, ये प्यार वो प्यार नहीं जो शादी के मुकाम पर पहुँचता है!  हमें वक्त दीजिये,   अगर हम एक दूसरे से … अरे तो सबसे पहले आपको बताते न भाभी!"  उसे पूरी उम्मीद थी नैना भी उसकी  इस बात को सहारा देगी।  यही हुआ भी, नैना ने भी हाँ में सिर हिलाया। 

 

थोड़ा झिझकते हुए अनु ने बात जारी रखी, " ये सच है मैं प्यार में हूँ पर वो नैना नहीं है। मैंने आज ही माँ को बता दिया है।"

 

" शिखा, उसका नाम शिखा है।  कॉलेज में साथ पढ़ती थी पर अपनी झिझक के चलते कभी उससे या किसी से कभी कह नहीं पाया।  देवेन को तो  पता है।  एक बार बिजनेस जम जाने के बाद मैं सबको बता देने वाला था।  यह भी सच है, कि शिखा से कहीं ज्यादा मैं नैना के करीब हूँ पर ये दोस्ती है, प्योर प्लोटोनिक फ्रेंडशिप, वो इश्क़ वाला, लव वाला, प्यार नहीं।"

 

"हाँ भाभी, सेम हेयर, यहाँ भी ये सिद्धार्थ है, अनु नहीं।  सिड मेरे साथ कॉलेज में पढ़ता था और अब हम एक ऑफिस में हैं।   सिड ने प्रोपोज़ किया पर मैं कभी कुछ तय ही नहीं कर पाई!  मैं आपको बताने ही..."

 

फिर तीनों एक साथ हँस पड़े और साथ में हँसा छत का कमरा भी।  दोस्ती का वो रिश्ता समय की परत चढ़ने पर कुछ और गहरा होता गया।  अनु और देवेन भैया दीदी की शादी निपटा कर लौटे तो एक दिन शिखा उन सबसे मिलने आई।  एक साल बाद सिड का ट्रान्सफर शिमला हो गया और शादी के बाद नैना भी शिमला चली गई।  अपना घर सँवारने और नौकरी की उलझनों में इतना मसरूफ़ हुई कि दिल्ली से जुड़े तार एक-एक कर लुप्त होने लगे। शनाया का जन्म होने वाला था तो अनु और शिखा की शादी का कार्ड मिला।  बहुत खुश थी नैना, डिलीवरी में कुछ दिक्कतें थीं तो न वह जा सकी और न ही सिड जा पाया।  पर दोनों चुप्पों ने ही अपना-अपना इश्क़ वाला लव पा लिया था!  जिंदगी रफ़्तार से दौड़ती रही!

 

कुछ महीनों बाद चाची के बेटे ने डेली अपडाउन से तंग आकर नोएडा में फ्लैट ले लिया, वे लोग नोएडा शिफ्ट हो गऐ   और सिंह फॅमिली ने तोड़कर घर बनाया तो छत वाला कमरा अतीत की परतों में गुम होकर इतिहास बन गया।  नज़रों से दूर होते-होते धीरे-धीरे यादों की अल्बम पर जमी समय की धूल ने यादों को धुँधला दिया था। आज फेसबुक पर मिली उस रिक्वेस्ट ने अतीत के उन सुनहरे पलों को सामने  ला खड़ा किया था।  आँखें बंद कर नैना ने साँस ली तो लगा इलायची की वह ख़ुशनुमा ख़ुश्बू और वह प्यारा सा अहसास अब ज्यादा दूर नहीं!

 

नैना ने रिक्वेस्ट 'कन्फ़र्म' की और नाम पर क्लिक कर प्रोफ़ाइल पर चली गई। कवर पेज पर अनु, शिखा और दो बच्चों की फॅमिली फोटो देख वह मुस्कुरा दी और मैसेज टाइप करने लगी।

 

 


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