लोग कुछ तो कहेंगे
लोग कुछ तो कहेंगे
कभी-कभी लगता है यह दुनिया कितनी अजीब है जो खिला सीधा हो उसे ठोक कर लगाया जाता है जो टेढ़ा-मेढ़ा हो उसे छोड़ दिया जाता है ।मगर मैं तो इंसान हूं फिर मुझे क्यों ईश्वर ने इतना ठोका शायद खरा सोना हूं इसलिए और मजबूत बना रहा है वैसे आज मैं बहुत खुश हूं ,हर अखबार हर ग्रुप में सब मुझे बधाई दे रहे हैं ।आखिर इतने बड़े स्तर पर मैंने परीक्षा पास की और मैं संसद में भाषा अनुवादक के रूप में चुनी गए लेकिन यहां तक पहुंचने में मुझे कितना संघर्ष करना पड़ा यह कोई नहीं जानता मेरे और ईश्वर के अलावा मगर आज न जाने क्यों डायरी में लिखने का मन किया ये "डायरी "मेरा पहला तोहफा थी जब मैंने समाज के लिए कुछ काम किया था तब से आज तक संभाल कर रखा है इसे
मेरी शादी तो एक सामान्य परिवार में हूई,मगर परिस्थितियां बड़ी असामान्य थी ।बहुत बड़ा परिवार मगर सब भटके विचारों से, लक्ष्यों से . सब साथ थे मगर कोई साथ नहीं, मेरी शिक्षा सामान्य थी और पति कि भी । जीवन की गाड़ी बड़ी धीमी चाल से रुक-रुक कर चल रही थी पति को नशे की आदत थी सुख के नाम पर एक अंधेरी रात होती थी ।छोटे घर, दीवारों के भी कान और नशे की वह गंध ' न चाह कर भी साथ'.....
कुछ अनसुलझे रिश्तो के साथ मुझे नए रिश्ते मिले तीन प्यारी बेटियां और एक बेटा ।पहला बच्चा जिसके आने से जीवन में कुछ खुशियां आई और उम्मीदें जागी मैं सब भूल गई."तकलीफे" दूसरी बेटी के बाद घर में बेटी को वह खुशी नहीं दी गई और तीसरी के बाद तो मुझ पर मानो सास ने ऐसे शब्द कहे मानो कोई पाप कर दिया हूं शुक्र है उनकी इच्छा के लिए ही सही मगर एक उन्हें पोता तो मिला नहीं नहीं मुझे तो गर्व है अपनी बेटियों पर ,मां तो मैं बहुत अच्छी बनी हर कोशिश की अपने बच्चों को शिक्षित व संस्कार देने की मगर पिता का साथ बच्चों को मजबूत बनाता है लेकिन नशे के चलते पति ने मेरा और बच्चों का साथ नहीं दिया और लंबी बीमारी के चलते वह जिम्मेदारी उसे पूरी तरह आजाद हो गए
"आजाद" तो हमेशा से रहे हो ,बंधन में तो मैं बंध गई थी। तभी तो झुलसती रही अकेले बच्चों के साथ लेकिन किसी ने साथ नहीं दिया ना कोई रिश्तेदार ना पड़ोसी उल्टा मेरे चरित्र पर प्रश्नचिन्ह लगाते रहे बहुत कुछ कहा -झूठ सब झूठ ,सच तो कुछ था ही नहीं .मगर ये काम तो उन लोगों ने किया जिन्हें मैंने ठुकराया मैं क्या कहूं इस दोहरे लोगों के बारे में एक तरफ संस्कारों की बातें करते हैं वहीं दूसरी औरतों पर नजर डालते हैं और प्रश्नचिन्ह लगाते हैं हम औरतों पर .
मेरे साथ बच्चे थे जिनको एक बेहतर जीवन देने के लिए मुझे ऐसे ही लोगों के बीच रहना पड़ा एक गुनाहगार की तरह. गुनाह तो सोच का था दूसरों की, कई बार ऐसी भी परिस्थिति आई कि में बच्चों की फीस भी नहीं जमा कर पाई हाथ फैलाए लोगों के सामने .कुछ ने दबी जुबान कहा गलत कर्म करो कुछ ने अभिमान से दिखावे के लिए ही सही मगर मेरी थोड़ी मदद की लेकिन इस तरह जीवन बड़ा निराश वह खोखला सा लगने लगा था ।मैंने बड़े संघर्ष के बाद निर्णय लिया मैं खुद पढ़ूंगी मैं पढ़कर अपने पैरों पर खड़ी होंगी मैंने अपनी पढ़ाई शुरू की जिसके चलते मेरी नौकरी लग गई कुछ समस्या कम हो गई मगर बड़े-बड़े कॉलेजों की फीस जमा करना बड़ा मुश्किल था मेरी बेटी ने डॉक्टरी की पढ़ाई की और उसकी फीस के लिए मुझे मेरे समाज से कुछ नामी लोगों ने गुमनामी से मेरी मदद की आज जिनके कारण मेरी बेटी डॉक्टर है ।मेरी शिक्षा व बच्चों की भी शिक्षा जारी रही ।बेटी के लिए अच्छा रिश्ता आया कभी-कभी लगता था रे तकलीफ बड़ी है मगर आखरी है ।फिर एक नई तकलीफ आती है फिर लगता है बस आखरी। लेकिन आज भी हर एक दिन एक नई समस्या मेरे सामने आती है बेटी की शादी तो हो गई मगर फिर दूसरी बेटी की शिक्षा और आजकल फिस मोटी मोटी होती है जिसे पटाते पटाते मैं पतली हो गई।
मगर कुछ अच्छी महिलाओं की दोस्ती व साथ ने मुझे अपनेपन का एहसास दिलाया कुछ कंधे थे मेरी रोने और हँसने के लिए .जिसके चलते जीवन में नया मोड आया , समाज की सोच नहीं बदल सकती मेरी सोच दूसरों को मेरे प्रति रवैया बदल दिया कहते हैं कपड़े और चेहरे अकसर झूठे हैं इंसान की असलियत तो वक्त वक्त बताता है।
मुझे लगा मैं जीवन की जंग जीत गई ।नहीं नहीं ,अभी और चौराहे थे ,एक रास्ते की तलाश है बेटा भी बड़ा है कुछ काम पर लग गया है ।बेटी डांस टीचर है एक बेटी पढ़ रही है घर की जिम्मेदारी बच्चों ने खुद ही ले रखी है बचपन से. आज कई जगह जाते हैं कार्यक्रम करने बहुत कुछ करते हैं निस्वार्थ ,मन में खुशी होती है चलो हम आर्थिक नहीं मगर समय देकर ही .किसी तरह समाज के काम तो आ रहे हैं मेरे अपनों ने मुझे अपनाया नहीं साथ तो दूर की बात है माँ बाप के जाने के बाद हम औरतों का कोई घर ही नहीं होता मैं भी चट्टान की तरह मजबूत होती गई। मेरी भी आंसू की नदियां बहती थी बहुत बार, मगर अब नहीं..
मैं सेलेक्ट तो हो गई मगर 1 महीने के लिए बच्चों को छोड़कर जाना बड़ा मुश्किल था वो भी दो लड़कियों को, मैंने घर तो बदल लिया मगर मन नहीं बदलता, गांव देहात की औरतों हूं शहर की आधुनिकता से डर जाती हूं जहां दिखावा अधिक होता है। मगर सच्चा कोई कोई .
दिल्ली तो चले गए मगर चिंता हमेशा रही शुक्र है रे मोबाइल व वीडियो कॉल है तो हैकुछ दूरियां नजदीकियों में बदल गई लेकिन हम औरतों के लिए कहीं सुरक्षा नहीं
केवल अपने मन के अलावा हमें केवल अपने गांव ,शहर ही नही बल्कि दिल्ली के संसद भवन में भी कई समस्याओं का सामना करना पड़ा ,हैरानी होती है । औरतों को खेलने की चीज समझा जाता है पैसों का लालच दिया जाता है अकेली औरत को दोहरे चरित्र लगता है ?पुरुषों को यह हक किसने दिया? मैंने मौन रहकर विरोध किया।
रेडियो का गाना बज रहा है "लोग कुछ तो कहेंगे लोगों का काम है कहना" जिसे जो कहना है कहने दो मैं सच्ची हूं गंगा की तरह पवित्र हूं लोग गंगा को भी कचरा फेंक कर गंदा कर रहे हैं और मुझे शब्द देकर. गंदा करने की कोशिश कर रहा है ।मगर मैं हमेशा मजबूत रही हूं मन से मैं ईमानदार हूं हमेशा अपने प्रति अपने बच्चों के प्रति। दूसरों की नजर में तो ईश्वर भी गलत है इस कहानी को पढ़कर आप क्या कहते हैं कहिए जो कहना है लोगों का काम है कहना