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Rajeev Pundir

Classics

3.8  

Rajeev Pundir

Classics

काले चश्मे वाली नर्स

काले चश्मे वाली नर्स

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आज बहुत दिनों के बाद उसकी आँखों में हरकत हुई. उसने अपनी पलकों को फड़फड़ाया और देखने की कोशिश की. मगर घने अँधेरे के सिवाय सामने कुछ न था. अब उसे यकीन हो गया था कि शायद अब वो देख नहीं पायेगा. ये सोच कर ही वह बहुत घबरा गया. उसने कुछ याद करने की कोशिश की परन्तु सिवाय इसके कि जिस फैक्ट्री में वो काम करता था वहां सल्फुरिक एसिड का एक ड्रम फट गया था और उसका सारा शरीर एसिड से जल गया था. उसके बाद क्या हुआ कुछ पता नहीं.

उसने थोड़ा हिलने की कोशिश की मगर भारी दर्द के कारण वो हिल भी न सका. बस एक दर्द भरी आह उसके मुंह से निकली. जो नर्स वहां बैठी थी, आह सुनते ही उसकी ओर ऐसे लपकी जैसे उसे उसकी आह का बरसों से इंतज़ार था. वो खुश थी की जिस मरीज़ की सेवा वो इतने दिन से कर रही है वो बच गया है.

मैं कहाँ हूँ? उसने कराहते हुए पूछा.

“हॉस्पिटल में” नर्स ने ज़वाब दिया.

किस हॉस्पिटल में?

“सफ़दर जंग, दिल्ली में” नर्स धीरे से बोली.

उसने फिर से उठने की कोशिश की. नर्स ने उसका कन्धा थपथपाते हुए कहा,

“आप लेटे रहिये...अभी ठीक होने में टाइम लगेगा”

फिर नर्स ने पानी का गिलास उठाया और दूसरे हाथ में चम्मच लेकर पानी भर लिया और उसके होठों की तरफ बढ़ाया. पहले उसने एक हल्की सी घूंट भरी और अपनी जीभ से अपने सूखे हुए होठों को नम किया.

आप कौन हैं? उसने बहुत कोशिश करके पूछा.

“नर्स”

मेरी पत्नी कहाँ है?

“वो दवाइयां लेने मेडिकल स्टोर तक गयी हैं, अभी आती होंगी. तब तक मैं हूँ ना” नर्स ने सहानुभूतिपूर्वक ज़वाब दिया.

करीब तीन महीने के अथक प्रयास के बाद उसकी जान तो बच गयी थी, मगर चेहरा-मोहरा सब कुछ बहुत विकृत हो गया था. एसिड से जल जाने के कारण उसकी खाल इस प्रकार से खिंच गयी थी की अब उसे कोई पहचान नहीं सकता था. इस हादसे में वो अब अपनी एक आँख भी खो बैठा था. बहुत कोशिश करने के बाद जब उसे दूसरी आँख से थोड़ा-थोड़ा दिखायी देना शुरू हुआ तो आईने में अपना खुद का चेहरा देख कर वो डर गया. ऐसा वीभत्स चेहरा उसने कभी नहीं देखा था. एकदम घोर निराशा ने उसे घेरे लिया.

उसको उदास देखा तो पत्नी ने पूछा, क्या बात है? इतने उदास क्यूँ हो गए?

आभा, अभी तो हमारा जीवन शुरू ही हुआ था और ये हादसा हो गया. मेरा चेहरा इतना वीभत्स हो गया है कि मुझे समझ नहीं आ रहा कि तुम तमाम उम्र मुझे कैसे ढो पाओगी? उसने भरे दिल से कहा.

उसकी आँखों में आंसू छलक आये. आभा धीरे से उठी और उसके पास जाकर बोली, “आप निराश मत होइए, सब ठीक हो जाएगा.” और उसके आंसू अपने हाथ से पोंछ दिए.

“आभा, तुम खूबसूरत हो, जवान हो, और मैं...नहीं नहीं...तुम दूसरी शादी कर लेना” उसने फिर से कहा. ये कहते हुए वो रो पड़ा. शायद दर्द बहुत घना और गहरा था.

“नहीं नहीं. आप ठीक हो जायेंगे. डॉक्टर कहते हैं, प्लास्टिक-सर्जरी करनी पड़ेगी और सब ठीक हो जाएगा” उसकी पत्नी ने उसका हौसला बढ़ाते हुए कहा.

मगर प्लास्टिक-सर्जरी का लाखों रुपयों का खर्च हम कैसे उठाएंगे? फेक्ट्री की नौकरी तो जा ही चुकी है. तुम अकेले कैसे कर पोओगी? उसने घोर निराशा में कहा.

“कोई बात नहीं, भगवान् सब ठीक करेगा. देखो यहाँ भी कोई नहीं कहता था की तुम बच जाओगे मगर उस काले चश्मे वाली नर्स के रूप में हमें तो जैसे भगवान् मिल गया. ये उसी की मेहनत का फल है कि तुम बच गए” आभा ने फिर से उसको दिलासा देते हुए उसका कंधा थपथपाया.

अगले दिन जब वो काले चश्मे वाली नर्स आई तो आभा दवाई लेने मेडिकल-स्टोर तक गयी हुई थी.

“नमस्कार” आते ही नर्स ने कहा और दवाई देने के लिए स्ट्रिप से टेबलेट निकालने लगी.

“सिस्टर, आपसे कुछ कहना है,” उसने धीरे से हिचकिचाते हुए कहा.

“हाँ, कहिये.”

सिस्टर, मेरी आपने इतनी सेवा की है कि...” फिर थोड़ी देर चुप होकर बोला, “...कि शायद भगवान् भी न कर पाता. मैं आपका ये क़र्ज़ कैसे चुका पाऊंगा?

“अरे नहीं, इसमें क़र्ज़ वाली कोई बात नहीं...ये तो मेरा काम है” नर्स ने उसकी ओर देखा और मुस्कुराते हुए कहा, “हाँ, मुझे इस बात का अहसास ज़रूर है कि जलने का दर्द, वो भी एसिड से, क्या होता है.”

वो कैसे? उसने उत्सुकतावश पूछ लिया.

कुछ सेकंड्स के लिए नर्स चुप रही. उसकी खामोशी ही बता रही थी कि बात बहुत गंभीर है.

“आज से पांच साल पहले किसी हरामी ने मेरे चेहरे पर एसिड फेंक दिया था. तब से. इलाज़ कराते-कराते मेरे पापा चले गए. हमारा घर बिक गया और हम सड़क पर आ गए. किसी तरह मेरी माँ ने घर-घर झाड़ू बर्तन करके मुझे ये नर्स की ट्रेनिंग करवायी और हम कुछ संभल गए, नर्स ने दर्द भरे लहजे में कहीं दूर देखते हुए कहा.

और वो? उसका क्या हुआ? उसने उत्सुकतावश जानने की कोशिश की.

“होना क्या था? हम सब मेरे इलाज़ में लगे रहे, उधर वो ले-दे कर छूट गया”

वो देख रहा था की नर्स का चेहरा एसिड फेंकने वाले के प्रति अथाह नफरत से भरा था. उसके एक-एक शब्द में उसका दर्द छलक कर बाहर आ रहा था. अब उसे ये भी आभास हो गया था कि वो हमेशा काला चश्मा क्यूँ पहने रखती है.

क्या नाम है आपका? उसने गंभीर होकर पूछा.

“बुलबुल”

कहाँ की रहने वाली हैं आप?

मेरठ?

किस मोहल्ले से?

“बुढाना गेट.”

किस कॉलेज में थी आप ?

“मेरठ कॉलेज में बी. ए. कर रही थी उस समय.”

कभी उस लड़के से मुलाक़ात हुई?

“थूकती हूँ मैं उसके उपर...साला”

फिर न उसकी कुछ पूछने की हिम्मत हुई, न आगे उस नर्स ने कुछ कहा.

कमरे में गहरा सन्नाटा छा गया. इसके बाद वो दवाई देकर चुपचाप चली गयी.

घंटे भर बाद जब आभा लौटी तो देखा कि उस वार्ड के नीचे लोगों का जमघट लगा हुआ है. उत्सुकतावश उसने किसी से पूछा कि क्या हुआ है?

“किसी मरीज़ ने ऊपर से छलांग लगा कर आत्म हत्या कर ली है,” किसी से ज़वाब मिला.

“ओह,” और ये कह कर वो अपने पति के वार्ड की ओर चल पड़ी.

मगर वो वहां मौजूद नहीं था. कुछ लोग बालकनी से नीचे झाँक रहे थे. उसने भी नीचे झांककर देखा.

नीचे उसके पति की लाश पड़ी थी.

उसकी जेब से उसका लिखा एक कागज़ का पुर्ज़ा मिला था जिसमें लिखा था—

“पांच साल पहले किये हुए घृणित काम का प्रायश्चित करने का और कोई तरीका नहीं है मेरे पास. बुलबुल मुझे माफ़ कर देना. सुरेश.”

 

 


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