बेवजह...भाग- ३
बेवजह...भाग- ३
अब तक...
अब तक आपने इसके दूसरे भाग मैं यह देखा कि कियान कैसे जीविका की और आकर्षित होता है, जीविका और उसकी मां अपने आप में ही बहुत पीड़ित है, कई राज अपने आप में दबाये हुए भी वह चेहरे पर मुस्कान लिए जीते हैं....
अब आगे...
कियान के कानों में ये शब्द गूंजने लगे... उसके दिल में कहीं ये बोल घर कर गए... जीविका के इन्हीं शब्दों में उसे कहीं उसके सवालों का जवाब दिखने लगा... जिस वज़ह को ढूंढते हुए वो अपनों से दूर... इस हाल में बेवजह ठोकरें खा रहा था... उन ठोकरों की वजह... उसे जीविका के शब्दों में नजर आने लगी..
दिन ऐसे ही बीत रहे थे... चेहरे पर मुस्कान थी मगर... आँखों में कई अश्क़ छुपे हुए थे, जीविका की मां को मन ही मन यह पता था कि एक ना एक दिन ठाकुर उनकी चौखट पर आएगा... मगर फिर भी जीविका की मां घुटन में जी रही थी... इन्हीं दिनों में कियान जीविका के करीब आ रहा था... मन ही मन वो जीविका को चाहने लगा था, मगर जीविका की गहरी खामोशी अक्सर कियान के शब्दों को जुबान में ही क़ैद कर लेती थी...
जीविका की मां को जिस दिन का डर था... वो दिन आ गया, कियान शाम की रसोई के लिए लकड़ियां लाने गया था और जीविका रसोई के लिए बाज़ार सब्जी तरकारी लाने गयी थी, घर मै मां अकेली थी... घर के अंदर दीवार पर कृष्णा भगवान का फोटो टंगा हुआ था जीविका की माने भगवान के सामने शीश झुकाया और जैसे ही हाथ जोड़े, दरवाज़े पर एक दस्तक हुई, दस्तक सुन कर जैसे ही जीविका की मां दरवाजे पर आई... सामने देखते ही उसके होश उड़ गए, दरवाजे पर ठाकुर का आदमी खड़ा था... उसने कहा
"ठाकुर साहब का संदेशा लाया हूँ, आज अपनी बेटी को तैयार रखना"...
"नहीं साहब ऐसा जुर्म मत करो".... जीविका की मां ने रोते हुए कहा
"और हां हवेली पर आने की कोई जरूरत नही ठाकुर साहब खुद यहां पधारेंगे"...
'अरे सुनो तो सही... वो बच्ची है, मासूम है"...
जीविका की मां रोती, रही बिलखती रही मगर ठाकुर का आदमी बिना कुछ सुने ही लौट गया... रोते रोते जीविका की मां ने अपनी आँखों से आंसू पोछे, और घर के अंदर चली गयी... घर के अंदर एक पुराना संदूक था मौके का फायदा उठाते हुए जीविका की मां ने संदूक खोला संदूक के अंदर कुछ कपड़े थे उन कपड़ो के बीच एक तस्वीर थी, मां ने वो तस्वीर अपने हाथों से बाहर निकाली, और तस्वीर को देखते ही रो पड़ी... ये तस्वीर जीविका के बाबा की तस्वीर थी... दबी आवाज़ में मां ने कहा...
"आपकी अमानत आपकी लक्ष्मी को अब कैसे संभालू... जीविका के बापू आप ही कुछ बोलो अब मैं के करूँ... म्हारी छोरी ने कैसे बचाऊँ, कैसे बचाऊँ... कैसे बचाऊँ अब".....
आँखों से बहते अश्क़ दिल की तकलीफ को साफ बयां कर रहे थे, तभी जीविका घर लौटी, अपनी मां को ऐसी हालत में देख वो मां से पूछ ही रही थी कि तभी कियान भी लौट आया, जीविका और मां को ऐसे हालात में देख वो मां के करीब आया... और बड़े ही धीमे स्वर में उसने पूछा
"मां क्या हुआ मां... बताओ मां"....
जीविका की मां ने कियान के शब्द सुनते ही अपनी नजर ऊपर कर कियान की आँखों मै देखने लगी, पहली बार कियान ने जीविका की मां को.. मां कहकर पुकारा था...
कियान की आँखों मैं मां को एक अलग सी चमक एक अलग सी ऊर्जा नजर आने लगी और फिर देर ना करते हुए जीविका की मां ने संदूक से एक गठरी निकाली जिसके अंदर पैसे थे, उस गठरी को मां ने जीविका के हाथ में दी... और कियान से कहा-
"इनमें कुछ रुपये हैं, तुम ये रुपये लो और जीविका को यहां से कहीं दूर ले जाओ... आज रात ठाकुर यहां आने वाला है, और अब जीविका की लाज बचाने का कोई और चारा नहीं है।"
"इस तरह भाग जाना क्या... ठीक है, यह जीविका का गाँव है, उसका घर है, उसका घर छोड़ के किसी ठाकुर के डर से आखिर क्यों।".... कियान
"तुझे पता ना है छोरा, गांव के किसी भी मर्द में यह हिम्मत नही है कि ठाकुर के आगे उंगली उठा सके, और हम ठाकुर के साथ मुक़ाबला नहीं कर सकते... इसलिए कहूँ हूं तुम दोनों यहां से दूर चले जाओ।"
जीविका यह सब सुनकर, बस रोये जा रही थी और फिर उसने कहा...
"मां तुम्हे छोड़कर मैं कहीं नहीं जाऊंगी"... जीविका
"छोरी तुझसे दूर जाना तो मैं भी नहीं चाहती मगर शायद, तक़दीर को यही मंजूर है".... मां
"आप भी हमारे साथ चलिये".... कियान
"नहीं, नहीं यह घर जीविका के बापू की निशानी है... मैं नहीं जाऊंगी यहां से, मगर मुझसे वादा कर छोरे की म्हारी छोरी का हाथ कभी नहीं छोड़ेगा।"
"जीविका म्हारी लाडो मुझे वचन दे, की फिर लौट कर यहां कभी नहीं आएगी... वचन दे मुझे"....
"मां , नहीं मां".... जीविका
"लाडो वचन दे मुझे... लौट कर फिर ना आएगी..".
जीविका ने मां को वचन दिया... और मा ने जीविका का हाथ कियान के हाथों दिया और कहा-
"छोरे मुझे वचन दे कि इसका हाथ कभी नहीं छोड़ेगा, कभी नहीं"....
"वचन देता हूं".... कियान
दिन के उजाले में ठाकुर और उसके आदमियों से बच निकलना मुश्किल था, इसलिए कियान ने फैसला किया कि रात के अंधेरे में निकला जाए...
अब कियान, जीविका और मां रात होने की राह देख रहे थे, सूरज डूबते ही कियान और जीविका ने मां से विदा लेकर छुपते छुपाते, रेगिस्तान के रास्ते पर निकल पड़े, और मां जीविका के बापू की तस्वीर अपने सीने से लगाकर घर के एक कोने मैं बैठकर रोने लगी..... आखों से आंसू तस्वीर पर गिर कर बह रहे थे, जीविका की मां तस्वीर को बड़े प्यार से देखने लगी और फिर अपने हाथों से उन पर पड़े आंसुओं को पोंछकर..... तस्वीर को उन्होंने साफ किया और फिर अपने गुजरे कल की यादों में खो गयी....
★
जीविका की मां यानी सरला अपनी शादी के पहली रात पर फूलों से सजे सेज पर अपने पति यानी... विक्रम सिंह का इंतज़ार कर रही थी, तभी हल्की सी आवाज़ के साथ कमरे का दरवाजा खुला और विक्रम कमरे में दाखिल हुआ, विक्रम के पैरों की दबी आवाज़ सुनकर सरला के दिल की धड़कने तेज़ हो गयी, विक्रम धीरे से सेज पर बैठा और उसने कहा...
"ऐ जरा घूंघट तो हटा।"
मारे घबराहट के सरला के पसीने छूट रहे थे, डर के मारे सरला कुछ बोल नहीं पा रही थी....
"ऐ कुछ तो बोल।"
विक्रम ने उत्सुकता के चलते अपने हाथों से घूंघट निकाला... सरला शर्म से पानी-पानी हो रही थी, विक्रम ने प्यार से सरला का मुख ऊपर किया... और उसकी झुकी पलकों में देखने लगा...
"वाह ! ... क्या बात है वाकई आज दो चाँद निकले हैं"...
यह सुनते ही सरला प्रश्णार्थी भाव से विक्रम के सामने देखा...
"हां वाकई मैं झूठ नहीं बोलता, आज सच में दो चाँद निकले हैं... एक वहां आसमान में तो एक यह जमीन पर मेरे सामने।"
सरला ये बात सुनते ही शर्मा गई...
विक्रम ने सरला का हाथ थामा... और उसे अपनी बांहों में भर लिया....
विक्रम सरला से बहुत प्यार करता था... विक्रम का परिवार काफी बड़ा था, विक्रम के परिवार में विक्रम की मां और बाबूजी, विक्रम का बड़ा भाई और भाभी, और एक छोटा भाई और बड़े भाई का एक लड़का... सरला बहुत खुश थी, घर के सारे काम साथ ही उसकी सास और ससुर की सेवा वह बड़े ही चाव से करती थी...
सवेरे सूरज की पहली किरण के साथ ही सरला उठ जाया करती थी, घर के सारे काम और रसोई आदि सब बखूभी संभाल लेती थी, और बचे हुए वक़्त मैं कभी अपनी सासू के पैर भी दबा लिया करती थी... सरला की जेठानी भी बड़ी अच्छी थी वह सरला के सभी कामों में उसका हाथ बँटाती थी...
एक दिन बाहर बरामदे में सरला मिर्ची को धूप दिखा रही थी... तभी अचानक से सरला का सर चकराने लगा सरला दौड़ के पास ही स्टीट पानी के नल के पास जाकर उल्टी करने लगी, सरला की जेठानी यह देख सरला के पास आकर उसे संभालने लगी...
"सरला क्या हुआ"...
"पता नहीं भारी भारी सा महसूस हो रहा है"...
यह सुनकर सरला की सास बहुत खुश हुई...
"अरि के भारी भारी महसूस होव है तन्ने, ये तो खुशी की बात है.. पाव भारी से थारा"...
सरला यह बात सुनकर बहुत खुश हुई, मगर सरला की खुशी को देखकर उसकी जेठानी बिल्कुल खुश नहीं थी, और सरला के पूछने पर उसकी जेठानी ने कहा...
"तू पेट से इस बात का गम नहीं, मगर बस इतना खयाल रखना की छोरी ना जन्मे"....
'आप ऐसा क्यों बोल रहे है छोरा हो या छोरी क्या फ़र्क पड़ता है"....
"घना फरक पड़ता है... राजीव के पहले इस घर ने मेरी दो बेटियों की बली ली है, आज भी मेरी रूह काँप जाती है, जब मैं सोचती हूँ"....
सरला की जेठानी यह कहते हुए अपने आपको रोक नही पाई और उसकी आँखों से दर्द के आंसू बहने लगे...
"आप यह क्या कह रहे हो"... सरला
"अरि ओ... अब धूप में वही खड़ी रहोगी क्या.. चलो अंदर चलो, बींदणी जा सरला को उसके कमरे में ले जा उसे आज आराम करन दे"....
"जी मां सा"... सरला की जेठानी
सरला अपने कमरे में आते ही अपनी जेठानी से उस हादसे के बारे में पूछने लगी... मगर वह सरला को जवाब ना देते हुए ही वहां से चली गई....
सरला बहुत परेशान हो रही थी, उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था.... यह खबर जल्द ही विक्रम तक पहुँचाई गई, विक्रम खेतों में काम कर रहा था, खबर सुनते ही विक्रम खुशी से झूमने लगा... वह सीधा खेतों से दौड़ते हुए घर पहुँचा, घर पहुँचते ही...
"आ गया, अरे जरा देखो तो कैसे भागा चला आया.... बींदणी अपने कमरे में है जा जाकर मिल ले"....
विक्रम शरमाते हुए अपने कमरे में दाखिल हुआ... सरला चारपाई पर बैठी हुई थी, जैसे ही सरला की नजर विक्रम पर पड़ी वह शरमाकर विक्रम से नजरें चुराने लगी... विक्रम सरला के करीब गया और बड़े ही प्यार से उसने सरला से सवाल किया...
"सच"
सरला ने अपनी पलकों को झुकाकर हां कहा.... और विक्रम ने सरला को अपनी बांहों में भर लिया....
सरला बहुत खुश थी, मगर सवेरे अपनी जेठानी से सुनी हुई वह बात उसके दिल में घर कर गई थी, सरला को बार बार आंखों के सामने बस अपनी जेठानी का चेहरा नजर आता और कानों में बस वही बात सुनाई पड़ती....
सरला अपने आप को काफी देर तक रोक नहीं पाई, और उसने न चाहते हुए भी एक रात विक्रम से इस बात का जिक्र किया... विक्रम ये बात सुनकर बहुत ही निराश हो गया और उसने कहा....
"हां सच है यह बात... मां को बेटियां नहीं पसंद, मां कहती है कि लड़कों के सिवा वंश आगे नहीं बढ़ेगा".... विक्रम
"क्या सिर्फ इसिलए दोनों लड़कियों को मौत के घाट उतार दिया... छोटी बचियां थी क्या किसी ने यह भी नहीं सोचा".... सरला
विक्रम के पास सरला की बातों का कोई भी जवाब नहीं था... वह सिर्फ सरला की बातें सुने जा रहा था...
"तुम्हारी मां भी तो एक औरत है... फिर एक औरत ही ऐसा कैसे सोच सकती है, बोलो चुप क्यों हो"...सरला
"म्हारे पास थारी इन सब बातों का कोई जवाब नहीं"... विक्रम
"और अगर कल को मैंने भी छोरी जन्मी तो... तब क्या करोगे, मार डालोगे उससे भी".... सरला
विक्रम को सरला की बात का बहुत गुस्सा आया, मगर वह चुप रहा... उसने सरला की बात का कोई जवाब नहीं दिया और करवट बदल कर सो गया... सरला सारी रात इन दकियानुसी बातों और रिवाजों के बारे में सोचती रही और इसी सोच में सुबह हो गयी....
देखते ही देखते नौ महीने बीत गए... सरला को बहुत तेज़ दर्द हो रहा था, किसी भी वक़्त प्रसव हो सकता था, सभी लोग बहुत उत्सुक थे... सरला को बार बार विक्रम से हुई वह बातें याद आ रही थी, विक्रम शहर गया था, यह बहुत ही सोचा समझा नुस्खा था, विक्रम की मां ने कुछ दिनों के लिए विक्रम को शहर भेज दिया ताकि प्रसव के वक़्त वह यहां मौजूद ना हो और जो लड़की पैदा हो तो उससे आसानी से रास्ते से हटाया जाए....
इंतज़ार खत्म हुआ, दाई मां कमरे से बाहर आई... और उन्होंने धीमे शब्दों में उदासी भरे स्वर में कहा.... छोरी हुई है....
क्रमशः