डार्विन का सिद्धांत
डार्विन का सिद्धांत
फ़ूट-फ़ूट कर रोते-रोते हुए अचानक वो उठी और आंखों से आंसू पोंछ, कुछ दृढ़ निश्चय कर अलमारी से साड़ी निकाली और फंदा गले में डाल लिया।
अब तक का सारा जीवन चलचित्र के सदृश उसके जेहन में घूमने लगा।
पढ़ाई लिखाई में बचपन से ही तेज़ थी वो। उसके पिता कस्बे से बाहर शहर कॉलेज जाकर पढ़ने के विरोधी थे इसलिए घर पर रहकर दूरस्थ शिक्षा से उसने परास्नातक तक पढ़ाई की वो भी गोल्ड मेडल के साथ। पर उसमें आत्मविश्वास की कमी थी।
वो कुछ अंतर्मुखी, अपने में ही सिमटी और सहमी हुई सी रहती थी। किसी बाहरी व्यक्ति से बात करने में भी बहुत झिझकती थी वो क्योंकि बचपन से ही उसने घर में पिता का कठोर अनुशासन और हमेशा माँ को उनके सामने नतमस्तक होते हुए देखा है। छोटे भाई से भी जब कभी उसकी लड़ाई होती तो माँ सिर्फ उसे ही चुप रहने को कहती और यही समझाती रहती कि बेटी लड़कियों और औरतों को तेज बोलना, ज्यादा ज़ोर से हँसना, बहस करना इन सबसे बचना चाहिए तभी घर इन सुख शांति रह सकती है।'
तो बस इन्हीं बातों को दिल में सहेजे वो ससुराल चली आयी। यहाँ पर भी सारे दिन काम में खटते रहना पर उसे बदले में पति, सास और ससुर और ननद के ताने और दुत्कार ही मिलतीं। माँ बाबा से कुछ कहती तो कहते 'बेटी तुम्हारा घर अब वही है। हर हाल में तुम्हें वहीं रहना है। थोड़ी और सहनशीलता रखो सब ठीक हो जाएगा।'
ऐसे ही दो बरस बीत गए अब तो बच्चा न होने के ताने भी उसे दिए जाने लगे। अभी कुछ देर पहले भी खाने में कमीं बताकर उसे जली कटी सुनाकर उसके माँ बाप को कोसा गया तो दौड़ कर वो कमरे में चली आयी।
"अब और कोई रास्ता नहीं बचा अब बर्दाश्त नहीं होता माँ"
पत्र लिख टेबल पर छोड़ दिया।
और स्टूल नीचे से वो हटाने ही वाली थी कि तभी उसकी साइंस टीचर का मुस्कुराता चेहरा उसके दिमाग में कौंध गया और उनका पढ़ाया पाठ डार्विन का सिद्धांत (योग्यतम की उत्तरजीविता) भी घूमने लगा।
तभी अचानक एक झटके से उसने फंदा गले से निकाला और 100 न. मोबाइल से डायल कर दिया।