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द्वंद्व युद्ध - 22.2

द्वंद्व युद्ध - 22.2

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वह कुछ देर चुप रही। अलार्मघड़ी अपनी धातुई बड़बड़ाहट से अंधेरे कमरे के सभी कोनों को भर रही थी। आख़िर में उसने मुश्किल से सुनाई देने वाली आवाज़ में, मानो सोच में डूबी हो, कुछ ऐसे भाव से कहा जिसे रमाशोव पकड़ नहीं पाया, “मैं जानती थी कि तुम यही कहोगे।”

उसने सिर उठाया और, हाँलाकि शूरच्का ने उसकी गर्दन को हाथों से थाम रखा था, वह पलंग पर सीधा हो गया।

“मैं डरता नहीं हूँ !” उसने ज़ोर से, बिना आवाज़ किए कहा।

“नहीं, नहीं, नहीं, नहीं,” उसने आवेगपूर्ण, शीघ्र, विनती करती हुई फुसफुसाहट से कहा। “तुम मुझे समझे नहीं। मेरे नज़दीक आओ। जैसे पहले, आओ न !”

उसने दोनों हाथों से उसका आलिंगन किया और फुसफुसाने लगी, उसके चेहरे को अपने नर्म, पतले बालों से सहलाते हुए और उसके गाल पर गर्म गर्म साँस छोड़ते हुए: “तुम मुझे समझ नहीं पाए। मैं कुछ और ही कहना चाहती हूँ, मगर तुम्हारे सामने मुझे शर्म आती है। तुम इतने पाक-साफ़, इतने भले, और मुझे तुमसे यह कहने में सकुचाहट हो रही है। मैं चालाक हूँ, नीच हूँ।”

“नहीं, सब कह दो। मैं तुमसे प्यार करता हूँ।”

“सुनो,” वह कहने लगी, और वह शीघ्र ही उसके शब्दों को सुनने के बदले भाँपने लगा। “अगर तुम इनकार कर दोगे, तो कितना अपमान, शर्म और मुसीबतें झेलनी पडेंगी तुम्हें। नहीं, नहीं, मैं फिर। वो नहीं कह पा रही। आह, मेरे ख़ुदा, इस पल मैं तुम्हारे सामने झूठ नहीं बोलूँगी। मेरे प्यारे ये सब मैंने बहुत पहले ही सोच रखा था, और इस पर भली भाँति विचार भी कर लिया था। मान लेते हैं, तुमने मना कर दिया। पति का सम्मान पुनर्स्थापित हो जाता है। मगर, समझो, द्वन्द्व युद्ध में, जो समझौते से समाप्त हो जाता है, हमेशा कुछ रह जाता है। कैसे कहें ? वो, याने कि, संदेहास्पद, कुछ कुछ ऐसा जो अविश्वास एवँ निराशा को उकसाता है। तुम मुझे समझ रहे हो ?” उसने शोकपूर्ण नर्मी से पूछा, और सावधानीपूर्वक उसके बालों को चूमा।

“हाँ। तो फिर क्या ?”

“फिर ये, कि इस हालत में पति को परिक्षा लगभग देने ही नहीं दी जाएगी। जनरल-स्टाफ़ के अफसर की प्रतिष्ठा पर ज़रा सा भी धब्बा नहीं होना चाहिए। मगर, यदि आप सचमुच में एक दूसरे पर गोली चलाते हैं, तो इसमें कुछ वीरतापूर्ण, शक्तिशाली होगा। उन लोगों के लिए कई, कई सारी चीज़ें माफ़ हो जाती हैं, जो गोलियों की बौछार में स्वयँ की गरिमा बनाए रखते हैं। फिर। द्वन्द्व युद्ध के बाद। तुम, अगर चाहो तो, माफ़ी भी माँग सकते हो।।।ख़ैर, ये तुम्हारा फैसला है।”

कस कर एक दूसरे का आलिंगन करते हुए वे षड़यंत्रकारियों की भाँति फुसफुसाते रहे; एक दूसरे के चेहरों को और हाथों को छूते हुए; एक दूसरे की साँसें सुनते हुए। मगर रमाशोव महसूस कर रहा था कि उनके बीच अदृश्य रूप से कोई रहस्यमय, नीचतापूर्ण, चिपचिपी चीज़ रेंग गई है, जिससे उसकी आत्मा में ठंड की लहर दौड़ गई। उसने फिर से स्वयँ को उसके हाथों से आज़ाद करना चाहा, मगर वह उसे छोड़ नहीं रही थी। समझ में न आने वाली, बहरी चिड़चिड़ाहट को छिपाने की कोशिश में उसने रूखेपन से पूछा, “ख़ुदा के लिए, सीधे सीधे समझाओ। मैं हर बात का वादा करता हूँ।”

तब उसने हुकूमत के स्वर में, उसके ठीक मुँह के पास कहना आरंभ किया; उसके शब्द शीघ्र, थरथराते हुए चुंबनों जैसे थे:

 “तुम्हें कल किसी भी हाल में गोली चलानी होगी। मगर तुममें से कोई भी घायल नहीं होगा। ओह, मुझे समझने की कोशिश करो, मुझे दोषी न समझो ! मैं ख़ुद भी कायरों से नफ़रत करती हूँ, मैं एक औरत हूँ। मगर मेरी ख़ातिर यह करो, गिओर्गी ! नहीं, पति के बारे में कुछ न पूछो, उसे मालूम है। मैंने सब, सब, सब, कर लिया है।”

अब वह झटके से सिर हिलाकर उसके मुलायम और शक्तिशाली हाथों से स्वयँ को छुड़ा सका। वह पलंग से उठ कर दृढ़ता से बोला, “ठीक है, ऐसा ही होने दो। मैं राज़ी हूँ।”

वह भी उठ गई। अँधेरे में उसकी गतिविधियों से वह देख नहीं पाया, मगर उसने अंदाज़ लगाया, महसूस किया कि वह शीघ्रता से अपने बालों को ठीक कर रही है।

 “तुम जा रही हो ?” रमाशोव ने पूछा।

 “अलबिदा,” उसने क्षीण आवाज़ में कहा। “मुझे आख़िरी बार चूमो।”

रमाशोव का दिल दया और प्यार से थरथराने लगा। अँधेरे में टटोलते हुए उसने हाथों से उसका सिर ढूँढा और उसके गालों और आँखों को चूमने लगा। शूरच्का का चेहरा गीला हो रहा था ख़ामोश, सुनाई न देने वाले आँसुओं से। इसने उसे परेशान कर दिया, उसके दिल को छू लिया।

 “मेरी प्यारी, रो मत। साशा, प्यारी।” उसने सहानुभूतिपूर्वक, नर्मी से दुहराया।

उसने अचानक रमाशोव की गर्दन में बाँहें डाल दीं, हवस और शक्ति से पूरी तरह उससे चिपक गई और उसके मुँह से अपने जलते हुए होठों को बिना हटाए रुक रुक कर, पूरी तरह थरथराते हुए और गहरी गहरी साँसें लेते हुए कहा, “मैं इस तरह तुमसे बिदा नहीं ले सकती।।।अब हम फिर कभी नहीं मिलेंगे। इसलिए किसी बात से नहीं डरेंगे। मैं, मैं चाहती हूँ वो। एक बार, अपनी ख़ुशी का लुत्फ उठा लें। मेरे प्यारे, आओ मेरे पास, आओ, आओ।”

और वे दोनों, और पूरा कमरा, और पूरी दुनिया एकदम परिपूर्ण हो गई किसी बेक़ाबू, खुशगवार, कँपकँपाते उन्माद से। एक सेकंड के लिए तकिये के सफ़ेद धब्बे के बीच रमाशोव ने परीकथा की स्पष्टता से अपने निकट– अति निकट, अपने क़रीब शूरच्का की आँखों को देखा, जो बदहवास ख़ुशी से चमक रही थीं, और वह लालची की तरह उसके होठों से चिपक गया।

 “क्या मैं तुम्हें छोड़ने आऊँ ?” उसने शूरच्का के साथ दरवाज़े से आँगन में निकलते हुए पूछा।

 “नहीं, ख़ुदा के लिए, कोई ज़रूरत नहीं है, प्यारे। ये मत करो। मैं वैसे भी नहीं जानती कि तुम्हारे यहाँ मैंने कितना समय गुज़ार दिया। कितने बजे हैं ?”

 “मालूम नहीं। मेरे पास घड़ी नहीं है। ठीक ठीक नहीं जानता।”

 वह जाने में देरी करती रही और दरवाज़े से टिक कर खड़ी रही। हवा में ख़ुशबू थी मिट्टी की; और पत्थरों से सूखी, लालसायुक्त गंध थी गर्म रात की। अँधेरा था, मगर अँधेरे के बीच रमाशोव ने देखा, जैसे तब, बगिया में देखा था कि शूरच्का का चेहरा विचित्र, श्वेत प्रकाश से दमक रहा है, मानो संगमरमर के पुतले का चेहरा हो।

 “तो, अलबिदा, मेरे प्यारे,” आख़िरकार थकी हुई आवाज़ में उसने कहा, “अलविदा।”

उन्होंने एक दूसरे का चुंबन लिया, और अब उसके होंठ थे ठंडे और निश्चल। वह जल्दी से फाटक के पास गई, और रात का गहरा अँधेरा फ़ौरन उसे खा गया।

रमाशोव खड़े होकर तब तक सुनता रहा, जब तक फाटक की चरचराहट न सुनाई दी और शूरच्का के हल्के क़दम ख़ामोश न हो गए।

गहरी, मगर प्यारी थकान ने अचानक उसे दबोच लिया। वह मुश्किल से अपने कपड़े उतार पाया – इतनी उसे नींद आ रही थी। और अंतिम सजीव अनुभूति जो नींद से पहले थी वह थी हल्की, मीठी मीठी ख़ुशबू, जो तकिए से आ रही थी – शूरच्का के बालों की ख़ुशबू, उसके सेन्ट की और ख़ूबसूरत, जवान जिस्म की ख़ुशबू।


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