जमीन की तलाश
जमीन की तलाश
मुल्लू काछी से ब्याह के बाद उल्का सुख के दो पल देखने को तरस गयी थी। सुबह-शाम हाड़ तोड़ मेहनत के बाद सूखी रोटी और ठंडा पानी। जब कभी कोई सब्जी खेत में फलने लगती बस तभी सब्जी का स्वाद जुबान को मिल पाता।
पड़ोस वाली चम्पा आज फिर उसे बनी ठनी दिखाई पड़ी थी। उसका पति रतनू शहर जा कर कितना बदल गया है। वहाँ वह नये जमाने वाला रिक्शा चलाने लगा है। अब तो उसका भी मन करता है कि वह भी शहर जाये और जैसे रचना और चम्पा के दिन फिरे उसके भी फिर जायें।
अब अक्सर ही यह विचार उसके मन मे आने लगा कि क्यों ना उसके पास खेत के रूप में जो जमीन है उसे बेच कर शहर में जमीन तलाश अपना छोटा सा घर बनवा कर रहा जाये। सपनों के पीछे भागने वाला इंसान जो ना करे वह थोड़ा ही होता है, सो एक दिन आखिर उल्का की जीत हो ही गयी और वह गाँव की जमीन-जायजाद औने पौने मे बेच मुल्लू संग शहर आ गयी।
गाँव मे सब बेचना तो आसान था पर शहर में नयी जमीन ख़रीदना उतना ही मुश्किल। शहर के चालबाज़ लोगों से अब उसे अपनी जमा पूँजी बचाने मुश्किल होती जा रही थी। नया धंधा जमाना भी आसान ना था। समय बीतता जा रहा था पूँजी खत्म होती जा रही थी। अपने खुद के घर में रहने वाला गाँव का सीधा सादा किसान अब शहर में दूसरों के घर में किराया दे कर रह रहा था और जमा पूँजी धीरे धीरे कम होती जा रही थी।
गाँव में जो शुद्ध हवा व पानी मिल रही थी वह भी अब नही मिल पा रही थी। ठेलों की चाट पकौड़ी तो मिल रही थी पर चूल्हे की रोटी का स्वाद चला गया था और शहर की जिस जमीन की तलाश में गाँव का घर छोड़ा था उसके तो अब मिलने के दूर-दूर तक कोई आसार नजर ही नहीं लग रहे थे।