निर्णय
निर्णय
रामनाथ मुंडा उर्फ़ रामू धीरे धीरे चल रहा था. हालांकि उसकी उम्र सत्तर के उसपार थी, लेकिन उसकी धीरे चलने की वजह उसकी उम्र नहीं थी. जवानी के दिनों में उसने काफी कड़ी मेहनत की थी, उसका फ़ाएदा उसे बुढापे में आकर मिल रहा था. इस उम्र में भी वो माली का काम काफी अच्छे से कर लेता था.
धुप, छाँव, बारिश, धुंध, रामू को किसी भी चीज़ से कोई फरक नहीं पड़ता था. उसको ट्रेंनिग ही ऐसी मिली थी. हमेशा अपने नियत समय में पुष्प विहार सेक्टर 4 और 7 के बीच बने पार्क में पहुँच जाता था. लगभग सारा काम वो अकेले ही निपटा लेता था. पार्क को काफी अच्छे से संभाल रखा था रामू ने. घास की चादर हरे गालीचे जैसी लगती थी, फूलों की क्यारी खिलखिलाती रहती. पूरे पार्क में साफ़ सफाई भी रहती थी. और इसका सारा न सही, लेकिन 95 प्रतिशत श्रेय रामू को ही जाता था. वो ज्यादा बात चीत नहीं करता था और चुप चाप अपने काम पर ध्यान देता था. माली का ज़्यादातर काम झुक कर करना पड़ता था. लेकिन रामू को इससे भी कोई ख़ास दिक्कत नहीं होती थी. उसको ट्रेनिंग ही इसी चीज़ की मिली थी.
खैर बात हो रही थी, रामू के चलने की. रामू धीरे चल रहा था. दरअसल अगर हम कोई काम न करना चाहें तो हमारा अंतर्मन अपने आप ही हमको उस चीज़ के प्रति उदासीन बना देता है. रामू जहाँ जा रहा था वो वहां जाना नहीं चाहता था.उसने आज तक किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया था. लेकिन आज.....
अनमने ढंग से चलते हुए रामू के मन में कई सारी चीज़ें चल रही थी. आज सुबह ही उसका अपने बेटे से झगडा हुआ था. अभी उसकी बेटी की शादी हुए कुछ ही महीने हुए थे लेकिन लड़के वालों की तरफ से डिमांड का आना जारी था. अभी पिछले महीने ही टी.वी खरीद कर दिया था अभी फ्रिज फरमाईश आ गयी थी. एक माली की तनख्वाह इतनी भी नहीं होती कि हर महीने ऐसे खर्च उठा पाए. फिर भी रामू चाहता था की किसी तरह से संभाल ले. वो संभाल ही रहा था. लेकिन जब उसका बेटा साकेत सिटी हॉस्पिटल के पार्किंग सहायक की नौकरी से निकाला गया (दारु पीकर हंगामा करने की वजह से) और उसकी पत्नी की तबियत बिगड़ी तो रामू के विकल्प तेज़ी से ख़तम होते गए. उसके पास वैसे भी कोई ज़्यादा विकल्प थे भी नहीं. सुबह झगडे में जब उसके बेटे ने बताया कि दहेज़ की मांग पूरी न करने की वजह से कैसे उसके दोस्त के एक जानकार की बहन को जला दिया गया था तो रामू के पास और कोई चारा भी नहीं बचा था. जो निर्णय वो लेना नहीं चाहता था वो उसे लेना पड़ा.
दूकान आ गयी थी. वो ठिठका. दूकान के बाहर एक गार्ड दुनाली बन्दूक लेकर बैठा था. उसने रामू को रोका. रामू का पहनावा ऐसा नहीं था कि वो इतने बड़े दूकान में दाखिल हो पाए. वैसे भी बड़े दुकानों में बड़े लोग ही जा पाते हैं, वहां अगर रामू जैसे लोग जाएंगे तो उनके स्टेटस में कमी आ जाएगी. लेकिन रामू ने गार्ड को अपने आने का कारण बताया तो गार्ड ने उसे जाने दिया.
आगे जाकर एक कम उम्र का लड़का मिला तो रामू ने उससे बात करना चाहा, लेकिन वो अपने ही भौकाल में बात सुने बिना ही कहीं दूरी ओर चला गया. आगे जाकर एक बुज़ुर्ग सा आदमी मिला तो रामू ने उससे बात की.
"नमस्ते"
"जी कहिये ?" बुज़ुर्ग ने अपना चश्मा ऊपर किया और रामू की तरफ देखा.
"दरअसल... सुना है यहाँ गहने गिरवी रखे जाते हैं "
"सही सुना है "
"देखकर बताएँगे इसके कितने मिल पाएंगे?" रामू ने अपने कुरते के जेब से कपडे की एक पोटली निकाल कर बुज़ुर्ग के सामने कांच के काउंटर पर रखा.
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रामू अब तेज़ चल रहा था. उसके कुरते की जेब थोड़ी मोटी हो गयी थी क्युकी उसमे लिपटे हुए 25 हज़ार रूपए थे. उसके दिमाग में अभी भी कई सारी चीज़ें चल रही थी. फ़ौज के वो दिन, ट्रेनिंग, हॉकी खेलना, नेशनल में सिलेक्शन, एशियाड में मैडल जीतना, उसकी एड़ी की चोट, ड्राईवर की नौकरी, पेंशन के लिए दफ्तरों क़ चक्कर,फिर मिस्त्री की नौकरी... अभी तक की ज़िंदगी सब एक रील की तरह उसके दिमाग में चल रहा था. उसने अपने कुरते के जेब को कस कर पकड़ा. ये 25 हज़ार उसके लिए बहुत कीमती थे.
रोमेश एंड संस ज्वेलरी स्टोर के दराज में एक सोने का तमगा अभी अभी रखा गया था.
उसके ऊपर 1966 एशियाड गेम्स उकेरा हुआ था. उसके पट्टी नहीं थी. दूकान से निकलते वक़्त रामू से रहा नहीं गया और उसने उसी बुज़ुर्ग से पुछा था कि क्या वो मैडल की पट्टी उन्हें दे सकते हैं. रामू की आवाज़ में ही कुछ ऐसा था कि बुज़ुर्ग मना नहीं कर पाए थे.
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रामू के दामाद को फ्रिज मिल गया था.