ट्रान्सफर लेटर
ट्रान्सफर लेटर
प्रतिदिन की तरह आज भी मैं समय से विद्यालय पहुँच गई| ऑफिस पहुँच के सारे काम निपटाना शुरू कर दिया |
बच्चों की प्रार्थना व योग भी समाप्त हो चुके थे बच्चे अपनी-अपनी कक्षा मे बैठ गए थे, तभी अचानक मेरा फ़ोन बज उठा, मैंने फ़ोन उठाया तो उधर से हमारे अधिकारी की आवाज़ आई, "हैलो! मैडम आप का ट्रान्सफर लेटर बन चुका है आप ऑफिस पहुँच कर रिसीव कर ले"
"ठीक है सर, मैं आती हूँ" मैंने उत्तर दिया|
सामने बैठी हमारी सहायक टीचर को मैंने यह बात बताई और फिर धीरे-धीरे पूरे विद्यालय मे यह खबर आग की तरह फैल गई |
मैं अपने ट्रान्सफर की बात से खुश थी क्योंकि जो विद्यालय मुझे मिल रहा था वह मेरे घर से करीब 5 किलोमीटर की दूरी पर था|
स्कूल के कुछ बच्चों को कोई फर्क नहीं पड़ रहा था, परन्तु कुछ के चेहरे बता रहे थे कि उन्हें मेरा यहा से जाना अच्छा नहीं लग रहा था |थोड़ी देर की खुशी के बाद मुझे भी ऐसा प्रतीत होने लगा कि शायद मैं भी खुश नहीं हूं, इन मासूम बच्चों से दूर जाना मुझे भी अच्छा नहीं लग रहा था, पर जाना तो है ही क्योकि, नौकरी है इसमे ऐसा ही होता है| कौन सा पहली बार हो रहा है? वहाँ भी तो नये बच्चों से मुलाकात होगी |
मैं मध्याह्न मे बच्चों को भोजन खिलाने के बाद विद्यालय से ऑफिस जाने के लिए तैयार हो गई | रोज की भाँति कुछ बच्चों ने अभिवादन किया और कुछ बच्चों ने चरण स्पर्श किए| मैं ख़ुशी मन से उन्हे आशीर्वाद दे कर जैसे मुड़ी, मुझे लगा जैसे पीछे से मेरी साड़ी का पल्लू कही फँस रहा हो, पलट कर देखा तो कक्षा 2 मे पढने वाला एक छात्र रवि था जो मेरे पल्लू को पकड़ रखा था|मैं घुटनों के बल बैठ गई और बड़े प्यार से पूछा, "क्या बात है रवि?"
उसकी आँखें भरी हुई थी मेरे पूछते ही वह हिचकियाँ लेने लगा, आँसू गालों पर लुढ़कने लगे |
बार-बार पूछने पर वह रोते हुए बोला "म म..मैम आप मत जाओ" और फिर जोर-जोर से रोने लगा |
वह जिस करुणा से रो रहा था उसे देख कर मेरा मन विचलित हो गया | मेरी सारी कोशिशों के बाद भी वह चुप नहीं हो रहा था, मैंने उसके गालों पर बहते हुए आँसुओं को पोछ कर उसे आश्वासन दिया कि ठीक है मैं नहीं जाऊंगी।थोड़ी देर बाद वह चुप हुआ पर उसके चेहरे की मासूमियत जैसे कही गायब हो गई हो।रात मे खाने के बाद मैं अपनी बाल्कनी मे टहल रही थी पर मन बहुत बेचैन था, बार-बार रवि का मासूम चेहरा सामने आ रहा था| अभी पिछले साल ही तो मिली थी उससे, जब उसका दाखिला पहली कक्षा में हमारे विद्यालय मे हुआ था, वह बहुत ही शरारती बच्चा था उसमे सभ्यता नाम की कोई चीज नहीं थी, पूरे गाँव मे अपनी बुराइयों के कारण चर्चित था| अगर गाँव वालों के सामने उसकी चर्चा होती तो सब एक साँस मे सौ कमियाँ ढूंढ कर सामने रख देते|
पहले दिन ही विद्यालय के एक अध्यापक के डांटने पर उनकी कॉलर पकड़ कर लटक गया दो चार भद्दी-भद्दी गलियाँ भी दे डाला, कुछ दिन तक ऐसा ही चलता रहा|
नवम्बर का महीना था बच्चे प्रार्थना करने के बाद अपनी कक्षा मे जा चुके थे, तभी गेट से एक बूढ़ी महिला एक बच्चे को घसीटते हुए विद्यालय में ले कर आ रही थी वह बच्चा जोर जोर से चिल्ला रहा था भद्दी भद्दी गलियाँ दिए जा रहा था तब तक विद्यालय के एक अध्यापक ने जाकर बच्चे को पकड़ लिया और उसे अंदर ले कर कक्षा में बैठाने का भरसक प्रयास करते रहे पर वह चिल्लाए जा रहा थामैंने रजिस्टर बंद किया फिर कक्षा में गई और उसे बैठाने का प्रयास करती रही, पर सारे प्रयास असफल रहे। अंदर से मुझे भी घुटन होने लगी, दरवाजे पर खड़ी बूढ़ी दादी और सभी बच्चे तमाशा देख रहे थे, पर वो अपनी हरकत से बाज नहीं आ रहा था। थक हार के मैने एक थप्पड़ उसके गाल पर रख दिया और इतनी जोर से चिल्लाया कि सारे बच्चे सहम गए, मैंने सभी बच्चों को बैठने का इशारा कर अपने ऑफिस में आकर रजिस्टर पूरा करने की कोशिश करने लगी पर मन नहीं लग रहा था इतने सालों की नौकरी में मैंने कभी किसी बच्चे पर हाथ नहीं उठाया, मेरी डाट ही काफी होती थी बच्चों के लिए, बच्चे मेरे प्यार को बखूबी समझते थे, मेरे साथ किसी भी विषय की शिक्षण गतिविधि बच्चे बड़े मन से करते थे। हमेशा से ही मेरा बच्चों से बड़ा लगाव रहा है और हो भी क्यों न, दिन के 6 घंटे तो उन्ही के साथ निकलता है।
मन बहुत व्यथित हो रहा था, अब तक तो उस बच्चे के रोने की आवाज़ भी कम हो चुकी थी। मैं फिर से उठी और जाकर उसका हाथ पकड़ कर ऑफिस मे लाना चाह रही थी, पर मुझे महसूस हुआ कि वह डर गया है, उसे लग रहा था कि दुबारा उसे मार पड़ने वाली है। मैंने काफी कोशिश की और उसे अपने कमरे में लेकर आई, पहले उसका मुँह धुलवाया फिर अपनी ही रुमाल से उसका मुँह पोछा, पर्स से निकाल कर कुछ टॉफ़िया खाने को दी।
मैंने उससे प्यार से कहा "डरो नहीं बेटा, तुम तो बहुत अच्छे बच्चे हो तुमने गलियाँ दी इसलिए मेरा हाथ उठ गया, गलती करते हो तब तुम्हारी मम्मी भी तो तुम्हें डांटती होंगी, मैं भी तो तुम्हारी माँ जैसी हूँ"। उसने बड़ी मासूमियत से बोला "मेरी मम्मी नहीं है, वह मुझे छोड़ कर चली गई"।
"कब"
"जब मैं बहुत छोटा था"
और पुनः रोने लगा, मैंने उसे खींच कर गले लगा लिया। मुझे इतनी ग्लानि हो रही थी कि वह बताने के लिए मेरे पास शब्द नहीं बचे थे। थोड़ी देर तक मैं उसे प्यार से समझाने की कोशिश करती रही और फिर टॉफ़ी का रैपर खोल कर उसके मुँह मे डाल दिया फिर ले जाकर कक्षा मे बैठाया, कुछ देर तक बच्चों के साथ बैठा रहा।मेरे मन मे बार बार सिर्फ यही विचार आ रहा था कि जिस बच्चे से उसकी मासूमियत ही छीन ली गई हो उससे हम क्या अपेक्षा रख सकते हैं। माँ बच्चे की प्रथम पाठशाला होती हैं, यह मासूम तो इससे वंचित ही रहा, सही और गलत का फर्क उसे कौन समझाता। माँ जब अपने बच्चे को सीने से लगाती हैं तो उस बच्चे को सारी खुशी मिल जाती है, माँ के आँचल मे कोई दुख नहीं होता है वहां तो सिर्फ खुशियाँ ही खुशियाँ होती है।दूसरे दिन रवि समय से विद्यालय आया और बड़े ही अच्छे से शिक्षण गतिविधि में शामिल हुआ, ये सिलसिला कई दिनों तक चलता रहा।
सोमवार के दिन मैं जैसे विद्यालय पर पहुंची सामने से रवि आता दिखाई दिया, मैंने मुस्कुरा कर उसे शाबाशी दी प्रतिदिन समय से विद्यालय आने के लिए। तभी कुछ बच्चो ने कहा कि "मैम रवि कल भी विद्यालय आया था हम लोगो ने उसे वापस किया था", मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ मैंने उससे पूछा, "रवि तुम कल क्यो विद्यालय आये थे? बताया गया था कि कल रविवार है विद्यालय बंद रहेगा", वह बड़ी मासूमियत से मेरे पास आकर बोला, "मैम मुझे लगा आप आएंगी तो मै बिना दादी को बताए आ गया था। उसकी बातें सुन कर मैं बहुत भावुक हो गई।
समय बीतता गया अब वह अपनी कक्षा मे सबसे तेज बच्चो मे खुद को शामिल कर चुका था। मुझे याद है जब उसने पहली बार "क" अक्षर लिखा था तो उसके चेहरे पर कारगिल का युद्ध जीतने जैसी खुशी साफ दिख रही थी। कक्षा मे पढ़ाने वाला अध्यापक कोई भी हो पर उसकी कॉपी जब तक मैं न चेक करू, उसे समझ में नहीं आता कि वह गलत है या सही।वह अधिक से अधिक समय मेरे साथ बिताने की कोशिश करने लगा। धीरे धीरे वह सभ्य बच्चों में शामिल हो गया, गाँव से भी खबरे मिलने लगी उसकी अच्छाईयों के, मैं जो भी बाते समझाती अक्षरसह वह वैसा ही करता। एक अध्यापक अपने सभी बच्चों से प्यार करता है सभी का मार्ग दर्शन करता है पर रवि एक अलग तरह का छात्र रहा, उससे मेरी निकटता बढ़ती ही गयी। जब वह कुछ अच्छा करता तो मुझे वैसी ही खुशी मिलती, जैसी एक माँ को मिलती है।आज मेरे स्थानांतरण का लेकर जो दुख इसे हो रहा है, इसे मैं भी महसूस कर रही थी, परंतु नौकरी है कर भी क्या सकते हैं।
रात में मैं अपने बिस्तर पर करवटे बदलती रही पर मानो नींद तो कही गायब ही हो गई थी।
मेरे अपने बच्चे तो बड़े हो चुके थे, परन्तु मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे अभी मेरा एक बच्चा छोटा है। मैंने स्कूल की नौकरी सिर्फ इसी लिए की थी क्योंकि मुझे बच्चों के बीच रहना अच्छा लगता था, बच्चों की एक छोटी सी मुस्कान दिल को बहुत सुकून पहुँचाती थी, परंतु आज मैं इतनी स्वार्थी कैसे हो रही? जो बच्चा मुझमें अपनी माँ ढूंढ रहा है उसे मैं अकेला कैसे छोड़ दूँ? मेरे जाने के बाद अगर वह फिर से बिगड़ गया तब क्या होगा? एक शिक्षक का कर्तव्य है बिना किसी स्वार्थ के बच्चे के भविष्य को संवारना, राष्ट्रहित में एक अच्छा नागरिक बनाना। काफी रात तक सोच विचार करती रही इसी बीच कब नींद आयी पता ही नी चला।
सुबह मैं सारे काम निपटाकर स्कूल जाने को तैयार हुई परंतु नये विद्यालय पर नहीं। मैंने अपना निर्णय बदल लिया था और ऑफिस में फोन करके बता दिया कि कम से कम 4 वर्ष तक मैं पुराने विद्यालय से ट्रान्सफर नही लेना चाहती। विद्यालय पहुंचते ही सभी बच्चे खुश हो गये, और रवि दौड़ कर मेरे पास आया और मुझे पकड़ लिया। उसके चेहरे की मुस्कान आजीवन ना भूलने वाली थी।