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अपनों के बीच

अपनों के बीच

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गर्मी में झुलसता मई का महीना। जीवन-मरण के बीच झूलती अम्मा। सबको खबर कर दी गई थी कि अम्मा अब नहीं बचेंगी। ये शायद उनकी अन्तिम बीमारी होगी। बेटे एवं बहू सभी अलग-अलग शहरों से आकर इकट्ठा हुए हैं। अम्मा की ख्वाहिश थी कि अपनी अन्तिम साँस अपने पुरखों के पुस्तैनी मकान में ले। इसलिए कुछ दिन पहले उन्हें गाँव पहुँचा दिया गया। तबियत अधिक बिगडी तो परिवार के अन्य लोग भी आ गये हैं। न डाक्टर, न अस्पताल, न कोई दवा। मौत की आहट से चौकन्ना-ठेल-ठेल कर बीतता हुआ एक-एक दिन।

                                               

जिस खटिया पर अम्मा को लिटाया गया है वह तनिक गहरी है। अम्मा खटिया में धँस-सी गई हैं। घर के लोगों के साथ गाँव की महिलाएँ भी अम्मा को घेरे बैठी हैं। किसी को कोई बहुत जरूरी काम याद आ भी जा रहा है तो वह घर जाकर जल्दी से उस काम को निपटा कर लौटी आ रही हैं। अन्तिम दर्शन की बेला ! न जाने कब अम्मा के प्राण पखेरू उड जाएँ।

                                               

वहाँ एकत्र कुछ महिलाएँ अम्मा के स्वभाव का बखान कर रही है तो कुछ अम्मा के भाग्य को सराह रही हैं।

                                              

‘‘भगवान ऐसे ही पूत सबको दें ! पुश्तैनी मकान तर गया। जहाँ ब्याह कर डोली आई वहीं से अर्थी उठे, क्या यह कम भाग्य की बात है। और यह सब किया बेटों ने। यह गाँव तो कब का छूट गया था अम्मा से। लायक बेटे थे जो बात मानकर यहाँ ले आये नहीं तो डपट कर बैठा देते वहीं कि अब कौन लाद कर तुम्हें गाँव पहुँचाये...।

                                               

‘‘और क्या, इतना बडा परिवार, अन्तिम बेला में सब साथ। अम्मा की इच्छा का इतना ध्यान..."

                                               

अम्मा असक्त हैं, किन्तु सबकी बातें सुन समझ रही हैं। उनके चेहरे के भाव विचित्र हैं। कुछ जाने, कुछ अनजाने। जीवन से गहरी निराशा उनकी आँखों से छन-छन कर बाहर बही आ रही है, जैसे कहना चाह रही हों कि जिन्दगी से थककर दम तो मैंने कब का तोड दिया था, अब तो यहाँ सिर्फ साँसे छूटेंगी। बारी-बारी से वे सबके चेहरे को टोह रही हैं... सब अम्मा को ताक रहे हैं- न जाने कब किससे क्या कह दें।

                                               

मधुरा की माँ अम्मा की खटिया की पाटी पकड कर बैठी हैं। उनका अपना दु:ख है- भरी जवानी में बेटी विधवा हो गई। भगवान ने इतनी-सी ही उम्र में क्या न दिखाया बेचारी को। बीमार पति को इलाज के लिए शहर ले जा रही थी। कहने को तो बेटा साथ में था पर दस साल की छोटी उम्र, उसका क्या सहारा ? बैठने के लिए गाडी में सीट भी नहीं मिली थी। वहीं, सन्डास के सामने जमीन में एक ओर पति को लिटा कर खुद भी बेटे के साथ बैठ गई। आधा रास्ता भी नहीं पार हुआ था कि पति के प्राण पखेरू उड गये। करेजा कडा करके मुँह पर चादर ओढा दी। बेटा समझ गया, रोने लगा। मधुरा ने बेटे का मुँह दबा दिया- चुप रहो बेटा, रोओगे तो सब जान जायेंगे कि तुम्हारे पापा मर गये हैं। लाश पुलिस उठा ले जायेगी, चीर-फाड करेगी.. देखो मैं नहीं रो रही हूँ... अगले स्टेशन पर उतर कर गाँव लौट चलेंगे।"

                                               

दस बरस का बेटा, कितनी समझ उसकी। लेकिन माँ की बात मानकर आँसू पोछ लिया। दोनों माँ-बेटे लाश लेकर घर आ गये। इतनी देर से भीतर ही भीतर आँसू सोखे बैठी थी मधुरा पर घर पहुँचते ही छाती पीट-पीट कर, सिर पटक-पटक कर रोई... पर क्या होता है रोने से। जाने वाला तो चला ही गया। किस्मत की बात है। जाना मुझे चाहिए था चला गया दामाद। पता नहीं मेरा कागज भगवान के घर में कहाँ खो गया है कि बुलावा ही नहीं आ रहा है.... बेटा खोई, दामाद खोई.... अभी जी रही हूँ। न जाने अब और क्या देखना बदा है। अम्मा का भाग ! (भाग्य) देखो, बेटी, बहू सबका अहिबात अमर है, सबकी कोख हरी है... ये सब अपनी-अपनी करनी, अपनी-अपनी किस्मत का फल है। मधुरा की माँ आँचल के कोर से अपनी आँखें पोछे जा रही हैं।

                                               

सोना की काकी मधुरा की माँ की बगल में ही बैठी हैं-

“सच कहती हो बहिन, करम-करम की बात है। हमारी पतोहू हमें सेटती तक नहीं, यहाँ देखो तो पतोहू जी-जान से सेवा-टहल कर रही है। एक माखी तक मुँह पर भिनकने नहीं पाती।"

बोलते-बोलते सोना की काकी अम्मा के ऊपर भिनभिना रही मक्खियों को पंखी से उडा दीं। क्या करे कोई, गरमी के महीनों में गाँव देहात में मक्खियाँ बहुत हो जाती हैं। सुनयना सोच रही है शाम को बाज़ार से मच्छरदानी मँगा लेगी, अम्मा को मक्खियों से कुछ राहत मिल जायेगी।

                                               

दोपहर उतरने लगी है। अम्मा को नींद आ गई है। गाँव की महिलाएँ एक-एक करके अपने-अपने घर जा चुकी हैं। सुनयना कुछ देर अम्मा के पास बैठती है। उसका मन तडप रहा है। अम्मा की मौत का तमाशा ! न डाक्टर, न दवाइयाँ। बस, मौत का इन्तजार। अम्मा ने कहा गाँव पहुँचा दो, सबने झट मान लिया। यह कैसी भाग्य है ! इन्हें तो इस समय गहन चिकित्सा कक्ष में होना चाहिए- डाक्टरों के बीच। जीवन रक्षक यन्त्रों और दवाइयों के बीच। मौत को आना है, आयेगी । लेकिन इस तरह से गर्मी में छटपटाती तो न अम्मा। ऊपर से ये गाँव की महिलाएँ, अम्मा का भाग्य सराह रही हैं ! सुनयना के दिल में अँधेरा फैलता जा रहा है।

                                               

रात में लालटेन जलाकर अम्मा के कमरे में रख दी गई । बहुत दिनों के बाद अम्मा के सभी बच्चे इकट्ठा हुए थे। मिल - जुलकर हँसते बतियाते सबने भोजन किया। अन्त में अम्मा के लिए पानी और दूध लेकर अम्मा की बहुए तथा सुनयना अम्मा के कमरे में गई। अम्मा को जगाया। अम्मा ने बडी धीमी आवाज में पूछा -

"सब लोग खा लिए ?"

‘‘हाँ।”

‘‘क्या बना था ?"

‘‘आलू की कचौडी और सब्जी।”

‘‘मुझे नहीं खिलाया ?"

छटपटा गई सुनयना। सम्भल कर बोली-

"अम्मा तुम ठीक से पानी और जूस तो पी नहीं पाती हो। कचौडी कैसे खाती ? लो दूध पियो।"

अम्मा चुपचाप बेमन से दो-चार घूँट दूध पी लीं।

                                               

खटिया के तल से चिपकी अम्मा एक रात और बिता गर्इं। भोर की किरण अभी पूरी तरह फूटी भी न थी कि गों-गों करती अम्मा की आवाज पूरे घर में गूँज गई। एक-एक करके सब भागे अम्मा के कमरे में। अम्मा उल्टा ब्लाउज पहन रखी हैं। कल शाम तक तो ऐसा नहीं था, तो क्या रात में अम्मा ब्लाउज उतार कर फिर से पहनीं। हाथ उठाने तक में तो असमर्थ हैं। कैसे उठी होंगी रात में ! शायद बहुत गर्मी लगी होगी रात में। लोटे का पानी भी पूरा खाली है ! अम्मा ने किसी को आवाज क्यों नही दी ! क्या अम्मा की आवाज नींद में पडे लोगों को सुनाई ही नहीं दी। अम्मा कितनी बेचैनी महसूस की होगी! बेटे, बहू सकते में हैं।

                                               

सबको अपने पास देख अम्मा कुछ कह रही हैं। पर साफ-साफ कुछ समझ में नहीं आ रहा है। कुछ देर सुनने के बाद ऐसा लगा कि शायद अम्मा चाय माँग रही हैं। चाय बन कर अम्मा के पास लाई गई। उन्हें पिलाने का प्रयास किया जाने लगा। उन्होंने खुद चाय पीने से इनकार किया तथा बेटों को चाय देने का इशारा किया। सुनयना की आँखें भर आर्इं । तो बेटों के चाय के लिए परेशान थी अम्मा ! अम्मा के मुँह में भी चाय डाली गई पर घूँट भर भी चाय अम्मा न निगल सकीं । सब निकल कर बाहर आ गई। मधुरा की माँ का कहना है कि अब क्यों जोहते हो बाट ? मौत एक कदम और नज़दीक आ गई है। उतारो इन्हें खटिया से नीचे। आँगन लिपवा कर वहीं लिटा दो। कुछ धरम-करम करवाओं।

सुनयना तडप उठी - ‘

‘आँगन में कितनी गरम हवा लग रही है। वहाँ तो अम्मा की तबियत और खराब हो जायेगी|”

‘‘का बिटिया, माया मोह छोडो... अब और क्या तबियत खराब होगी । अब तो जो होना था सो हो चुका। तुम्हारी माँ लक्ष्मी थीं अब चली अपने धाम... अब का गरम हवा का ठण्डी हवा... सब बराबर है|”

‘‘कुछ भी बोलती हो काकी, अम्मा अभी जीवित हैं। जीते जी मार डालोगी उन्हें ?”

‘‘ऐसे ही होता है बेटा, घटका लग चुका है.. उल्टी साँस शुरु है। बस घण्टा दो घण्टा और.... इतनी उमर यही सब देखते सुनते बीती है।आभास लग जाता है बेटा।"

अपनी बात को वजनदार बनाकर गर्व से चमकती आँखो को घुमाते हुए मधुरा की माँ ने अपनी बात पूरी की। उनके अनुभव का सुनयना पर कितना असर पडा यह तो नहीं पता किन्तु सुनयना ने अम्मा को चारपाई से नीचे नहीं उतारने दिया। ऊबड-खाबड जमीन, सिर्फ दरी पर ! रत्ती भर माँस शरीर पर नहीं बचा है, किसके सहारे सह पायेंगी अम्मा जमीन का इतना कडकपन।

सूरज की अम्मा को अलग ही चिन्ता सता रही है। सुनयना की ओर खिसकते हुए उन्होंने बडे धीरे से पूछा-

‘‘कुछ लेन-देन बता पार्इं कि नहीं ?”

‘‘मतलब ?"

‘‘अरे यही कि किसी को कुछ उधार-पाती दी हों तो..."

                                              

एक दीर्घ नि:श्वास ली सुनयना ने। मन में आया कि कह दे- हाँ बतार्इं हैं... तुम्हारा ही नाम बताई हैं, कि सूरज की अम्मा को दस हजार रुपया उधार दी हूँ जो उन्होंने अभी तक नहीं लौटाया है। पर समय की नज़ाकत समझ, क्रोध को भरसक दबाते हुए चुप रह गई।

                                              

सुनयना की चुप्पी सूरज की अम्मा को खल गई। चेहरे का रंग थोडा फीका पड गया, पर कुछ संयत होकर उन्होंने धीरे से अगला प्रश्न पूछ लिया,

"गहना-पाती तो पहले ही सबको बाँट दी होंगी ?"

"क्या ?" - सुनयना का दिमाग झनझना उठा। क्रोध से भर गई वह-

‘‘यह सब कल ही आपको अम्मा से पूछ लेना चाहिए था। अभी भी कुछ नहीं बिगडा है। इन्तजार करिए , शायद अम्मा बोलने लग जाएँ तब आप सबसे पहले यही पूछ लीजिएगा।"

सुनयना के इस अप्रत्यशित जवाब से सूरज की अम्मा को निराशा हुई। वे मुँह बिचका कर एक कोने में बैठ गर्इं। सुनयना खुश है- चलो छुट्टी मिली। अब नहीं पूछेंगी कुछ।

                                              

अम्मा आँखे मूदें बिस्तर पर लेटी हैं। साँस की गति कुछ बढ गई है। साँस लेते और छोडते समय घर्र-घर्र की आवाज भी आ रही है। बेटे अम्मा को घेरे बैठे हैं। बहुएँ रसोई में भोजन बनाने में जुटी हैं। थोडी-थोडी देर पर अम्मा को भी देख जा रही हैं। गाँव की महिलाओं का आना-जाना शुरू है।

                                               

चाचा जी आ गये हैं। उनके सामने सुनयना का कुछ नही चल रहा है। आँगन के एक कोने में लीप-पोत कर वहाँ एक दरी पर अम्मा को लिटा दिया गया है। बेटे, बहू, नाती, पोते सब बारी बारी से अम्मा को तुलसीदल तथा गंगाजल पिला चुके हैं। पर अम्मा के प्राण न जाने किसके हाथ से गंगाजल पीने के लिए रुके हैं।

                                               

जैसे ही कोई नाते-रिश्तेदार अम्मा के मुँह में गंगाजल डालता है वहाँ उपस्थित सभी जन बडी आतुरता से अम्मा को निहारते हैं कि शायद इस बार अम्मा अन्तिम साँस लें। पर अम्मा हैं कि साँस पर साँस लिए जा रही हैं। गंगाजल काम नहीं कर रहा है।

                                               

जब अम्मा के गले में गंगाजल उतरता है तो ‘घट्ट’ करती हुई एक तेज डरावनी आवाज़ अम्मा के गले से निकल कर सुनयना को डरा जाती है। अम्मा को जल गटकने तक में तकलीफ हो रही है। घर का गंगाजल अब समाप्त हो गया है। गाँव में कई घर हैं। कई लोग दौड पडते हैं- अपने-अपने घर से गंगाजल लाने। पुण्य का काम है। न जाने किसके घर के गंगाजल की आस है अम्मा को। गाँव के बच्चे तथा औरते भी अम्मा को गंगाजल पिला रहे हैं। कौन जाने, किसके हाथ से मुक्ति मिल जाए।

                                               

चाचा की छोटी बहू बडे शहर से आई है। बडे घर की बेटी है। पढी-लिखी है, पर गाँव में हाथ भर घूँघट निकाले अम्मा को पंखी झल रही है। चाचा गद्गद हैं। उनका ध्यान अम्मा पर कम बहू पर अधिक है-

"घण्टा भर से ऊपर हो गया पर क्या मजाल कि पंखी नीचे रखी हो- गाँव में ऐसी सभ्यता वाली बहू अब तक तो किसी के घर में न आई।"

मधुरा की माँ चाचा से सहमत हैं-

"ये सब भाग का खेला है। सबके साथ अच्छा किये हो तो भगवान तुम्हारे साथ भी अच्छा कर रहा है।"

चाचा गर्व से फूल गये। चेहरे पर दिप-दिप खुशी झलकने लगी। अम्मा घर्र-घर्र करती हुई अभी भी लेटी हैं। आँखे बन्द हैं उनकी।

आँगन के एक कोने में गाँव की कुछ औरतों के साथ चाची बैठी हैं।

‘‘एसौं इनारा के पास वाला आम खूब लदा है।"

‘‘अरे पूछो मत, गाँव के लरिका अउर आँधी-पानी से बच जायेगा तो समझो बोरों में टूटेगा।"

‘‘अचार तो उसी पेड़ के आम का अच्छा बनता है। इस बार दस पन्द्रह किलो खटाई भी उसी पेड के आम का छीलने का मन है.. बडा गुदार आम है, सभी बडे प्रेम से खाते हैं।"

‘‘अरे, सूरज की माँ, भगत की तबियत अब कैसी है ?"

"ठीक है, .....बरम बाबा की मार है... जब उठा के पटक दिये हैं तो दो चार दिन तो ठीक होने में लगेगा ही।"

‘‘उनके ऊपर तो देवी की सवारी रहती है, बरम बाबा कैसे आये ? "अपने दर्द हो रहे घुटने को हाथ से दबाते हुए चाची ने अपनी जिज्ञासा व्यक्त की।

‘‘अरे, क्या कहें, भाई ने लवांग में झाड-फूँक के खिला दिया.. बस्स भगत का लवांग खाना कि पटकनी खाकर बेहोश होना... वो तो मुन्ना साथ गया था, उठाकर घर लाया। बस, तब से घण्टा दो घण्टा पर बरम बाबा की सवारी आ , जा रही है। पीपल के नीचे बडी पूजा देने को बोले- दो जोड जनेऊ, चार जोड खडाऊँ... सब चढाई, तब कहीं जाकर शान्त हुए हैं बरम बाबा... का कहैं, जब अपने घर परिवार के लोग ही जड काटने पर उतारू हैं तो...."

                                            

जग्गी की घरवाली को पिछली रात बेटा हुआ है। जग्गी की माँ इस अवसर पर उदास बनने की लाख कोशिश कर रही हैं लेकिन खुशी है कि लरजते हुए होंठों पर तैरी ही जा रही है। मधुरा की माँ ने उनकी ओर देखा तो वे किलक उठीं-

"रात भर जागी हूँ बहिन, इसलिए औंघई लग रही है ...सुनी तो होंगी जग्गी की दुल्हन को बेटा हुआ।"

‘‘हाँ, कल सोहर की आवाज तो आ रही थी। किसको पडा है बच्चा ?"

‘‘एकदम जग्गी की तरह है। बस समझ लो जग्गी छोटा होकर फिर से आ गया।"

‘‘चलो अच्छा हुआ। नाती को तेल बुकवा करने का सुख अब तुमको भी मिलेगा।"

‘‘हाँ, बहिन, तरस गई थी। सब आप लोगन का आसिरवाद है।... बडा चंचल निकलेगा बच्चा... रात में पैदा हुआ सबेरे से आँखी घुमा-घुमा कर टुकुर-टुकुर ताके जा रहा है... सच बहिन बडा सुन्दर है.... एकदम गोर भभूका। अँग्रेज भी शरमा जाएँ उसकी गोराई से।"

                                              

अम्मा के गले की आवाज अब थोडी अधिक तेज हो गई। आँगन, कमरा और गलियारे में बैठे लोग मुण्डी उठाकर एकदम सतर्क हो गये। सरला की महतारी चाची से पूछ रही हैं-

"काम-किरिया तो यहीं से करेंगे या शहर से करने का मन है ?"

‘‘का पता ? करना तो यहीं से चाहिए पर कुछ कह नहीं सकते। शहराती हैं सब।"

‘‘अब जब मौत यहाँ होगी तब काम-किरिया शहर से क्या करेंगे।"

मधुरा की महतारी धोती को माथे तक खींचते हुए धीरे से बोली।

‘‘काहे नहीं, दाग वहीं जाकर दे सकते हैं। तुम्हारी तो सगी जेठानी है। तुम्हें तो पता होगा कि कहाँ से करेंगे ?"

‘‘मुझसे कौन बताता है !"

चाची मुँह बिचकाते हुए बोली। वैसे चाची गहरे तनाव में हैं। दामाद आये हैं। कल बेटी की विदाई है। अगर मरनी-करनी कुछ हो गई तो सूतक लग जायेगा। दामाद है कि मान नहीं रहे हैं। कुछ भी हो जाए कल विदा करा के ही जायेंगे।

                                               

‘‘अरे मरनी-करनी कुछ हो भी जाए तो लाश उठने के पहले ही बेटी की विदाई कर देना।"

मधुरा की माँ समझाती हैं। उनकी आँखे अब भीड में दामाद जी को खोज रही हैं | जब नहीं दिखे तो पूछ बैठी-

"वैसे दामाद जी हैं कहाँ, दिख नही रहे हैं ?"

‘‘घर पर ही हैं। यहाँ कहाँ अशुभ में दामाद को ले आती।"

चाची जहाँ बैठी हैं वहीं टोकनी में सब्जी रखी है। अम्मा की बडी बहू से चाची परवल और मिर्ची माँगती हैं-

‘‘घर में और किसी से तो ऐसी हालत में खाया नहीं जायेगा किन्तु दामाद के लिए तो भोजन बनाना ही पडेगा। पूडी सब्जी बना दूँगी।"

सब्जी लेकर चाची अम्मा को पंखा झलती अपनी बहू को इशारा कीं और धीरे से दोनों वहाँ से उठकर चली गई।

                                               

कोई बच्चा अम्मा को फिर गंगाजल पिला रहा है। अम्मा के गले से तेज आवाज निकलती है। सुनयना तडप उठती है-

‘‘बस करो, अब बन्द करो यह नाटक। सुबह से अब तक एक से डेढ लीटर तक गंगाजल पिला चुके हो तुम लोग। डिब्बे की तलछटी का यह गंगाजल , रेती बालू से भरा हुआ। इस नाजुक अवस्था में इतनी रेती, बालू पचा पायेंगी अम्मा ? कल मरने की तो आज ही मर जायेंगी...कोई डाक्टर को क्यों नहीं बुलाता !"

- चीखी सुनयना। बडा बेटा डाक्टर बुलाने दौडा। चाचा बडबडाने लगे-

"चार आखर पढ क्या लिए लोग बउरा गये हैं...अब अन्तिम बेला में डाक्टर क्या करेगा भला ?"

‘‘अरे चाचा, गऊदान करवा दीजिए वैतरणी उतर जायेंगी।"

मास्टर रघुनाथ ने चाचा को याद दिलाया।

‘‘सोच तो मैं बहुत देर से रहा हूँ, लेकिन बछिया गाँव में किसके घर है ? कहते हैं बछिया का गऊदान जादा फलित होता है।"

‘‘का चाचा, भूल गये। पिछले महीने ही तो अपनी गइया ने बछिया दिया था।"

‘‘अरे, हाँ यार... तो फिर तुम बेचोगे अपनी बछिया ?"

‘‘बेचने का क्या है चाचा, मुझसे खरीद कर पण्डित को दान कर दो। मैं पण्डित से फिर खरीद लूँगा। गऊदान भी हो जायेगा, बछिया का खूँटा भी नहीं सूना होगा।"

‘‘कह तो ठीक रहे हो, कितने में बेचोगे ?"

‘‘अब मोल-भाव का समय थोडे ही है चाचा, काकी का प्राण अटका है... दे देना हजार रुपये, अधिक क्या बोलूँ।"

चाचा के नजदीक आकर सिर खुजाते हुए रघुनाथ धीरे से बोले।

"हजार रुपये ? धरम-करम का काम है रघुनाथ, बछिया का सही दाम लगाने की क्या जरूरत है ?... तुम मुझे हजार में बेचोगे फिर पण्डित से सौ रुपये में खरीद लोगे। नौ सौ रुपये टेंट में दबाने का इरादा है ?"

‘‘धीरे बोलो चाचा.... ये सब सहराती अमीर लोग... थोडा हमें भी फायदा हो जायेगा.. आपके जेब से तो कुछ माँग नहीं रहा हूँ.... हमको तुमको तो यहीं रहना है... गाँव में।‘‘

                                               

‘‘समझ गया... जाओ बछिया खोलकर ले आओ।"

बछिया दरवाजे पर आ गई। चाचा अम्मा के बडे बेटे से मास्टर रघुनाथ को हजार रुपये दिलवा दिये।

                                          

घण्टा डेढ घण्टा और बीता। अम्मा के साँसों की आवाज और गति दोनों धीमी होने लगी। अब तक डाक्टर भी आ गया। नाडी देखकर, आँख की पुतलियाँ खोलकर जाँच किया और बिना कुछ कहे बाहर चला गया। औरतें रोने चिल्लाने लगीं।

                                               

अम्मा को बाहर लिटा दिया गया। बाहर अम्मा की चारपाई से कुछ दूरी पर दो चार कुर्सियाँ लगी हैं । एक खटिया भी बिछी है। जिस पर अम्मा के बेटे, चाचा तथा गाँव के अन्य लोग बैठे हैं। चाचा ने जुबान खोली-

"अच्छा हुआ कि इस बार पेड पर कटहल खूब लदा है, कोंहडा रामबरन के घर से आ जायेगा। तेरही में कटहल और कोंहडा की सब्जी कर दिया जायेगा। गेहूँ तो चार बोरा लग ही जायेगा पूडी-कचौडी बनाने में..."

                                           

शाम, गहराने लगी है। मौत का साया पूरे घर में साँय-साँय कर भन्ना रहा है। सुनयना कमरे की खिडकी से खिडकी के बाहर चुपचाप लेटी अम्मा को निहार रही हैं। दिन भर अपनी एक-एक साँस के साथ लडती अम्मा अब एकदम खामोश है। पता नहीं लडाई जीतकर या हार कर !

                                                             

                                                        


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