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दोराहा

दोराहा

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सरिता ने एक बार फिर रिपोर्ट देखी। रिपोर्ट पॉज़िटिव थी। वह जो सोच रही थी वह सच था।

सरिता एक दोराहे पर खड़ी थी। उसका मन दो विपरीत दिशाओं में भाग रहा था। परस्पर विरोधी विचार उसके मन में उमड़ रहे थे। जो उसे परेशान कर रहे थे।

उसके मन में आया जाकर यह रिपोर्ट कुशल के मुँह पर मारे। अपनी कमी छिपाने के लिए उसने उसकी कोख पर दोष लगाया था। उसे बांझ कह कर घर से निकाल दिया था। यह सब अपनी दूसरी शादी को जायज़ ठहराने के लिए किया था। सरिता का मन कर रहा था कि कुशल का गिरेबान पकड़ कर उसे दिखाए कि दोष उसकी कोख का नहीं था।

सरिता ने अपनी कोख पर हाथ रखा। अपने भीतर पल रहे उस जीव से जिसने अभी आकार लेना शुरू किया था उसे एक लगाव-सा महसूस हुआ। लेकिन यह भावना अधिक देर नहीं ठहर सकी। अपने बॉस का वीभत्स चेहरा उसकी आँखों के सामने आ गया। उसका वह विषैला स्पर्श उसके जिस्म में एक सिहरन पैदा कर गया। अपनी कोख से उसने अपना हाथ हटा लिया। उसके मन के भाव बदल गए। जिसे वह अपने रक्त से सींच रही है वह तो उसी राक्षस का अंश है।

वह कोई फैसला नहीं कर पा रही थी, इस द्वंद ने उसके मन को थका दिया था। रात भर वह बिस्तर पर करवट बदलती रही।

रात भर की उहापोह के बाद सुबह सरिता उठी तो मन शांत था। वह निर्णय कर चुकी थी। दो मर्दों के किए अन्याय का दंड उस अजन्मे को नहीं देगी। उसने तो उसे मातृत्व का सुख दिया है। वह जानती थी कि इस निर्णय पर डटे रहने के लिए उसे समाज का विरोध सहना होगा। पर वह सह लेगी।

सरिता ने अपनी कोख पर हाथ फेरा। जैसे उस अजन्मे को आश्वासन दे रही हो कि तुम सुरक्षित हो।


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