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Asha Pandey

Drama

5.0  

Asha Pandey

Drama

सत्यम ब्रूयात

सत्यम ब्रूयात

7 mins
8.4K


ट्रेन जब ‘विश्वनाथ गंज’ स्टेशन पर रुकी तो दीनानाथ ने अपना झोला कंधे पर टांगा और सूटकेस उठाकर नीचे उतर गए | प्लेटफार्म पर ट्रेन से उतरने और चढ़ने वालों की कुछ भीड़ थी | चाय-समोसा बेचने वाले भी इधर-उधर दौड़ रहे थे | दो मिनट रुककर ट्रेन जब चली गई तब स्टेशन पर भीड़ भी कम हो गई | दीनानाथ ने अपना सूटकेस नीचे रखा और एक लंबी साँस लेकर प्लेटफार्म के चारों ओर नजर दौड़ाई | खाने-पीने की सामग्री बेचने वाले कुछ ठेले, ठेले पर ही चलता-फिरता एक ‘बुकस्टाल’, चंद मुसाफ़िर तथा रेलवे कर्मचारी | वर्षों से ऐसा ही दिख रहा है ये स्टेशन ...कुछ भी तो नहीं बदला ! यहाँ की हवा में अपनेपन की कितनी मोहक गंध बसी है ... इसी मिट्टी में पलकर बाहर जाने वाले बच्चे भला कैसे बेमुरव्वत हो जाते हैं ! प्रेम तथा परमार्थ का भाव जो कूट-कूट कर जन्मघूंटी में ही उन्हें पिलाया जाता है वह शहर की हवा लगते ही कहाँ छू-मन्तर हो जाता है, पता ही नहीं चलता | ख सुबह के दस बजे थे, दीनानाथ स्टेशन के बाहर निकलने के लिए सूटकेस उठाने ही वाले थे कि एक लड़का दौड़ता हुआ आया और उनका सूटकेस पकड़ लिया ‘पायलागी बाबा ! मेरे रहते आप सूटकेस उठाएंगे ? चलिए मैं तांगे तक पहुँचा देता हूँ |’ कहते हुए उसने दीनानाथ का सामान उठाया और लाकर नरेश के तांगे पर रखकर बोला, ‘बाबा को घर तक पहुँचाने का जिम्मा अब तुम्हारा |’ फिर उसने दीनानाथ के पैर छुए और कहा, ‘अच्छा बाबा ! चलता हूँ ठेले के पास कोई भी नहीं है |’

‘खुश रहो बच्चा’, दीनानाथ ने उसे आशीर्वाद दिया | वह लड़का दीनानाथ के गाँव का ही था | यहाँ स्टेशन पर चाय-समोसे का ठेला लगाता था | तांगे वाला भी वहीं पास के गाँव का था तथा दीनानाथ को अच्छी तरह पहचानता था | उसने घोड़े की लगाम ठीक करके कहा, ‘काका ! आप तांगे पर बैठिये, मैं आप को छोड़कर आता हूँ |’ जब दीनानाथ बैठ गए और वह लड़का तांगा आगे बढ़ा लिया तब दीनानाथ ने कहा, ‘और सवारी आ जाने दिये होते बेटा, ऐसे तो तुम्हारा बहुत नुकसान होगा !'

‘नुकसान किस बात का काका, सवारी कब मिलेगी, कुछ निश्चित नहीं है, आप कब तक बैठे रहेंगे ? आपको छोड़कर घंटे भर में तो मैं फिर यहाँ आजाऊंगा | आप मेरी चिंता न करें |’

दीनानाथ चुप हो गए | तांगेवाले ने घोड़े को हांक लगाई | घोड़ा सड़क पर दौड़ने लग

‘कहीं बाहर गए थे क्या काका ?’

‘हाँ, बेटे के पास गया था |’

कुछ बुझी आवाज में दीनानाथ ने बताया |

‘अच्छा, तो आप जयपुर से आ रहे हैं ?’

'....‘

‘आजकल श्याम भइया जयपुर में ही हैं न ?’

‘हाँ, दो साल से जयपुर में ही हैं |’

‘सुना है बहुत बड़े अफसर हो गए हैं |’

‘हूँ...’ – संक्षिप- सा उत्तर देकर दीनानाथ चुप हो गए | बात करने की उनकी इच्छा नहीं हो रही थी | उन्हें चुप देखकर तांगेवाला भी चुपचाप तांगा हांकने लगा |

कुछ दिन पहले वे बड़े उत्साह से बेटे के पास गए थे | बेटा डेढ़ दो साल से घर नहीं आया था | दीनानाथ ने सोचा, बड़ा अफसर हो गया है, जिम्मेदारी भी अधिक होगी, घर आने का समय नहीं मिल पा रहा होगा इसलिए खुद ही मिलने चले गए | इधर कुछ दिनों से उनकी पत्नी की तबियत भी ठीक नहीं चल रही है | वह भी हमेशा बेटे-बहू को याद करती रहती है | इतनी बीमारी में भी उसने बेटे के पास भेजने के लिए खुद ही तिल के लड्डू बनाये थे | उसे क्या पता था कि एक से एक महंगी मिठाइयों के सामने भला तिल के लड्डू की क्या बिसात ! बेमन से बहू ने तिल के लड्डू का डिब्बा एक किनारे सरका दिया था | दूसरे दिन दीनानाथ ने ही बेटे को याद दिलाया था,

‘बेटा, तुम्हारी माँ ने लड्डू भेजे हैं, खाये ?‘

'नहीं बाबूजी, अभी तो नाश्ता कर लिया हूँ, बाद में खा लूँगा |’

‘तुम क्या खाओगे बेटा, वह तुम्हारे नौकरों में बंटेगा !' - मन ही मन दीना नाथ ने सोचा |

उनकी पत्नी इसी बेटे को रात-दिन याद करती रहती हैं और इसे माँ का हाल-चाल पूछने की भी फुर्सत नहीं है ! दीनानाथ ने जब कहा कि तुम्हारी माँ की तबियत ख़राब रहती है, आकर उन्हें देख जाओ तो वह बोला,

‘क्या करूं बाबूजी, यहाँ काम ही इतना है कि समय नहीं मिलता |’

‘ठीक है बेटा ! लेकिन कभी-कभी माँ-बाप को भी याद कर लेना चाहिए |’

‘क्या बाबूजी आप भी, कुछ समझने की कोशिश किया करिये !' झुंझलाकर बेटे ने जवाब दिया | दीनानाथ चुप हो गए | अब इतने व्यस्त बेटे से और क्या कहना | बहू नाश्ता- खाना आदि का ध्यान रखती थी | शहर के दर्शनीय स्थल जैसे, मंदिर आदि को दिखाने की जिम्मेदारी बेटे ने ड्राइवर पर डाल दी थी | उनका मन तो हो रहा था कि इस घर से दूसरे दिन ही लौट जाएँ | जिस बेटे के लिए वे इतनी दूर से आये हैं, उसे बात करने की भी फुर्सत नहीं है | ऐसी जगह क्या रहना, लेकिन पत्नी का ध्यान आते ही उन्होंने इरादा बदल दिया | आते समय जब वे अपने सूटकेस में कम कपड़े रख रहे थे तो पत्नी ने कहा था,

‘दो-चार जोड़ ज्यादा ही रख लीजिये आठ-दस दिन के पहले तो श्याम आपको आने ही नहीं देगा ... और सुनिए, मेरी चिंता मत करियेगा, वह रोके तो रुक जाइएगा, नहीं तो दुखी होगा बेचारा |’ अगर दूसरे ही दिन दीनानाथ लौट पड़ते तो उनकी पत्नी को कुछ गड़बड़ होने का शक जरूर हो जाता, दीनानाथ का गाँव आ गया | तांगेवाले ने तांगा रोका तो दीनानाथ सामान लेकर घर आये | उनकी भतीजी रेखा, जिसे वे अपनी अनुपस्थिति में पत्नी की देख-भाल करने के लिए छोड़ गए थे, वह पत्नी की चारपाई के पास ही बैठकर दोपहर के भोजन में बनाने के लिए सब्जी काट रही थी | दीनानाथ को देखते ही उसने उन्हें प्रणाम किया तथा बैठने के लिए कुर्सी लाकर दी | उनकी पत्नी भी बेटे-बहू का हाल-चाल जानने के लिए उठकर बिस्तर पर ही बैठ गईं | गरम पानी की बोतल बिस्तर पर पड़ी थी, जिसे देखकर दीनानाथ समझ गए कि आज रात भी पत्नी के पेट में दर्द उठा होगा जिसे कम करने के लिए उसने सिंकाई की है | अब तक उनकी भतीजी पीने का पानी ले आई जिसे पीकर वे मुस्कुराते हुए बोले,

‘बहुत दूर का सफर है ... थकान लग जाती है ... श्याम तो और रुकने के लिए कह रहा था, लेकिन तुम्हें बीमार छोड़कर गया था न, इसलिए वहां मन ही नहीं लग रहा था |’

‘रुक जाना था, मुझे क्या हुआ है ? और फिर रेखा तो थी ही मेरी देख-भाल करने के लिए ... मेरी बीमारी का हाल उसे भी बताएं होंगे आप ?’

‘क्या करता, वह रुकने की जिद जो कर रहा था ...बताना ही पड़ा | ... कह रहा था, अब मैं ही छुट्टी लेकर आऊंगा और माँ को इलाज के लिए अपने पास लाऊंगा ... जानती हो, तुमने जो लड्डू भेजे थे वह तो उसे दो दिन में ही चट कर गया |’

‘मैं जानती थी !' हंसकर उनकी पत्नी ने कहा,

‘आप भूल गए क्या ? जब छोटा था तो कैसे मुझसे छुप-छुपकर सारे लड्डू खा जाता था |’

‘आज भी वैसा ही है ... बिलकुल नहीं बदला ... तुम्हारे लिए तो वह साड़ियाँ लाया था ... बिक्स-बाम, तेल तथा बहुत सारी दवाइयां वह तुम्हारे लिए भेज रहा था | मैं ही नहीं लाया | तुम तो जानती ही हो, कंधे के दर्द से अब वजन नहीं उठता ... मैंने उससे कह दिया कि जब तुम आओगे तब ले आना |’

‘अच्छा किया, इस बहाने वह जल्दी आएगा तो | अब आप हाथ-मुँह धो लें | मैं रेखा के साथ खाने की व्यवस्था देख लेती हूँ।' कहकर उनकी पत्नी बिस्तर से उठकर धीरे-धीरे रसोईं घर की ओर चली गईं | बेटे के प्रेम-भाव की बातें सुनकर उनमें कितनी शक्ति आ गई थी |

दीनानाथ कुर्सी पर सिर टिकाकर कमरे की छत की तरफ देखने लगे | हमेशा सच बोलने वाले दीनानाथ आज अपनी पत्नी से सरासर झूठ बोल गए |

उन्होंने एक श्लोक पढ़ा था – सत्यं ब्रूयात्, प्रियं ब्रूयात्, न ब्रूयात् सत्यमप्रियम, प्रियं च नानृतम ब्रूयात् एष धर्मो सनातन |

इस पूरे श्लोक से उनको कुछ लेना-देना नहीं है | इसका सिर्फ एक वाक्य,

‘ऐसा सत्य जो अप्रिय हो उसे नहीं बोलना चाहिए !' - से ही मतलब है | एक छोटे से झूठ ने उनकी पत्नी को बिस्तर से उठा दिया | यदि वह सच बोल दिये होते तो आज वह कितनी बीमार हो गई होती, कह नहीं सकते | बेटे की नालायकी की सजा वे अपनी बीमार पत्नी को क्यों दें | रसोईं से उनकी भतीजी तथा पत्नी के बोलने और हंसने की आवाज आ रही थी जो दीनानाथ को उर्जा दे रही थी...।


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