रौनक
रौनक
बरसों बाद उसकी यूँ याद आई कि एक सवाल ही उठ खड़ा हो गया; यह दुनिया कहाँ आबाद है? हमारे बाहर या हमारे भीतर? क्या खुद उसने कभी इस सवाल को यूँ सवाल की तरह सोचा होगा? और खुद मेरे सयानेपन के पास तो इस सवाल का कोई जवाब ही कहाँ मिला।
बात ऐसे हुई कि कोई दस-बारह बरसों बाद मैं एक निहायत मासूम और अपनी बेख़बर किलकारियों में मशगूल, उस नन्हें-से कस्बे की जिंदगी में अचानक फिर शरीक हो गया। बीच के इस अंतराल में मैंने बड़ी दुनिया नापी। शहर ही नहीं, नये मुल्क भी देखे। हजारों-हजार नयी शक्लों और शख्शियतों से मेरा साबका रहा। इतनी तहों में से वह मामूली-सा इंसान अपना सिर निकालेगा, इसकी गुंजायश की कल्पना करना भी दुश्वार होता। और फिर उसकी हस्ती ही क्या थी? मैं तो उसका नाम तक नहीं जानता था। फकत एक मटमैला-सा हुलिया भीतर किसी मकड़जाल-सा चिपका पड़ा था। वह भी याद न आता अगर मैं वहीं, कस्बे की सबसे जयादा बारौनक जगह- बस-स्टैंड- न जाता। आया था यहाँ कुछ पुरानी कहानियों के नये ड्राफ्ट तैयार करने; दो दिन से मगजपच्ची कर रहा था। किरदार थे कि बदजुबान बीवियों की तरह मुझे हाथ ही न रखने दे रहे थे और शब्द थे कि अनुभवों के अहंकार से लद्दू बूढ़ों की तरह एक ही एक राग अलापते मालूम पड़ रहे थे। मैंने सोचा, अपना आपा झाड़ा जाए। जरा ताजी हवा ली जाए। ताजे चेहरे और ताजा बातें हों, तो मैं अपना जहन भी ताजा कर लूँ और फिर आकर देखूं इन मौजी किरदारों और अड़ियल शब्दों को।
इसी मंशा से बस-स्टैंड के एक ‘ओपन एयर’ रेस्तरां पर आ बैठा। जैसे-तैसे दो-चार परिचित सूरतें बटोर लीं और उनके साथ तमाम मुद्दों पर तरह-तरह की बतकही के जरिये अपना आपा उलींचने लगा। और इसी दरम्यान मेरी निगाह उधर जा अटकी। यह शख्स भी कोई मुसलमान ही था। उम्र शायद उससे जरा कम थी, पचास-बावन की होगी, मगर हट्टा-कट्टा उसके जैसा ही था। उसके कंधों, बाहों, कमर और टांगों तक पर बच्चे ऐसे झूल रहे थे जैसे वह आदमी न होकर चाबियों का गुच्छा हो। बच्चों को लादे यह आदमी हंसे जा रहा था और मारे भार के चलने की बजाय घिसट-घिसट कर आगे बढ़ रहा था। इसकी दाढ़ी पर निगाह पड़ते ही मेरे भीतर एक याद जगमगा उठी, जैसे किसी दरार में से रिसकर कोई किरन सीधे उसी पर जा पड़ी हो।
फिर मैं उसे तफ्शील से याद करने लगा। जैसा मैंने पहले कहा, इस कस्बे में मैंने अपने कई पुरशुकून बरस गुजारे थे। उन दिनों भी मैं अक्सर शाम को बस-स्टैंड आता था। वह मुझे यहीं कहीं दिखाई देता था। कस्बे के समृद्ध सेठों के बनाए मुसाफिरखाने के पीछे ही सब्जी-मंडी थी। लौटते में मैं सब्जी भी खरीद लेता था। दो-चार सिंधियों को छोड़ सब्जी की ज्यादातर दुकानें मुसलमान कुंजड़ों की ही थीं। वह भी किसी दुकान से ही उठ कर आता होगा, मगर मैंने उसे सब्जी तौलते कभी नहीं देखा। जब भी मैंने उसे देखा, तो वह मुझे बस-स्टैंड के चौफेर इधर-उधर सरकते खोमचों, ठेलों या चाय-पान की उठंगी-सी दुकानों के बीचों बीच नजर आया। मंडी से निकल कर वहाँ पहुँचने के बाद उसे अपनी मौजूदगी दर्ज़ करने में शायद जरा भी देर न लगती होगी।
वह लट्ठे की मजबूत और मोटी धोती बांधता था। ऊपर प्रायः उतनी ही मोटी कमीज होती। सफेद के अलावा दूसरी कमीज उसने पहनी हो, मुझे याद नहीं। कद उसका नाटा था। सिर गोल और खासा बड़ा था। बीच में चौतरफा ढालू अंडाकार जगह को छोड़ कर कानों से ऊपर-ऊपर सिर के तीनों तरफ सफेदी की बाढ़-सी घिरी होती थी। कानों के नीचे वैसी ही सफेद, लंबी हाजियों जैसी मूंछों से मुक्त दाढ़ी लहराती थी। मुझे नहीं मालूम, वह हज कर चुका था या नहीं।
मुझे याद आया, मैं उसमें बड़ी सीमित दिलचस्पी रखता था। मैंने उससे कभी बात भी नहीं की। सीधे उससे नजर तक मिलाने से परहेज किया कि वह मेरे मुँह न लग जाए और मेरे साथ वही न कर बैठे, जो वह किसी के साथ भी कर सकता था। गर्ज़ यह कि मैं उसकी नजर में एक गंभीर, अफसराना बुलंदीवाला आदमी बना रहना चाहता था ताकि वह मुझसे दूर रहे। फिर भी यह तय है कि वह मुझे अपनी तरफ खींच सकने में कामयाब था। उसको देख कर मुझे कुछ अजीब, प्रेरणात्मक-सी अनुभूति हुआ करती। मैंने इसे दूसरों पर तो क्या, कभी अपने पर भी जाहिर नहीं होने दिया।
वह मुकम्मल तौर पर बूढ़ा आदमी था। उम्र साठ के करीब होगी। उस पर सबका ध्यान हमेशा उसके ऊंचे ठहाके के कारण जाता। उसको यह ठहाका मारते देखना ही शायद उसके साथ मेरे रिश्ते का सबसे अहम लम्हा होता, जिसे जाने क्यों मैंने कभी कोई सूरत पहनाने की कोशिश नहीं की। शायद लोग उसे नाम से भी पुकारते रहे होंगे, पर मैं उसे भी याद नहीं रख पाया। हालांकि यह कोई मुश्किल बात न थी, पर शायद उसके नाम में मुझे कोई खासियत ही मालूम न पड़ी हो। आखिर उसकी तमाम खासियत तो मैं अपने भीतर दर्ज करता ही रहा हूँगा, जो न करता तो आज उसे कैसे पहचानता? क्या आदमी फकत नाम से पहचाना जाता है?
हाँ, तो जब उस पर निगाह पड़ती, वह या तो ठहाका मारने के बाद किसी से बच कर भाग रहा होता, या फिर मारे खुशी के आँखें मिचमिचाता अपनी शरारत का लुत्फ उठा रहा होता। मैं उसके हौसले पर भौंचक रह जाता। मुझे उसकी आँखों में उस वक्त ऐसी रौशनी नज़र आती, जिसे सिर्फ बच्चों की आँखों में देखना मुमकिन होता है। तब मुझे लगता, वह इस रौशनी को कायम रखने के लिए ही अपनी तमाम उम्र, सफेद बालों, लंबी दाढ़ी और अपने बाप-दादा होने के रुतबे तक को दांव पर लगा कर जो हरकतें करता है, वे उसकी उम्र के किसी आदमी को करते देखना साफ नाइत्तफाकी की बात लगेगी। फिर भी मैं ठीक-ठीक कभी नहीं देख पाया कि वह करता क्या था? मैंने इतना देखा कि कोई भी उसका शिकार हो सकता था। उसे किसी का खौफ़ नहीं मालूम होता था। वह एकदम नादान बच्चे की तरह जोखिम उठा लेता।
एक दिन, मैंने देखा, उसने लगभग अपने हमउम्र खोमचेवाले सिंधी को निशाना बना लिया। इस सिंधी का नकचढ़ा मिजाज़ और चिड़चिड़ापन मशहूर था। वह दिन-भर अपने खोमचे पर रखी चीनी की फांकों, बताशों और धूलसनी, सूख कर कड़ी हो चली मिठाइयों पर से मक्खियां और धूल उड़ाता रहता। मुझे नहीं लगता कि उसके सामान का कोई खरीददार था और उसे वह सामग्री कभी बदलने की नौबत आई हो। जो हो, उस दिन उसकी बारी थी। सिंधी अपनी जान से भी प्यारा खोमचा छोड़ कर उसके पीछे चिंचियाता हुआ भागा। वह भी सिंधी के हमले की जद से बचने को अपना ठहाका अधूरा लिए आगे भाग रहा था। बड़ा मजेदार दृश्य था; एब बूढ़ा दूसरे को मारने दौड़ रहा था मगर मार से बचने को दौड़नेवाला कहीं से बूढ़ा नज़र नहीं आता था; बल्कि हुबहू एक शरारती लड़के की तरह पुरलुत्फ़, जो मार से भी बचना चाहता हो और अपने किए का मजा छोड़ना भी जिसे हरगिज मंजूर न हो। कोई नहीं जान पाया कि सिंधी को चिढ़ाने के लिए और इस दर्ज़ा चिढ़ाने के लिए कि वह खोमचा छोड़ कर मारने दौड़े, उसने किया क्या था? आखिर लोगों ने सिंधी को पकड़ कर शांत किया। मैं भौंचक देख रहा था कि सब सिंधी को समझा रहे थे, उसे कोई नहीं। वह बेखौफ और बेलौस खड़ा हँस रहा था। सिंधी शायद उस पूरी रात रह-रहकर मारे गुस्से के चिंचियाता रहा होगा।
वह अपने हर नये शिकार के लिए हर बार कोई नया ही तरीका अपनाता होगा, जो मेरे तईं आखिर तक एक पहेली ही रहा। मैं देखता कि कोई न कोई उसके पीछे भाग रहा है और वह किसी स्कूली लड़के की तरह तेज कुहनियाँ उठाए सजा का दौर गुजर जाने दे रहा है। हद तो तब होती, जब ऐसा करनेवाला कोई एकदम नौजवान होता और वह उसके हट्टे-कट्टे जिस्म के आस-पास मच्छर की तरह भिनभिनाता जान पड़ता। वहाँ राजा पनवाड़ी को छोड़ कर ज्यादातर नौजवान मरगिल्ले ही तो थे; मुझे अब धीरे-धीरे सब-कुछ याद आ रहा है।
मैं बड़ी दुनिया नाप कर लौटा था यहाँ। सोचने लगा, मुझमें और मेरे बाहर, क्या-क्या बदल गया होगा? शायद रिश्ते नहीं बदले थे, जिन्हीं की बदौलत मैं इस कस्बे में बेहिचक मौजूद था। मगर उसे मैंने आज से पहले कभी क्यूं याद नहीं किया? या किया होगा, याद नहीं रख सका? अजीब उलटबांसी की तरह उसकी याद मुझे सताने लगी। एक नयी-सी दिलचस्पी मुझमें जैसे फूटने लगी थी। बच्चों से लदे उस जैसे एक दूसरे बूढ़े मुसलमान ने मानों उसे मुझमें जगा दिया, जिसे बाहर खोजे बिना अब वह मुझे चैन न लेने देगा। किसी से पूछना, तौबा क्या बचपना होगा? तुम भी यार किस-किस की लिए बैठे रहते हो? अब छोड़ो, बूढ़ा आदमी था, रुखसत हो लिया होगा दुनिया से और क्या? फंसो मत, इस दुनिया में ज्यादा मत फंसो। मेरे भीतर का सयानापन मुझे धड़ाधड़ भाषण पिलाने लगा। मैंने कहा, ठहर यार, जरा चालाकी ही सही, आखिर पता करने में क्या हर्ज़ है? किससे पूछोगे? देखते हैं, मैंने कहा और सीधा भाटी की दूकान पर चला आया।
इसका कारण कहीं यह तो न था कि भाटी भी मुसलमान था और उम्र इतनी न होते हुए भी उसने लंबी दाढ़ी रख छोड़ी थी। दाढ़ियों के बीच ऐसा अज़ीब रिश्ता बिठाने की कुव्वत पर मैंने खुद अपनी दाद दी और हँस पड़ा। दूकान के सामने पहुँच कर मैंने बड़ी सहज मुद्रा में पान की फरमाईश की। कुछ देर यूं ही कत्थे, सुपारी, तम्बाखू आदि पर बात चला कर चतुराई से ठिकाने आ लगा। हुलिये की तस्वीर खींच कर मैंने पूछा, ‘‘बुजुर्ग थे, साठ-पैंसठ के तो तब भी रहे होंगे, अब तो और भी अधिक... बड़े मजाकिया थे। लोगों को छेड़ कर बच्चों की तरह भाग छूटते थे।’’
भाटी ने चिहुंक कर पूछा, ‘‘गनी ! गनी कुंजड़ा?’’
मैं हाँ कहूँ कि ना, कुछ सूझा ही नहीं। नाम मुझे कहाँ याद था? अपनी झेंप छिपाने के लिए मैं फिर हुलिया दोहराने लगा।
‘‘हाँ-हाँ, वही है भाई!’’ इस बार ताईद मेरे पीछे से हुई। भरपूर तोंद के इर्दगिर्द हरी लूंगी लपेटे एक सांवले, तगड़े सज्जन फरमा रहे थे, ‘‘वह मौजूद है, पर आजकल बाहर नहीं निकलता... दो बरस हुए, घर पर ही रहता है।’’
मैं कुछ कहता, इससे पहले, भाटी ने मुझसे पूछा, ‘‘आपको कुछ काम था उनसे?’’
झिझकते हुए मुझसे इतना ही बोलते बना, ‘‘नहीं, यूँ ही... बरसों हुए, देखा नहीं। बुजुर्ग थे न, मैंने सोचा कि कहीं कुछ... पूछना तो चाहिए न !’’
‘‘वाह साहब, वाह!’’ भाटी ने जैसे किसी उम्दा शे’र पर दाद दी, ‘‘क्या बात है, क्या बात है, इसी को इंसानियत कहते हैं जनाब!’’
मैं इस सर्टिफिकेट का मालिक होकर सिवाय शर्मिंदा होने के कुछ नहीं कर सका। मगर हरी लूंगीवाले सज्जन पर इसका अच्छा असर पड़ा। उन्होंने मेरे कंधे पर अपनत्व से हाथ ही रख दिया और कहने लगे, ‘‘खुदा की मर्जी किसी को क्या मालूम जनाब ! गनी तो बस-स्टैंड की रौनक था, मगर आज उसे कौन याद करता है। बस, बेचारा दिन-भर खाट में पड़ा रहता है।’’
‘‘खाट में?’’ मैंने यों पूछा जैसे बूढ़े आदमी का भी खाट में पड़ा होना कोई बहुत गैर-मामूली बात हो।
‘‘हाँ, आपको शायद मालूम नहीं, गनी का बेटा मर गया न ! इकलौता था, हनीफ। गनी जैसा ही मस्त-मौला और नेक-पाक।’’ लूंगीवाले सज्जन भारी-सी आवाज में बोले।
‘‘उसे कैंसर हो गया था।’’ अबकी भाटी ने बिना पूछे ही बताना शुरू किया, ‘‘गनी ने मुम्बई, चेन्नई, दिल्ली सब जगह इलाज कराया; पर जो खुदा को मंजूर।’’
मुझे लगा, मैं अचानक औपचारिक हो रहा हूँ। मैंने दोनों हाथ उठा कर आह-सी भर डाली। फिर मुझे दिल पर पहले बोझ-सा मालूम हुआ और अगले ही पल इसे झटक देने का खयाल आया। भीतर के सयानेपन ने जैसे अपनी जीत का डंका पीटा, ‘‘लो, अब तो साध मिट गई? फंसो, इस दुनिया में फंसने के लिए ही तो इतनी सारी जगह है।’’
मैं हारा-सा अपने ठिकाने लौट आया। जहन वाकई खाली-सा हो गया। मेरे किरदार भी मेरे दुख में शरीक मालूम होने लगे। शब्द भी काफी दूर तक चुपचाप मेरे साथ चल पड़े। बिना एक भी शब्द मुँह से बोले, मैं उन्हें कागज पर दर्ज़ करता गया। हफ्ता-भर बीत गया और मैंने देखा कि अपनी सारी पुरानी कहानियों को मैंने फिर से रच डाला है। लगा कि मेरे सयानेपन से मेरी हार और गनी के साथ मेरे रिश्ते ने उनके तमाम शब्दों को दोहरा धागा बन मजबूती-से गूंथ छोड़ा है। मैंने उन्हें टटोल कर देखा, वे कहीं से उखड़े या ढीले न थे।
काम खत्म होते ही मैं अपने सयानेपन पर सवार हो गया। मैंने उसे वह झाड़ पिलाई कि वह चूँ भी न कर सका। उसे लगभग कान पकड़ कर मैं गनी का शुक्रिया अदा करने ले पहुँचा।
कुंजड़ों की अलहदा बस्ती में एक घर गनी का भी था। मैंने दरवाजा खटखटाया, तो एक दस-बारह बरस की लड़की वयस्क कुंजड़िनों जैसा घघरा और सलवार पहने आकर मेरे सामने खड़ी हो गई।
‘‘गनी बाबा हैं?’’ मैंने पूछा।
लड़की मेरा मुँह ताकने लगी। मैं समझा नहीं, यह इतना अचंभे से क्यों देख रही है। मैंने दुबारा पूछा, ‘‘नहीं है?’’
‘‘मस्जिद में है। पता नहीं, यह तो नमाज का वक़्त है। इस वक़्त क्या वे घर पर बैठे रहते हैं?’’ लड़की ने कहा, तो लगा कि वह मुझे मेरी गुस्ताखी पर डांट रही है।
‘‘अच्छा।’’ मैंने हँस कर कहा और मुड़ने लगा।
‘‘उनसे काम था?’’ लड़की ने पीछे से पूछा, ‘‘आप कौन हो?’’
मैं पीछे मुड़ा। थोड़ा-सा मुस्कुराया। फिर मैंने कहा, ‘‘मैं? मैं तो कोई नहीं हूँ... उन्हें मेरा सलाम कहना बेटे...।’’
और मैं बिना पीछे देखे लौट पड़ा। रास्ते में मैंने मुड़ कर देखा, मेरा सयानापन चुपचाप सिर झुकाये मेरे पीछे-पीछे आ रहा था।