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सैलाब

सैलाब

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तुलसी भाभी, उस दिन मुझे सपने में दीखी थीं...रोती-बिलखती...हाथ पसार ...मानो कुछ माँग रही

हों...शायद कुछ पकड़ना चाहती हों।

क्यों आया मुझे तुलसी भाभी का सपना ? इसका कारण कौन बताये ? कौन व्याख्या करे ? अगले दिन

सुबह-सवेरे चौक बुहारते हुए मैंने अम्मा से तुलसिया भाभी के बारे में जानना चाहा। बाबा सैर करने

और सामने काढ़ा गया, दूध लेने गये हुए थे। एक लंबी साँस लेकर अम्मा बोली, ”अरे ! वो तो एक बीती

बात थी...अब कौन उसका नाम लैवा हैगा ? औरता का कोई नाम लैवा न हौवे...वे तो मर जावैं तो

बस...बीत ही जावैं...घर परिवार...नाम...सब आदमियों से चल्लै हैगा।”

मैं अम्मा के पास जही पट्टे पर आ कर बैठ गयी।

मैं तो सरो की शादी के बाद ही शहर चली गयी थी। तब की गयी अब ही तो आयी थी...बाबा के पत्र में

लिखी एक ही पंक्ति सैकड़ों प्रश्न बनी मुझे घेरती-जकड़ती जा रही थी। अम्मा से सब कुछ पूछ लेने, जान

लेने के इरादे से ही उनके पास आ बैठी थी।

”अम्मा ! सरो को क्या हुआ ?”

अम्मा ने पहले तो चौंक कर मेरी ओर देखा, कुछ झिझकीं, फिर सोचा और बोलीं, ”...कुछ ना री ! हम

औरतां की ज़िन्दगी का मतलब ही दुःख, ताने, मार-कुटाई बेईज्ज़ती हौवै हैगा।”

”पर अम्मा..जब तुम जानों हो तो...कुछ कर न सको हो।”

”नाहिं..बिटिया। अपनी माँ खुदै अपनी बिटिया के लिए मजबूर हौवे है...दूसरे का कै करेगीं ?”

मेरी बेचैनी बढ़ रही थी।

”अम्मा....सरो को क्या हुआ..सच सच बताओ न !”

अम्मा ने कुछ सोचा...कितना बताये, कितना छिपाये...निश्चय, करती बैठ रही थीं शायद। फिर बोली, ”शादी

के बाद छोरी फेरा लगान आवै है न...सरो भी आयी...बस...उस्सी दिन उसके घरवाले ने कारखाने में

हिस्सेदारी की बातां की...बातां थी तो बहौत मीठी...समझान लाग रह्या था कि कुक्कर गलीचे बाहर के

देसां में भेजे जावैंगे और कमायी ज़ियादा हो सकैगी वगै़रह...वगै़रह।”

”पर...ये तो कोई ग़लत बात न थी, अम्मा। समझदारी की बात ही तो थी।”

”नई...नई...रिम्मो ! यई तो...यई तो मुश्किल है सब सै। समाज के नियम तोड़ैं न जा सकै हैंगे। बड़ी

सोच समझ के नियम बनाये जावै हैंगे। दामाद लोग अगर घर के विचार के मामले में घुस जावें तो बहौत

मुश्किल हो जावै। उनके कहै पे न चल्लो तो कठिनाई...चल्लो तो खु़द की आज़ादी खो गयी न...फिर

छोरा जवान हो गया हैगा। वो कुछ और करना चाहवै तो...बस ठन गयी न दोनों में...फिर दामाद का

रिश्ता भी बड़ा ही नाजुक हौवे है...।”

माँ ठीक कह रही थीं। मुझे समझ आ रहा था कि बात इतनी आसान तो न थी। ऊपरी सतह शांत दीख रही थी, पर भीतर तो सैंकड़ों तूफान छिपे थे। अम्मा बता रही थी।

”साहू ने बड़े पियार से समझाया, ’ना बेट्टा तुम अपना बसा-बसाया शहर का काम छोड़ कर यहाँ

गांव-गंवई के काम में क्यों फंसो हो ? ये दोनों छोरे संभाल लेंगे। फिर मेरी तो उमर बीत

चली है अब, मैं के विपार बढ़ाऊँगा...बाद में...ये दोनों जैसा चाहें करें...’।”

”अम्मा...ये तो सब सीधी-सादी समझने में आने वाली बात है।”

”नाहि रे...ऊपर से सीधी शांत दीक्खन वाली लहर के नीच्चे ही तूफ़ान छिपे हौवे न। मुश्किल तो ये है कि

आदमी उन्हें सीधा समझ कै छोड़ दैवे हैं...पर, शायद सबसे जियादा दुःख वे ही दैवे हैंगे।”

मैं अम्मा का मुँह बिसूरती सी देखती बैठी रही। अम्मा ही आगे बोली, ”साहू ने कह तो दिया, समझ

भी लिया कि दामाद जी समझ गये हैंगे। सरो फैरा लगा कै अपने घरै चल्ली गयी...सबै कुछ ठीक-ठाक ही

था। महीना भर ही बित्ता कि सरो अचानक वापस आ गयी...रोती जावै...रोती जावै...।” कुछ रुक कर अम्मा

ने जैसे साँस भरी, फिर बोली, ”दामाद जी ने कहलवाया था कि शादी तो मुफ़्त में कर दयी। इब कार दयौ

अपनी छोरी नै...इब्ब वा रिक्शे में जाती अच्छी ना लागै हैगी।”

”क्या....आ...आ ? पर अम्मा...वह तो सरो की मौसी की सहेली है...फिर...काका ने तो शादी में इत्ता दिया

कि गोट आज तक चर्चा करै हैगा।”

”हां री....हर मां-बाप बेटी नै अपनी पोट्टी से जैदा ही दैवे....सबनै अपनी बेट्टी बहौत पियारी

हौवे।”

”अजब रिवाज है...बेटी भी दो और दामाद की कीमत भी...वो भी उनकी माँग के हिसाब...अम्मा !

क्यों करें लड़कियां शादी-ब्याह ...पढ़-लिख कर अपने पैरों पर खड़ी हो जावै बस ! कमावैं-खावैं...

अल्लाह अल्लाह खैर सल्लाह।”

मैं भड़क उठी थी।

अम्मा हँसी तो, जो हँसी कम, रुलाई ज़्यादा लगी थी। हँसते-हँसते अम्मा की आँखें भर आयी थीं।

बोली, ”बड़ी भोल्ली है बच्ची तू...पर, तेरी सी उमर में ऐसे ही हौवे सब कोई...वक़्त सिखावे है...

बनमानुसों का संसार हैगा ये....अकेले कोई न रह सकै...खा जावै कच्चा...होर छोरियां तो बिलकुलै न..

..इहां रहते वन मानुस खावै और चूसे आम सा फैंक देवे जनावरों के जंगल में...सारी उमर तड़फड़ाने

को...कहीं पनाह न मिलै...माँ-बाप भी न दीखै आसपास।”

तो ये है यथार्थ...पत्थरों से भी ज़्यादा कठोर, कैक्टस के काँटों से भी ज़्यादा चुभन भरा,

ज़हर से भी अधिक ज़हरीला। अम्मा के शब्द लोहे के सरिये थे, जो ’धम्म धम्म’ मेरे सिर पर पड़ रहे थे,

चोटें लग रही थीं और लहूलुहान थी। अम्मा की आवाज़ दूर कुएं से आती सुन पड़ रही थी।

अम्मा खोयी सी बोलती रही, जैसे खुद से बातें कर रही हो, ”साहूकार दिलवा सकते थे या नहीं, ये तो

बाद की बात हैगी...उनकी समझ में आ गया था कि छोरी को अपने ही हाथों खाई में धकेल दिया

हैगा..और इब सारी उमर उनके सिर पर आग की लपटैं जलती रवैंगी, किस तरयौं ज़िंदा रहैवेगी सरो ? सोचते

सोचते ही तीसरे दिन ही उनको दिल का दौरा पड़ा और ...।”

अम्मा चुपा गयीं थी। मैं चीख पड़ी, अम्मा...और ...और क्या हुआ काका को। वे ठीक तो है

ना।”

”नहीं बिट्टो। वो तो अस्पताल भी न पहुँचे बस...पानी के बुलबुलै सी ज़िनगी यूँ ही ख़त्म हो

जावै हैगी....जाने मानुस काहै का घमंड करै हैगा और क्यों जोड़-जुगाड़ करै हैगा इत्ता ?”

अनजाने में मैं ज़ोर से रोती रही थी। अम्मा भी रोती जा रही थीं...हिचकियां भर उठी थीं....न

अम्मा चुपायीं, न मैं। बाबा दूध ले कर आ गये थे। अम्मा चुपचाप अंगीठी जला कर चाय बनाने में जुट

गयीं। मैं भीतर के कमरे में जा कर बिस्तर समेटने में जुट गयी थी...पर...सच में तो मैं...आग का दरिया

बनी थी...भट्टी सी जल रही थी। माँस के जलने की दुर्गंध मेरे चारों ओर फैलती जा रही थी।

लग रहा था, मेरे चारों ओर श्मशान घाट है जहां मुर्दे जलाये जा रहे हैं...निरंतर...उसकी निरंतरता ही मानों

ज़िंदगी का एहसास करवा रही है ....बाक़ी सब तो मृत है। मौत सा भयानक सन्नाटा और मुर्दों के जलने,

हड्डियों की चटकने की आवाज़ें मात्र फैली हैं।

इतनी बेकार-नकारा ज़िंदगी ...क्यों जीयें हम लोग ? क्यों जीते हैं सब लोग ? क्यों जीऊँ मैं ? ये

ज़िंदगी...जिसका न आदि, न मध्य, न अंत। कुछ भी तो मेरे हाथ में नहीं है।

कहते हैं, कभी-कभी घर का कोई बच्चा बुरी आत्मा ले कर पैदा हो जाता है जिसके प्रभव से पूरा घर,

पूरा मौसम, पूरी दृश्यावली, पूरा जीवन तक बदल जाता है...पर मैंने तो पढ़ा है कि, ’आत्मा का कोई रंग

नहीं होता, वह नहीं मरती है, उसे न शस्त्र काट सकता है, न आग जला सकती है...फिर वह बुरी कैसे हो सकती

है, उसका प्रभाव बुरा कैसे हो सकता है ?’ मेरे सामने सैंकड़ों प्रष्न जीभ लपलपाते फैले दिलोदिमाग़

में भय से लहराते रहे थे और मैं मशीन सी घर का बिखराव समेटती रही थी...पर....मन के भीतर कब,

कितनी कुछ बिखर जाता है, पता नहीं चलता, समेटूँ कैसे ?

मेरे भीतर सिगड़ी सी जलती रही थी, जिसमें तन-मन चने सा भुनता रहा था। किसको दिखाती ये अलाव ?

कौन सुनता चनों की भड़ भड़ की आवाज़ ? जिंदा रह कर निरंतर जलते रहने की इस दुर्गंध को सहते

रहना ही क्या हमारी नियति है ? मन किया कि ज़ोर ज़ोर से चीखूँ, ज़ार-ज़ार रोऊँ पर कुछ न हुआ, कुछ कर

ही न पायी, लुंजपुंज बनी बैठी रही थी।

पर .....तुलसिया भाभी ने क्या किया था, उनका तो कोई दोष न था। वही तो मेरे सपने में आई

थी। कौन थी तुलसिया भाभी, तुलसिया या फिर तुलसिया डायन ?

तुलसी भाभी गोट की ही थी। दूर बसी झोपड़पट्टी में रहती थी। गोट में पक्के मकानों वाला

इलाक़ा थोड़ा अलग हट कर था। ज़रा सी दूर, कोई आधा कोस की दूरी पर कुछ कच्ची-पक्की

झोपड़ियाँ थी। कच्ची से मतलब केवल फूस की और पक्की से मतलब जो मिट्टी-गोबर से बनायी गयी थी और

ऊपर की छत मात्र फूस की थी। इन झोपड़ियों में गलीचे बुनने, ऊन सँवारने, छाँटने का काम दिन-रात

होता। यही वह स्थान था जहाँ लोग जानवरों के झंड से ढेर के ढेर दीखते। बच्चे, नंगे बदन

जाँघों के पास एक काला धागा बाँधे या फिरा ज़रा सा जाँघिया पहने दीख जाते थे...बच्चों से मतलब

पाँच-छह साल तक के लड़के मात्र। लड़कियाँ तो झोपड़ों में हों या बाहर , अपने से छोटे बच्चे के

साथ खेलती-खिलाती दीख पड़तीं। घर का हर बड़़ा-छोटा कामकाजी था। जब बड़े-बूढ़े, माँ-बाप,

भाई सब गलीचे के काम में जुटे होते तो लड़कियां व बहुएँ घर व बच्चे संभालती।

नयी नयी ब्याह कर आयी थी तुलसी, रमेसरा के बड़े बेटे मनेसर की ब्याहता बन कर। तुलसी- पौधे सी पवित्र,

उसके पत्तें सी हरी-भरी गुणवंती भी तुलसी की ही तरह। पाँव में झांझर डाल कर , सिर पर घूँघट डाले

जब वह पानी लेने निकलती तो उसकी झाँझर की ध्वनि मौसम-ए-गुल को बुलावा देती लगती। गोट भर के

युवा होते लड़के उसकी चाल पर फ़िदा थे। उनके टी स्टाल में बैठे रहने का समय जो भी हो, पर वे

तुलसी की झाँझर की आवाज़ के साथ ही कुएं की ओर जाने वाली राह पर डोलते नज़र आते।

तब मैं बी.ए में पढ़ रही थी। नयी ब्याहता तुलसी को देखा। उसकी आँखों की कशिश से उसकी ओर

खिंचती चली गयी। उसकी ओर देखती तो चेहरे पर से निगाह न हटती। कवि बिहारी तभी पढ़ा था। बिहारी

की नायिकाओं की अतिश्योक्तिपूर्ण उपमाएँ भी पढ़ी थीं...पर तुलसी के सौंदर्य का उपमान बन कर तो वे

उपमाएँ भी सजीव-सटीक हो उठी थीं।

सरो और मैंने साथ साथ बैठ कर ’तुलसी’ जिसे अब हम ’तुलसी भाभी’ कहने लगे थे, के सौंदर्य पर ढेर सी नयी उपमाएँ गढ़ डाली थी। जैसे, तुलसी भाभी की आँखों की उपमा गाँव के पोखर में बरसात के दिनों में साफ़ नीला छल छल करते पानी से दी थी।

चेहरे की उपमा हमने गोट के मंदिर पर के कलश से दी थी जिस पर सोने का पानी फिरा था, जो सूरज की किरण पड़ते ही चमचमा उठता था। यह भी निश्चय किया गया था तुलसी भाभी का सौंदर्य तो उस कलश की

सुंदरता की अपेक्षा कहीं अधिक है, क्योंकि मंदिर के कलश की चमक तो साँझ ढलते न ढलते मद्विम पड़ जाती, पर तुलसी भाभी का चेहरा तो साँझ पड़ने के साथ और अधिक दमक उठता है। चिपकाने वाला मल्हम लगा कर

वे माथे पर काँच की रंग-बिरंगी बिंदिया चिपका लेती थीं, जो चाहे हमारी पसंद के हिसाब से जटक-चटक थी पर उनके माथे पर कलश के ऊपर का कंगूरा सा दमकती रहती। तिस पर मिस्सी से रंगे होंठ, दीवाली पर दिये

में बनाये गये काज़ल से सजी आँखें, चटक लाल-हरे रंग की चटकदार धोती पहन, आलत लगे पैरों में ’वी’

शेप की चप्पल पहने, सिर पर धड़ा रख कर जब वे गाँव में निकलती, तो लगता केवल उनकी पायल नहीं बोल रही, अपितु उनके अंग-प्रत्यंग का स्पर्श करता हर रंग अपनी अपनी बोली में चहचहा रहा हो।

ऐसी सुंदरी थीं तुलसी भाभी। गुणवंती इतनी कि रामेसरन की झोपड़ी को उसने चमका-दमका दिया

था। टूटे ऊन के टुकड़ों से सुंदर सीनरी काढ़ दी, झोपड़ी के बाहर लगाने वाला टाट का पर्दा अब

अपनी कढ़ाई से विशिष्ट बन गया था। रामेसरा उसके हाथ के बनाये करेले की तारीफ़ करता न अघाता पर ...

गुणवंती और सुंदरी हो जाने भर से विधि के विधान तो नहीं बदल जाते। विधाता रचित काली पंक्तियों

के प्रभाव से कौन बच पाता है ? काले रंग का स्वभाव है कि वह सब कुछ काला ही कर देता है।

गोट के उस माहौल में पलती स्त्रियों की दुर्दषा ने मेरे मन को जाने कितनी बार मसोसा कचोटा है।

क्या विधाता पुरुष ही है, जो नारी जाति के दुःख का अनुभव उनके नज़रिये से कर नहीं पाता है। यह प्रश्न

जब-तब मेरे मन में भिद भिद कर मुझे उस छोटी उम्र में भी लहूलुहान करता रहा है। हम लोगों के

लिए ’अपने भाग्य का नियंता स्वयं मानव है’ जैसी उक्तियां निरर्थक व बेकार लगती। उनके जीवन का नियंता

तो पुरुष समाज ही होता, नियति का तो पता नहीं।

बात तुलसी भाभी की हो रही थी। खूबसूरत झाँझरिया से खाली बरतन में पड़ी कंकरी सी वह बजने लगी,

क्यों और कैसे ? इस प्रश्न का उत्तर कौन दे ? क्या उत्तर हो ? यही कहा जा सकता है कि शायद उसकी भाग्य

लिपि या फिर समाज की गली-सड़ी रूढ़ियाँ...कौन उत्तर दे, फिर तुलसी ने प्रश्न ही कहाँ किया था....सच ही,

उसने प्रश्न कहाँ किया था, पर उसकी सूनी आँखों में प्रश्नों का अंबार भरा था...जिन्हें समझता कौन ?

ब्याह के दूसरे वर्ष ही तुलसी भाभी एक प्यारे से गदबदे बेटे की माँ बन गयी थी। घर भर में अनेक

कमियों-खामियों, धन के अभाव के बावजूद खुशियों का ढेर लग गया था। सास-माँ ने बलैया ली

थी। ससुर व पति गर्वित थे। इधर बेटे का चालीसवां हुआ, उधर तुलसी को नहला-धुला कर सोवड़ से बाहर

लाये जाने की रस्म पूरी करवायी जाने की योजना बनी। उस दिन वही रस्म होनी थी। झोपड़ियों के घेरे

के बीचोबीच बने चौक को सजाया गया था। हरी-पीली झंडिया फहरा रही थीं। आसपास की लड़कियों के

साथ तुलसी की ननद गुलाबो ने चौक पूरा था। जिठानी ने तुलसी के हाथों में मेहंदी, पैरों में

आलता लगाया। तुलसी के मायके से आयी राजस्थानी चटक लाल, हरे, पीले तथा बैंजनी रंग की बांधनी

धोती पहना दी। चाँद बनी काँच की लाल बिंदी माथे पर सजायी तो सचमुच ही ’तिय ललाट बेंदी दिये अंक

अगणित होत’ समझ आने लगा था। आँखों से थोड़ा बाहर निकला काज़ल पहले नीचे झुकी फिर शरमा कर

ऊपर उठती आँखें मानों सौंदर्यशास्त्र में डूब कर निकल आयी हों। मनेसर पंडित को लेने गया था।

सोवड़ गाये जाने लगे। बड़े लोग बलैया ले रहे थे। तुलसी का चेहरा खिले कमल सा और भरा भरा

शरीर कमल नाल सा लचकता दीख रहा था।

’पलना झुलावै यसौदा मैया अपने ललना’

’सोने के झुलने में सौवें कान्हा’

जाने कितने गीत सुर चढ़ रहे थे। खिल खिल हँसी गूंज रही थी। बीच से आवाज़ उभरती और चारों ओर

फैली झोपड़पट्टियों को गुले-गुलज़ार कर देती।

तभी तीन-चार लोग भागते हुए हाँफते-हाँफते अहाते में दाखिल हुए। सबके चेहरे पर हवाइयाँ उड़

रही थीं। काँपती-लरजती-भरभराती आवाज़ से उन्होंने जो कुछ बताया, उसका मतलब था कि पंडित जी

अस्पताल में हैं और मनेसर.....मनेसर का एक्सीडेंट हो गया है...साईं के चारों बेटे अपनी जीप को

हवाई जहाज़ की स्पीड से लिये चले आ रहे थे...बस, बदक़िस्मती से मनेसर पंडित जी की साइकिल लिये चले आ रहा था। साइकिल की रफ़्तार तो खै़र क्या होती, पर जीप की तेज़ रफ़्तार से टकरा कर वह पहले हवा में उछला, फिर दूर पथरीली ज़मीन पर जा गिरा और बस...फिर तो उठ ही नहीं पाया।

यह ख़बर...मात्र ख़बर न थी। यह तो ग़ाज थी, जो सिर के बीचोबीच गिरी थी। आसमान में घूमते

पहाड़ों में से कोई एक गोट के उस छोटे हिस्से में आ पड़ा था। बिना बादल के बिजली गिरी और

फट पड़ी थी।...सब जल-फुंक गया था। मौत...कोई एक शब्द मात्र न थी, वह एक बवंडर थी जिसकी ज़द

में जो आया स्वयं मौत बन गया था।

जवान मौत...वह भी इतनी भयानक...सारा गोट उमड़ पड़ा था। ’सकून’ दे सकें ऐसा एक शब्द भी न था

किसी के पास। बुजुर्ग तक भी स्तंभित से खड़े थे। रामेसरा को सभी आदमियों ने संभाल रखा था

और औरतों ने मनेसर की माँ को। तुलसी तो गुम पत्थर हो गयी थी। उसे तो बस...खड़े खड़े

देखा भर जा सकता था।

तुलसी की माँ दहाड़ मारती, छाती पीटती रोती रोती भीतर दाखि़ल हुई। सब ज़ार ज़ार, ज़ोर ज़ोर से

रोने लगे...पर तुलसी तो पत्थर की मूरत बनी बैठी रही...ज़िंदा लाश सी मानों उसकी समझ ने कुछ भी

जानने-महसूसने से इनकार कर दिया हो। तुलसी की माँ रोते-रोते बोलती जा रही थी।

”अरी मन्नो ! म्हारी तो क़िस्मत ही फूट गी हैगी...इस छोरी का कै हौवैगा...हाय तुलसिया...मैं के

करां...अरे वो तो पहले ही से बिन बाप की हैगी... इब...ख़सम को न रह्या...इब कुक्कर रहवैगी...बिन पत की

हौगी छोरी तू तो...।”

वह दिन क्या बीता, तुलसी ’तुलसिया’ बन गयी। गुमसुम...न बौल्लै, न चालै, न खावै, न पीवै...फटी फटी

आँखों से बस बेटे को देखे। सभी उसे रुलाना चाहते, पर वह तो पत्थर की शिला हो गयी थी, जिसके

भीतर से कोई झरना भी न फटता। बेटा रोता तो लोग उसकी गोद में धर देते, वह बैठी बैठी उसकी

ओर देखती रहती। घर में आने वाले हर छोटे-बडे़ ने लाख कोशिश की, पर वह न रोयी, न गले के

नीचे खाने का एक भी कौर उतरा, न एक घूंट पानी पिया। जहां थी वहीं जम गयी थी...जम गयी सिल्ली सी ...

न हिले-डुले, न खावें , न पीवे।

अभी मनेसर की मौत को इक्कीस दिन भी पूरे न हुए थे, अभी तो इस भयंकर चोट के ज़ख़्म दवा-दारू के

बावजूद भी हरे थे, बल्कि धीरे धीरे उनमें मवाद पड़ने लगा था कि छोटा बच्चा अपनी माँ की अपेक्षा

न सह सकने के कारण दम तोड़ गया।

बस...फिर क्या था ? अब तो तुलसी की जड़ का कोई तंतु न बच रहा था। ब्याह दिये जाने पर लड़की की जड़ें

मायके में भी नहीं रह जाती, यही तो रिवाज़ था। तुलसी भाभी जो पहले ’तुलसिया’ बनी थी, अब ’तुलसिया

डायन’ बन गयी थी, जो पहले अपने पति फिर अपने बेटे को खा गयी। वक़्त ने उसे जरा भी मुहलत न दी।

विधाता ने जो साौंदर्य और गुण दे कर जन्म दिया था, उसे खुलने खिलाने में बीस वर्ष लग गये थे, पर

सब कुछ जल कर खाक होने में बस कुछ दिन।

तुलसिया डायन...डायनों का कोई घर-बार नहीं होता। उससे लोग डरते हैं। डायनें तो सारा का सारा

घर-मुहल्ला खा जाती हैं, फिर भी उसका पेट नहीं भरता। ओझे के सामने पड़ी तुलसिया न रोयी, न

चीखीं, न किसी को पुकारा। ओझा पंडित हैरान-परेशान। पता नहीं गोट पर क्या कहर है ? किसका क्रोध

बरपा हो रहा है ? कौन सा ग्रह ऊँट की टेढ़ी चाल चल रहा है ? कौन दुरात्मा सुंदरी रूप धारण करके गोट

में उतर आयी है ? सोच-विचार की बैठकों के बाद तुलसी मंशा देवी के मंदिर ले जायी गयी। पिछले पच्चीस

दिन की भूखी प्यासी तुलसिया, जो यूँ तो ज़िंदा हो कर भी मरे के समान थी, मंशा देवी की चढ़ाई के

बीच में दम तोड़ गयी और इस तरह एक डायन की कहानी ख़त्म हो गयी पर कहानियाँ ख़त्म होती हैं

सिर्फ़, ज़िन्दगी तो दर्द का सैलाब बनती ही रहती है।


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