परिवार सच बाकी झूठ
परिवार सच बाकी झूठ
सुबह के सात बज चुके है। लखनऊ स्टेशन आ गया है। लगभग चार साल बाद यहां आने का मौका मिला है। ट्रेन से उतरते ही दिमाग में बस एक ही बात है। घर तक रिक्शा से ही जाऊंगा। न कैब लूंगा, न ऑटो। परिवार के सदस्यों को फोन पर ही कह दिया था, ”स्टेशन पर लेने मत आना। शहर को आराम से देखता हुआ आऊंगा”
लखनऊ से एक ऐसा लगाव है कि बस। मुझे स्टेशन से घर तक इसकी सड़कों, दुकानों, लोगों और हर दृश्य को नजदीक से महसूस करते हुए जाना है। रास्ते में आने वाले हर नुक्कड़ को देखना है, हर मोड़ से मुलाकात करनी है। तीन ही तो दिन है मेरे पास यहां घूम कर दोबारा अपनी यादों को जीने के।
चारबाग रेलवे स्टेशन से निकलने से पहले ही ऑटो वाले “आइये, कहाँ जाएंगे, ले चलते है” कहकर मेरे और अन्य यात्रियों को लपकना चाहते है। पर मुझे तो रिक्शा पर ही जाना है, इसलिए मैं बाहर ऑटो, टैक्सी और रिक्शा की भीड़ में अपना सारथी तलाशने लगता हूँ।
रिक्शेवाले ऑटो और ई रिक्शा की भीड़ में सवारी मिल जाने की प्रतीक्षा इस प्रकार करते हैं जैसे चमकते दमकते मॉल्स के बगल में कोई चाय का खोखा लगाए खड़ा हो । सस्ता होना भी शायद एक गुण है,जो किसी को जरूरी बनाये रखता है ।
रिक्शा वाले अपने रिक्शे की काठी पर कोहनी टिकाए,हैंडिल पर झुके या रिक्शे की गद्दी पर बैठ पान मसाला चबाते अपनी प्रतीकक्षित आंखों से दिहाड़ी पा जाने के लिए सवारियों को देखते है,बुलाते हैं ।
"जी भाई साब,जी बाऊ जी,जी भैया, कहाँ जायेगे...चलिए...छोड़ दें ।"
बहुत सी आवाजो के शोर में अपनी आवाज को सुनाते ,अपनी मौजूदगी जताते वे रिक्शा वाले बहुत आशावादी लगते हैं । कुछ कोनो में ईंट चूल्हे पर रोटी सेंक रहे हैं,कुछ बीड़ी पीते शायद किसी दूर के चक्कर की थकान मिटा रहे है ।
मैं भी कुछ रिक्शा वाले से जाने के लिए पूछता हूँ । वह घर का पता सुनता है तो शायद बहुत दूर होने के कारण जाने से इनकार कर देते है।
पहले भी कितनी बार आया हूँ,स्टेशन से घर तक रिक्शा लेकर गया हूँ । वही सड़क है,वही जगह है,तो घर दूर कैसे हो गया । क्या विकास और समय का पहिया दूरियां बढ़ा देता है । दूरियों की परिभाषा बदल देता है । जिस से पूछता हूँ,वो जाने के लिए इनकार कर देता है ।
“नहीं साहब, नहीं बाबू जी, नहीं भैया, बहुत दूर है, नहीं जाएँगे” बड़ी तमीज से कहते।
मुझे कुछ निराशा हुई, शायद शहर को आराम से देखने की ललक तेजी से भागते हुए साधनों पर बैठकर ही बर्बाद हो जाएगी ।
सोचा ऑटो ही सही।
ऑटो की तरफ बढ़ा ही था, एक और रिकशा वाला दिख गया। थोड़ा आशावादी रुख अपनाते हुए उसकी तरफ बढ़ा तो उसने मेरे पूछने से पहले ही पूछा, "कहा जाएंगे भैया”
"चौक चलोगे?”
"जी, बैठिये जरूर चलेगें”
"क्या लोगे" मैंने पूछना उचित समझा, शायद पूछना और कीमत तय करना एक आदत है .....क्योकि उसने बड़े आराम से सहमति दे दी थी।
“जी डेढ़ सौ, वैसे कोई रिक्शा वाला इतनी दूर कम ही जाता है, मगर अभी सुबह का टाइम है, गर्मी तो नौ बजे के बाद शुरू होगी, इसलिए चल रहा हूँ" उसने सहजता से कहा।
मेरे हिसाब से सौ रुपये बहुत थे पर न जाने क्यों ......मैंने कोई मोल भाव नहीं किया और रिक्शा पर सहमति देते हुए बैठ गया और कहा, "आराम से चलना, कोई जल्दी नहीं”
"जी बाऊजी " उसने रिक्शा स्टेशन से बाहर निकलते मुख्य रास्ते की ओर घूमा लिया।
कितना कुछ बदला से लगता है, मेट्रो के जाने के लिए बना पुल नया निर्माण है। भीड़ से भरा चारबाग का बाहरी चौराहा। पोस्टर, बैनर से अटी पड़ी दीवारें, आस पास के पेड़ों और बिजली की तारों में फंसे पतंग, हलवाइयों की दुकानों के आगे खस्ता पूड़ी का नाश्ता करते लोग और छोटे छोटे मन्दिरो के बाहर बिकते फूल और मंदिर में बजती घण्टियाँ, ये सब लखनऊ की पहचान है। यहाँ वहां दीवारों पर पान की पीक के दाग तो शायद कभी ही मिटें।
रिक्शेवाला दायें बांये मोड़ काटता धीरे धीरे आगे बढ़ रहा था। भूरे रंग की पैंट जो एड़ियों से तीन इंच ऊपर तक मोड़ी हुई थी। सफेद रंग की साधारण सूती कमीज और सिर पर लपेटा सफेद गमछा। रिक्शावाले की एक और खासियत ये थी कि वो पान शायद नहीं खाता था, खैनी खाता होगा, ऐसा माना जा सकता है। मैंने उससे पूछा।
"और भैया लखनऊ में क्या बदला है?"
"हमारे लिए तो बाऊजी, सब कुछ वैसा ही है, जैसे पहले था, बदलना वदलना सब बड़े लोगों के लिए होता है। आजकल सब दिखावा ज्यादा करते है, करने धरने को कुछ नहीं, बस प्रचार हो गया यही बहुत है। अपने लिए तो बस यही है कि काम करते रहो, जुल्म सहते रहो”
"अच्छा, भाई मैं तो चार साल बाद आया था, सोचा पूछ लूँ”
"बाऊजी, मुझे पच्चीस साल हो गए यहाँ रहते। वही सब देख रहे है जो पहले होता रहा है। रिक्शावालों की न तब इज्जत थी न अब है”"
"अरे तो आप भी जमाने के साथ बदलो भाई, अब तो सरकार ई रिक्शा दे रही है, चलाने के लिए, मैंने तो ऐसे ही सुना है”
"हम गरीब कहाँ से ई रिक्शा खरीदें, उसके लिए पैसा चाहिए और पैसे के बिना कौन मुफ्त में दे देगा कोई चीज बाऊजी”
"मैंने तो यही अंदाजा लगाया था कि शायद कोई स्कीम चली हो आप लोगो के लिए, रिक्शा खींचना कौन सा आसान है”
"बाऊजी कल सुबह एक घण्टा रिक्शा चलाया था, फिर कमरे पर चल गया। अपने बच्चों और परिवार के पास। बहुत गर्म पड़ रही थी। कमरें पर पंखा भी गर्म हवा छोड़ रहा था। बस इतनी तसल्ली थी कि परिवार के बीच बैठा हूँ। खाया पिया, बातचीत की और सो लिया। फिर रात आठ बजे रिक्शा निकाला। आज भी ऐसा ही प्रोग्राम है”
"कमाई तो ठीक ठाक हो जाती होगी”
"बाऊजी रिक्शा चलाने का काम हमें बिल्कुल पसंद नहीं है, पर क्या करें और कोई काम अभी मिल नहीं रहा, पहले किराये पर किसी की टैक्सी चलाता था। एक दिन बस कुछ टैक्सी वालो के साथ लफड़ा हो गया और पूरे दो साल लखनऊ से बाहर रहना पड़ा। अब ये रिक्शा भी मेरी नहीं है। किराये की है। रोज पचास रुपया इसका किराया देना होता है, बाकी नफा नुकसान अपना है। इसलिए ज्यादा लालच नहीं करता। बस ये होता है कि सुबह शाम रिक्शा चलाने है और दोपहर अपने परिवार के साथ रहना है। एक लड़की थी उसकी शादी तीन साल पहले कर दी है। दो लड़के है। एक इंटर की परीक्षा देगा तो दूसरी नवी में पढ़ रहा है। बस इतना है कि अपने बच्चे ज्यादा घर से बाहर नहीं घूमते। घर से स्कूल और स्कूल से घर। बाकी जमाना है ही खराब। भगवान की इतनी कृपा है कि बच्चे ठीक ठाक है ज्यादा दुनियादारी से मतलब नहीं रखते, अपना काम करते है और घर पर रहते है”
"तो कोई लोन वगैरह लेकर काम धन्धा बदलने की नहीं सोची। गरीबों को सस्ते में लोन दे रही है सरकार”
"बाऊजी ऐसा है, सरकार अपना काम कर रही है, ठीक है। पर मान लीजिये आज हम दो लाख लोन ले लें, काम धन्धा भी चला ले। पर भगवान न करे, कोई दुर्घटना हमारे साथ घट जाए तो परिवार का क्या होगा। मुश्किल से दो कमरे का घर है, वो भी कुर्क हो जाएगा। रिक्शावाले तो पहले ही बदनाम है। लोग उन्हें चोर, शराबी और न जाने क्या क्या कहते है। जिसका मन करता है हमें गाली बक देता है। आप है जी हमसे इतनी इज्जत से बात कर रहे है, वरना हमारा तो भाग ही फूटा हुआ है"
"ओह, ये तो बड़ी गलत बात है, तुम लोग भी मेहनत मजूरी से अपना पेट भरते हो, कोई चोरी तो करते नहीं”
"अब क्या किया जाए कुछ रिक्शा वाले है, जिनकी वजह से सब बदनाम है। अब देखिए मैं अपना परिवार मुश्किल से पालता हूँ। बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ा रहा हूँ क्योंकि प्राइवेट में पढ़ाने की औकात नहीं। राशन पानी पूरा हो जाय यही बहुत है। नशा शराब मैं करता नहीं हूँ। दूसरी तरफ ऐसे भी रिक्शा वाले है जो रोज शाम को दारू पीते है, झगड़ा करते है, बीवी बच्चो को पीटते है। न परिवार से कोई लगाव, न अपने से प्यार। उनके बच्चे स्कूल नहीं जाते, आवारा घूमा करते है, चोरी चकारी करते है या बेकार इधर उधर लफड़ा करते है। ज्यादातर हाल ऐसा ही है। उनके कारण सब बदनाम है। समाज में हमारी कोई इज्जत नहीं है”
"ओह, तब तो कोई करे भी तो क्या करें। कोई बात नहीं भाई तुम अपने परिवार की भलाई के बारे में सोचते हो यही बहुत है। अब तुम्हारा लड़का इंटर कर लेगा तो कोई काम कोर्स वगैरह करवा देना। सेट होगा तो परिवार के दिन भी बदल जाएँगें” मैंने एक उम्मीद देने की कोशिश की।
"कोर्स के लिए भी पैसा चाहिए बाऊ जी, वो अपने पास है नहीं, अब तो बस भगवान मालिक है। पर बस एक कोशिश रहती है कि मेरा परिवार भूखा न सोये, यही सोचकर काम किये जाता हूँ, वरना रिक्शा चलाना एक मजबूरी से ज्यादा कुछ नहीं”
"कोई बात नहीं सरकारी संस्थान के कोर्स आसानी से किये जा सकते है, वह ज्यादा खर्च नहीं होगा”
"जो भगवान को मंजूर, बच्चे हमारे अभी तक बाहरी खुराफात से बचे हुए है, यही गनीमत है। अब पक्का मकान है मेरे पास। बस पानी की व्यवस्था नहीं है, टँकी भर के रखनी पड़ती है। सबमर्सिबल लगवाना चाहता हूँ पर उतना खर्च कौन करे। पर यही सोचता हूँ कि जितना हो गया है, उसी में संतोष रखे, बाकी भी हो ही जायेगा। बस परिवार से लगाव है इसीलिए दुख सुख सब झेल लिया जाता है”
मुझे रिक्शावाले की बातें सुनते हुए अपना परिवार याद आने लगा। मैं सोचता हूँ कि यदि हमारे पास परिवार न हो, बच्चे न हो तो शायद जीने के काऱण कितने कम रह जाते है। काम तो सबको कुछ न कुछ करना ही है पर उसका कोई न कोई उद्देश्य तो होना ही चाहिए।
मेरा घर नजदीक आ रहा था। मैंने रिक्शावाले को ताकीद करते हुए दिशा बताई।
"हां भैया इस मोड़ से आगे जाकर उतार देना”
घर आ गया। मैने उतरकर पैसे देते हुए कहा, आपके परिवार के लिए बहुत सी दुआएं। ईश्वर आपको प्रसन्न रखे”
"बाऊजी, बहुत अच्छा सफर कटा आपके साथ, कुछ गलत बोल दिया हो तो माफ कर देना। आप लोगो की दुआओं का ही सहारा है” कहते हुए उसने विदा ली।
मैं अपने परिवार के बीच बैठा रिक्शावाले की कहानी सुनाने लगा।