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उनके बाद

उनके बाद

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नीले शहर का यह इलाका पुलिस लाइन कहलाता है। पुलिस लाइन की मुख्य सड़क से एक सड़क युग्म सर्किट हाउस की तरफ़ आती-जाती है। सड़कों के बीचों-बीच बुर्ज के खंभों की मानिंद नीम के पेड़ों की कतारें हैं। हवा जब भी चलती नीम के पत्तों में झुरझुरी सी दौड़ जाती। सड़क पीले पत्तों और सीकों से पट जाती।

सुबह के साढ़े नौ बजे होंगे। गरम हवा बेचैन हुई जाती थी। शिक्षा विभाग के सामने चाय की थड़ी पर इक्का दुक्का ही लोग थे। नगर परिवहन की एक मिनी बस वहाँ आकर रुकी। एक दुबला-पतला सा नौजवान उतरा। उसने बड़े करीने से नीले चेक वाली फुलशर्ट और ग्रे कलर की पैंट पहनी हुई थी। उसने बायें हाथ में काले रंग का एक हैण्ड बैग पकड़ा हुआ था। जिसपर किसी सरकारी स्कीम का विज्ञापन छपा था। फुटपाथ से खड़े होकर थोड़ी देर तक वह शिक्षा विभाग के धूसर से बोर्ड को निहारता रहा। फिर थड़ी के पास चला आया। उसके चेहरे पर उदासी मिश्रित कई अतिरिक्त भाव थे। मसलन उसकी दोनों आँखें हलकी सूजी थीं. मानों कई रातों से वह सोया नहीं। होठ सूखकर पपड़ी हुए जाते थे। चाय पीते हुए बार-बार उसकी नज़र रोड के उस-पार निर्माणाधीन इमारत की ओर जा रही थी। इमारत के सामने तकरीबन पन्द्रह फुट के गहरे हरे रंग के पर्दों से घेरा बंदी की हुई थी। जिनसे रह-रह कर अन्दर का हिस्सा हल्का झाँक जाता था।चाय वाले ने उसे उधर देखते हुए देखा तो बोल पड़ा,

- " यह एक पुराना रेस्तरां था. ‘नया मालिक’ यहाँ अब कॉफ़ी हाउस शुरू करने वाला है." नौजवान ने धीरे से चाय वाले को बताया कि यहाँ के गुलाब जामुन प्रसिद्ध थे।

चाय पीकर वह शिक्षाविभाग के दफ़्तर चला आया। मुख्य गैलरी में अभी कोई चहल-पहल नहीं थी। रिशेप्सन काउंटर ख़ाली था।वह गैलरी में ही पड़ी लम्बी कुर्सीनुमा बेंच पर बैठ गया। ललाट के ठीक नीचे किसी बिंदु पर उसकी दोनों भौहें सिकुड़ आई थीं। बैग पास में ही रखकर उसने अपना चेहरा अपनी दोनों हथेलियों पर टिका रखा था।अन्यमनस्क सा वह शून्य में देखता देर तकएक ही मुद्रा में बैठा रहा। इस शदीद गर्म मौसम में उसने एक अतिरिक्त गंभीरता भी ओढ़ रखी थी।

अगर वह इतना गंभीर नहीं होता तो किसी ग्यारहवीं-बारहवीं का छात्र लगता। अमूमन इस दफ़्तर में छात्र छात्रवृति आदि के आवेदन लेकर आते रहते हैं। पर फ़िलहाल वह कठिन हालातों से रगड़ खाता हुआ किसी संविदा पर नियुक्ति के लिए आया हुआ अभ्यर्थी जैसा लगा। वह जो भी था, एक अनजाने ख़ालीपन के अन्दर बंद हुआ-सा लगा। इक्का-दुक्का लोग उसके सामने से गुजरे। लेकिन उसकी गहरी चुप्पी देखकर किसी ने उससे कुछ पूछना मुनासिब नहीं समझा।

गलियारे में चहल-पहल शुरू हो चुकी थी. 

-        “क्या आप बता पाएंगे नवोदय विद्यालय का फॉर्म कहाँ मिलेगा??”

उस नवयुवक ने सिर उठाया। उसके सामने कत्थई रंग का खियाया हुआ शर्ट पहने एक अधेड़खड़ा था। उसके दाहिने हाथ की कलाई में उसने एक प्लास्टिक का गंदला झोला लटकाया हुआ था। जिसमें उसके कुछ कागजात रहे होंगे। उसके ठीक पीछे एक नौ-दस साल का लड़का भी था। उसने उन्हें सरसरी निगाहों से देखा फिर इन्कार में सिर हिला दिया

-        “नहीं.”

आदमी को थोड़ी निराशा हुई। उस वक्त बरामदे में अन्य कोई न था। उसने नौजवान से बेंच पर थोड़ा खिसकने का अनुरोध किया। लड़के के साथ वह बेंच पर बैठ गया। लड़का चिहुंक-चिहुंक कर हर ओर निहारे जा रहा था। शायद पहली बार वह शहर आया था। आदमी लड़के के भविष्य के लिए कोई उम्मीद संजोए था। उसकी बेहतरी का कोई रास्ता...आशा की कोई चमकदार किरण। जो इस दफ़्तर से होकर गुजरती थी। दफ़्तर के कई कमरे अब धीरे-धीरे खुलने लगे थे। रिशेप्सन पर अभी तक कोई नहीं आया था।

सुबह के समय दफ़्तर एक अनजानी-सी गन्ध लिए रहता है। सूरज के चढ़ते-चढ़ते उसमें आत्मीयता घुलती जाती है। शाम के बाद अकेलेपन से लड़ता-भिड़ता वह फिर अजनबी हो जाता है।

मुख्य गैलरी में वह नवयुवक और आदमी उसी बेंच पर बैठे थे। उसका लड़का बेपरवाही से इधर-उधर घूमता रहा। उस वक्त आदमी का उसपर ध्यान नहीं था। वह गैलरी की तरफ लगातार देखते हुए किसी कमरे के खुलने के इंतजार में था।

अचानक नौजवान का मोबाईल बज उठा। उसने फोन रिसीव करते हुए कहा- "रिशेप्शन पर बैठा हूँ... अभी आता हूँ।" कुछ ही पलों में हैंड बैग संभालते वह दफ्तर की लम्बी गैलरी के किसी कमरे में गुम हो गया।

दफ्तर के अलग-अलग विभागों में कर्मचारी अपनी-अपनी कुर्सियों पर जम चुके थे। अकादमिक सेल की इंचार्ज फाइलों से एक-एक आदेश निकाल कर देखतीं। फिर उन्हें छांटकर अलग फाइलों में रख देतीं।क्लर्क बाबू अपने कम्प्यूटर पर कोई पत्र संपादित करने में व्यस्त थे।

-“क्या मैं अन्दर आ सकता हूँ सर?” एक धीमी सी, कांपती आवाज कमरे में तैर गई। क्लर्क बाबू ने दरवाजे की तरफ़ देखा। आदमी और लड़का थे। आदमी का दाहिना हाथ सीने के सामने कमान की तरह सीधा था।

- 'आ जाइये'

दोनों अंदर चले आये। आदमी ने अपना सवाल निवेदन की तरह दुहराया- “नवोदय विद्यालय का फॉर्म यहीं मिलता है न!”

क्लर्क बाबू ने उन्हें अपनी टेबल के पास बुलाया। आदमी लड़के के साथ उनके नजदीक चला आया।

-         “ये फॉर्म लीजिए। ये उसकी बुकलेट... कैसे भरना है? इसमें दिया हुआ है।”

आदमी ने फॉर्म ले लिया। फ़ाइलों से अंटे पड़े उस छोटे से कमरे में उसकी नजर कोई बैठने का कोना तलाश रही थी। जहाँ वह बैठकर फार्म भर सके। क्लर्क बाबू ने उसे वहीं सामने पड़े सोफे पर बैठने को कहा। पहले सोफे पर बैठने को लेकर वह सकुचाया। फिर सिकुड़ते हुए रहा। उसने लड़के को भी पास में बैठने का इशारा किया। पिता फॉर्म भरने में तल्लीन हो गया।

कुछ पल बीते थे। अचानक दफ़्तर के ही पाँच-छः कर्मचारी एक साथ कमरे में दाखिल हुए। उनके साथ वह नौजवान भी था।

-          “ये राजशेखर जी का बड़ा लड़का है। आज जॉइनिंग है।” शिक्षा विभाग के कोई वरिष्ठ कर्मचारी थे।वे नौजवान का सभी से परिचय करवाने लगे।‘राजशेखर जी का लड़का’ सुनते ही कमरे का माहौल गंभीर हो गया था। सभी अपनी-अपनी जगहों पर खड़े हो गए। फार्म भरते आदमी की कलम रुक गई थी।

राजशेखर इस दफ़्तर के वित्त विभाग में कार्यरत थे। पिछले महीने उनका आकस्मिक निधन हो गया।

-“क्या नाम है बेटे?” इंचार्ज मैडम ने पूछा लिया।

-“अरविन्द।” अपना नाम भी उसके गले से मुश्किल से ही निकला। नौजवान उनकी टेबल के पास चला आया।

-          “बहुत अच्छी बात है कि तुम हमारे साथ काम करोगे। खूब आशीर्वाद बेटे। तुम्हारे पिताजी बहुत अच्छे इंसान थे।” मैडम ने एक कर्मचारी ज्वाइनिंग रजिस्टर निकाल लिया था।

आसपास खड़े लोगों ने उसे रजिस्टर पर साइन करने को कहा। अरविंद ने कलम निकाली। पर कागज पर झुका उसका हाथ थरथरा उठा। उसके चेहरे के भाव बेतरह बदल रहे थे।कुछ अश्रुकण रजिस्टर पर टपक पड़े। आँखों का बाँध उससे छूट गया। घर का सबसे बड़ा था वह।

कमरे में बोझिल खामोशी छा गई। वह पल जैसे किसी फ्रेम में जड़ गया था। फॉर्म भर रहे आदमी ने लड़के को अपने समीप खींच लिया।

समूचा दफ्तर एक परिवार था। जिसके अपने दुख-दर्द भी थे। जिसमें दर्द का एक और कतरा अभी-अभी आकर गिरा था। कहीं कुछ ख़ाली-सा जरूर सबके भीतर था। अचानक जो छलक गया था।

हर कोई अरविन्द के साथ स्वयं को भी ढांढस बंधा रहा था।

पिता का चले जाना उसके लिए जीवन के सबसे सुरक्षित घेरे का गुम हो जाना था।

मैडम ने कुछ कहना चाहती थीं । लेकिन कह न सकीं। उनकी आवाज गले में जैसे घुट गयी। आँखें सजल हो आईं। मेज की दराज से उन्होंने अपना पावर का चश्मा निकाल कर आँखों पर चढ़ा लिया।

क्लर्क बाबू अपनी कुर्सी से उठाकर उसके पास आए

-“तुम्हारे पिताजी से बहुत कुछ सीखा है मैंने। तुमको बस उनका नाम बनाये रखना है।” उन्होंने अरविन्द के कन्धे थपथपा दिए।

-“हम सभी एक परिवार जैसे ही तो हैं, बेटा!’ कहते-कहते मैडम की आवाज एक बार पुनः भर्रा गयी।

अरविन्द ने धीमे-धीमे ख़ुद को संभाला। रजिस्टर पर साइन करने के बाद वो मैडम की सामने वाली कुर्सी पर बैठा। मैडम ने अपने बैग से एक टॉफ़ी निकालकर उसे दी।

-“आज तो अच्छा दिन है तुम्हारी ज़िंदगी का। लो मुंह मीठा करो. राजेशखर जी का नाम रोशन करो।”

-“शुक्रिया!” कहते हुए अरविन्द ने टॉफी ले ली। 

कमरे में इतना कुछ घटित होता देख लड़का फॉर्म भरते आदमी के पास सिमट आया था। कुछ टाँफियां मैडम ने उस लड़के की तरफ भी बढ़ा दीं।

क्लर्क बाबू अरविन्द को उसकी टेबल तक छोड़ने गये। जहाँ उसके पिता काम किया करते थे। बाकि सभी उनके पीछे-पीछे कमरे से बाहर निकले।

थोड़ी देर में नवोदय का फॉर्म भरकर आदमी लड़के को लेकर दफ़्तर से निकला।जाते वक्त उसने उसका दायाँ हाथ जोर से पकड़ा हुआ था।

कुछ समय पश्चात अरविंद भी अपनी टेबल पर अकेला था। कुछ फाइलें उसके सामने टेबल पर थीं। पिता की टेबल पर उनकी कुर्सी के ठीक सामने वाली कुर्सी पर वह बैठा हुआ था। पिता की उपस्थिति में वह जब कभी इस दफ्तर में आता तो वहीँ बैठता था। अब पिता स्मृतियों में थे। उनकी कुर्सी की तरफ एकटक भाव से देखकर कुछ सोचता हुए वह पसीने से लथपथ था।उदासीमें लिपटा चेहरा सूखकर छोटा हो गया दिखता था। अचानक उसके मन क्या आया? उसने मेज पर पड़ी फाइलें दराज के हवाले कीं। अपना हैंड बैग संभाले दफ्तर से बाहर निकल आया। वह चाय की थड़ी पर खड़ा किसी बस का इंतजार कर रहा था।

सड़क के उस पार निर्माणाधीन कॉफ़ी हाउस की दीवार पर एक बैनर टंगा था। बैनर पर एक वृद्ध चाय की प्याली संग मुस्कुरा रहे थे। नीचे बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था-“फ़ादर्स कॉफी हाउस...कमिंग सून"।


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