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दरख़्त को छूकर

दरख़्त को छूकर

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स्निग्धा चाय के दो गिलास पकड़े आई थी। दरवाज़े पर उसकी लहराती परछाईं की तरफ मेरी नज़र उठ गई। कमरे की बत्ती उसने जला दी और आँखें नचाकर पूछा, ‘राइटर साहब। कहीं मेघ दूत पार्ट टू लिखने तो न बैठ गए कि लाइट जलाने की फुर्सत भी नहीं!’
उसका लहज़ा हमेशा की तरह था…भोर की ताज़ी बयार!

मैं एक छोटा सा प्रकाशन संस्थान चलाता हूँ। और इसके इस छोटे से दफ़्तर में स्निग्धा मेरी सहायक-संपादक, प्रूफ़ रीडर, अकाउंटेंट सब कुछ है। यों मैं अकेला रहता रहा हूँ। अपनी ज़िंदगी का बहुत बड़ा हिस्सा मैंने अकेले जिया है। अकेलापन जैसे आदत में तब्दील हो गई थी। लेकिन जब से स्निग्धा साथ काम करने लगी है, लगता है जैसे हर पल भीड़ से घिरा रहता हूँ। बहुत बातूनी और हल्की तबियत की लड़की है। हर वक़्त उसके चेहरे पर दानिशमंदी और ताज़गी का लश्कारा रहता है। हर वक़्त बोलती है। और मुझे आश्चर्य होता है कि कैसे इस तरह इतना बोलते-बोलते भी मैटर कंपोज़ कर लेती है और प्रूफ़ भी बाक़ायदा दुरुस्त कर देती है। गलती ढूँढो तो एक नहीं!
स्निग्धा सुबह नियम से आठ बजे आ जाती है। दफ़्तर की चाबी  उसी के पास रहती है। वह दफ़्तर खोलती है, फटाफट कमरे को बुहार देती है और मेरे आने तक कोई पत्रिका या इन दिनों पढ़ रही उपन्यास में घुसी रहती है। मैं उसके आने के आध घंटे बाद पहुँच पाता हूँ। इन दिनों देर से उठना मेरी कमज़ोरी बनती जा रही है। स्निग्धा को शाम पाँच, साढ़े-पाँच बजे छोड़ देता हूँ। वह घर जाकर पड़ोस के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती है। स्थानीय आकाशवाणी केंद्र पर कभी-कभी अपनी कविताओं और लघु-नाटिकाओं का वाचन करती है।
आज दोपहर बाद से ज़ोरदार बारिश होने लगी तो वह ठहर गई। घर पर फ़ोन कर दिया है कि, अकेली माँ हैं घबरायेंगी। सितंबर का महीना है, पिछले दो दिनों से लगातार बरसात हो रही है। ज़ोर इतना कि छाता निकम्मा साबित हो जाता है। वैसे भी आज रविवार है,उसकी ट्यूशन नहीं थी इसलिये उसे बारिश के अड़ंगे से एतराज़ न हुआ।

‘लो न चाय’ वह गिलास मेरी ओर बढ़ाए सामने खड़ी थी।
‘तुम ख़ुद ही उठाए ला रही हो, लड़का नहीं था?’ मैंने चाय वाले के लड़के के बारे में पूछा। दुकान नीचे थी उसकी। स्निग्धा खिड़की से उसे पुकार लेती, वह शीशे के दो अध-गिलास भर ले आता।
‘नहीं, कहीं गया है।’
‘अच्छा’
‘मैंने सब प्रिंट आउट निकाल लिये हैं। प्रेस वाले को कल जल्दी पहुँचा आऊँगी, वह एक घंटे में कॉपियाँ निकालने को बोलेगा लेकिन मैं पंद्रह मिनट में करवा लूँगी और हाँ डिस्पैच के लिफ़ाफ़े भी तैयार हैं। बस टिकटें सांटनी हैं। मैं ग्यारह बजे तक निपटाकर डाक में छोड़ आऊँगी।
आपने कुछ नया लिखा है ना? एकाएक उसकी नज़र मेरे सामने मेज़ पर पेपरवेट से दबे फड़फड़ाते पन्नों पर गई थी।
‘रफ़ ड्राफ़्ट है बस यूँ ही’ मैं उसे टालने के लिये कह गया।
‘वही सही, सुनाओ ना’ वह एकाएक चहक उठी।
मुझे मालूम था यही होगा। जब उसे पता लग गया कि मैंने ऐसी कोई हिमाक़त की है। तो फिर उससे पीछा छुड़ाना मुश्किल है। बस उसे पहला पाठक या श्रोता बनना है, उसकी ज़िद होती है।
‘सुनाओ ना’ वह उठकर पास आ गई।
‘ख़ामख्वाह तुम्हें देर हो जायेगी’
‘क्या देर होगी? हो भी जाय तो तुम साथ चलना। माँ को फिर फ़ोन कर दूँगी।’
वह मेज़ पर झुक आयी, पेपरवेट के नीचे से पन्ने खींचकर मेरी ओर बढ़ा दिये।

स्निग्धा ने कुर्सी पर अपने दोनों पैर उठाकर पालथी मार ली। उसकी आँखें मेरे चेहरे पर टिक गईं। ‘चलो शुरू करो न।’

‘आकर्षण और प्यार को चाहे आप दो अलग-अलग चीज़ माने पर सच तो यह है कि प्रेम पहले-पहल आकर्षण ही होता है। आकर्षण का लावा ही ठंडा हो कर ठोस जज़्बात की ज़मीन बन जाता है। अल्हड़पन के प्रेम का आकर्षण  रूप होता है और प्रौढ़ता में आप गुणों की ओर आकर्षित हो जाते हैं।
इस कहानी का नायक एक प्रेमी है। बहुत हद तक आदर्शवादी। लेकिन आखिरकार यथार्थवाद। यह उसी की प्रेम कहानी है। कुछ सच्चाई और कुछ कल्पना। शायद कल्पना अधिक। क्योंकि उसके बग़ैर कोई कहानी मुक़्कमल नहीं होती!
यह प्रेम अल्हड़पन का प्रेम है। वही कशिश।वही कसक, करारापन। वही मुलायमियत।वही सादगी और वही स्वप्नधर्मिता वाला प्रेम। वैसे नायक ने दिल से ज्यादा अहमियत अपने दिमाग को दी। भावुकता के प्रवाह में बहा ज़रूर पर व्यावहारिकता के खूँटे से अपने आपको को बाँधे रखा। इसीलिये। उसने प्यार को महज भावना नहीं माना बल्कि उसे अपनी ज़िंदगी की सबसे बड़ी लड़ाई समझा, वो लड़ाई जिसमें सारी गुंजाइशें उसके खिलाफ थीं। तो फिर। तो फिर क्या वह इतना भी मासूम था! नहीं, पर वह लड़े बिना इत्मीनान नहीं कर सकता था।
'यह कहानी की भूमिका है'

स्निग्धा ने भौंहें नचाकर सिर हिला दिया।
‘यह कहानी काग़ज़ पर उतनी नहीं, जितनी मेरे दिमाग़ में है स्निग्धा, काग़ज़ पर तो अभी उतरनी है।’
मैंने पन्नों का पुलिंदा वापस रख दिया।
‘बेशक! तुम्हारी कहानी है।’
मुझे लगता है यह तुम्हारी ख़ुद की कहानी है’, उसने थोड़े से वक़्फ़े के बाद कुछ टोहने वाले अंदाज़ में कहा। मैं एक पल चुप रह गया था, जिसका उसने सही अर्थ लिया। उसकी आँखों में कोई सवाल चमका फिर बुझ गया, शायद मेरे प्रति उसकी कोई धारणा सच या झूठी हो गई थी।
मैं फिर भी उसके किसी सवाल से बचने के लिये बोलने लगा।
‘मैं उसे निहारता था और सोचा करता था, यही वह चेहरा है जिसके लिये मैं इतना तड़पता हूँ, जिसे इतना चाहता हूँ। और उसे मालूम नहीं।
बाद में मुझे लगने लगा था कि वह समझती है पर कुछ कहती नहीं। और उसने भी आखिर में कहा था, मैं समझती तो थी। फिर सोचा तुम ख़ुद संभल जाओगे, इसलिये टोका नहीं!
और सच, मैं उसे पाने की लड़ाई में अपने आप को झोंक चुका था। जानता था कि वह बेख़बर है लेकिन एक दिन जब वह मेरे पास होगी, मेरे साथ होगी और सिर्फ मेरी होगी तब, उसे बताऊंगा। सब कुछ। हर दर्द, जो उसकी ओर बढ़ने के लिये, उसके लायक बनने के लिये मैंने झेले। उस रोज़ कितना सुकून मिलेगा। ये सब तकलीफ़ें तब महज बीती हुई बातें होंगी। सारे दर्द भुला जायेंगे।
तो आकर्षण ही था वह। आकर्षण उसके गोरे-गुलाबी मुखड़े का, उसकी बड़ी-बड़ी गहरी भूरी आँखों का जो, जब वह खिलखिलाकर हँसती थी, मुस्काने लगती थीं। उसका घरेलू नाम ‘मीना’ था और मैंने शब्दकोश में उसका शब्दार्थ ढूँढ लिया--"मछली सी आँखें"। वह हँसी थी, जब उसे बताया था… ‘जानती हो?’
स्निग्धा के चेहरे पर उत्सुकता के साथ-साथ गंभीरता की लकीरें गड्डमड्ड होने लगी थीं।
‘फिर?’ अब वह उतनी उतावली नहीं लगी।
‘बहुत सी बातें हैं। यादें हैं।’ मैं यादों में से यादगारों को तलाशने लगा, ‘उस पर नीली ड्रेस बहुत भाती थी। एक थी उसके पास हल्के आसमानी रंग की, गले और हाथों पर सफ़ेद पट्टियाँ, ख़ास कढ़ाईदार। वह रंग मुझे इसलिये भी आज भी पसंद है। उस रोज़ उसमें बहुत सुंदर लग रही थी वह। बिल्कुल क़रीब से देखा था मैंने। वह ख़ूबसुरती जो आज तक भीनी-भीनी ख़ुशबू की तरह मेरे अंदर बसी रही है।
मेरी एक कविता सुनकर जब उसने कहा था, ‘मैं इतनी सुंदर हूँ क्या?’
‘तुमसे ज़्यादा सुंदर मैंने किसी को देखा ही नहीं।’
‘ओ, तुम पागल हो’, वह हँसी थी। उसकी हँसी सीधे दिल में उतर जाती थी। मतवाली नदी की तरह कल-कल करती हुई। उसकी वह हँसी सुनने को कितना जी चाहा करता था।’
‘इतना प्यार करते थे उससे।’ स्निग्धा एकटक मुझे देख रही थी।
‘पता नहीं’ मैं हँसा।
स्निग्धा हँसने लगी। फिर शांत हो कर मेरे पीछे फ्रेम में लगी तस्वीर की ओर देखती रही।
‘उसी की है न?’
‘हाँ।’
‘तुमने ख़ुद किया था?’
‘हूँ’
‘बहुत ख़ूबसूरत है। वह भी, और तुम्हारी स्केच भी।’ स्निग्धा अपनी उँगलियाँ दाद देने वाले अंदाज़ में लहराते हुए बोली।
‘हाँ, क्योंकि जिसकी है वह वाकई में ख़ूबसूरत है’ मैं अपने चेहरे पर हल्की मुस्कान को खींचने से रोक नहीं सका था।
‘उसे दिखाया था कभी?’
‘हाँ, और एक कॉपी भी दी थी।’
‘क्या कहा था उसने?’
‘ठीक से याद नहीं पर मैंने कहा था, जब तुम बड़ी हो जाओगी तो ऐसी ही लगोगी।’
‘हाँ, साड़ी में जो है।’
‘वैसे ये उसे देखकर नहीं बनाया था। बस अख़बार में एक स्केच देखी, बिल्कुल उसी की सी लगी तो नकल कर ली थी।’

स्निग्धा खिड़की तक जाकर बाहर झाँक आई, ‘बारिश थमेगी नहीं आज’ यह शिकायत नहीं थी, मैं समझा।
वह मुड़कर मुझे देखती हुई वहीं दीवार से सट कर खड़ी रही। ‘तुम दोनों मिले कैसे थे?’ उसका सवाल वहीं से आया था।
‘वह मुझे वसंत में नहीं मिली थी, सावन और जाड़ों में भी नहीं। जब मैं उससे मिला था, वह कौन सा मौसम था क्या पता?’
स्निग्धा ने फब्ती मारी, ‘वाह! क्या शायराना अंदाज-ओ-अल्फ़ाज हैं’
‘हम साथ में कंप्यूटर ट्रेनिंग करते थे। लेकिन इतने दिनों तक मिलते रहने के बाद भी मै उससे से ‘मिला’ नहीं था। शायद वह इत्तिफाक़ का दिन था कि मेरे एक मज़ाकिया जुमले पर वह जोर से खिलखिला कर हँस पड़ी थी। बस उसकी वही तस्वीर मेरे ज़ेहन में रह गई। बस यही शुरूआत थी। दोस्ती की…दिल में एक सुगबुगाहट के साथ, जब ये सोचा कि अगर वो मेरे साथ आयेगी मेरे घर तो, पड़ोस के सारे लड़के जल जायेंगे। उसी एक पल की स्मृति मेरे भीतर प्रेम। या कहूँ उससे लगाव, के बीज बो गई। बाद में इस दरख़्त को मैं सींचता रहा। संवारता रहा। जब वह आती, मेरे सामने बैठी होती, मुझे बहुत अच्छा लगता। बहुत सुहाना। गुदगुदाने वाला एहसास।
एक जुनून सा मुझ पर हावी होने लगा था। जिसमें एक तरफ खुशी थी तो दूसरी तरफ डर। उसे पल-पल पाने की चाह, पल-पल खो देने का खौफ़। पर सच मानो यह डर ही मुझे प्रेरित करता था कि मैं आगे बढूं, लड़ूँ और अपना प्रारब्ध बदल दूँ। मैं कैसे ये ज़ोर लगाकर कह सकता था कि मुझे तुम्हें पाना है क्योंकि मेरे पास क्या था। केवल ममता, केवल मन। मैं आर्थिक तौर पर उसके लायक नहीं था। फिर उसके माता-पिता ने जो खुशियाँ अपना बेटी को वास्ते चाहीं होगी, मैं उस कसौटी पर कहाँ उतरता था? फिर मैंने तब सिर्फ दैहिक रूप से ही पा लेने को प्रेम नहीं कहता था। केवल प्यार हो जाने को ही, इस भावना को ही सर्वस्व मानता था। रास्ता मैंने खुद निश्चित किया था,उस पर चल पड़ा। इस ख़ूबसूरत उम्मीद के साथ कि जब यह रास्ता तय कर लूँगा, जब मेरी लड़ाई मुक्कमल होगी। मैं उसका हाथ थामें राहत का एहसास कर रहा होऊँगा, उसकी गोद में सिर रख दूँगा और इस सफ़र की सारी थकान काफ़ूर हो जाएगी।
मैं उसे देखते हुए यह महसूस करता था कि सचमुच उसके जैसी ख़ूबसूरत कोई नहीं।’
‘वह भी तुम्हें चाहती थी?’
‘नहीं’ मैं नि:संग था, ‘हाँ सच में वह मुझे नहीं चाहती थी। वह पड़ोस के किसी से प्यार करती है, ये बहुत पहले ही उसकी एक सहेली ने मुझे बता दिया था।’
स्निग्धा के चेहरे पर अजीब सा भाव आया और चला गया।

‘मैं सोचता हूँ कि प्यार करते समय हम ये नहीं सोचते हैं कि सामने वाला भी हमें प्यार करेगा, हम उसे पा ही लेंगे। प्यार तो बस हम कर बैठते हैं, करते जाते हैं। आखिर भावना के इस खेल में भौतिकता का क्या स्थान? लेकिन पता नहीं…
जब उसने कहा था कि ‘छमाही कोर्स के बाद छोड़ दूँगी’ आगे बढ़ाने का इरादा नहीं था उसका। एकाएक नींद से जागा था मैं। मानो यह समझे बैठा था कि यह सिलसिला कभी ख़त्म ही न होगा या ये भुलाए बैठा था कि एक ऐसा दिन भी आने वाला है। मैं उसे रोकना चाहता था लेकिन कई बातें थीं, जो मुझे रोकती थीं। उसकी दोस्ती खोने का डर। अपनी हैसियत का सवाल। इसलिए मैं उससे इज़हार के लिए सही समय। और अपने को इस लायक होने की प्रतीक्षा के सिवा कुछ भी नहीं कर सकता था। यही मेरी व्यावहारिकता थी,कह ही चुका हूँ कि यहाँ प्रेम में भावुकता से ज़्यादा व्यावहारिकता को तरजीह दी थी मैंने।
…पर दिल भीतर ही भीतर रोने लगा था।
आखिर वह चली गई, रुकी नहीं। मैं रोक न सका और ना उसके लिए लिखी विदाई की कविता उसे देने का मौक़ा ही मिला। मैं यह भी नहीं कह सका कि मुझे छोड़कर मत जाओ। न उसके देखे दो बूँद आँसू ही ढुलका पाया। कमबख़्त आँखों के कोनों तक आ कर ठहर गए। ‘तुम्हारी आँख इतनी लाल क्यों है ?’ उसने पूछा था बस की खिड़की से। ‘ऐसे ही।’ मैंने मुस्करा दिया था। और आज तक इसका मलाल है कि क्यों मैं उसे अपने आँसू न दिखा पाया। वह भी मुस्कराई और मैं मुड़ कर चलने लगा। और आँखों के बाँध खुल गये। घर लौटते हुए तीन किलोमीटर का रास्ता मैंने रोते हुए काटा था। उस एक वक़्त ऐसा लगता था कि जैसे मेरी दुनिया लुट गई। मेरा सब कुछ ख़त्म हो गया था। मेरी सारी उम्मीद, सारा भरोसा, विश्वास टूट गया था। ईश्वर पर जो आस्था लायी थी, जिसका वो एक कारण थी, वह चूर हो गयी।
‘पर तुमने उसे कहा क्यों नहीं’ स्निग्धा की आवाज़ में उदासी थी।
‘कैसे कहता। वह नाराज़ हो जाती तो अपनी दोस्ती भी ख़ो बैठता। यही डर था और तब फिर कोई राह भी तो न बचती। प्यार था। बहुत प्यार। लेकिन उसे अपनी ज़िंदगी में लाने के लिये सिर्फ जज़्बात ही तो काफी नहीं थे, मुझे अपनी ज़मीन भी बनानी थी। और मैं जुट गया। साथ में उसकी प्रेरणा थी, यादें थीं। उसकी हर छोटी-छोटी बातें, उसकी हँसी, उसका नाम, उसकी आवाज़। उसका रूप, कपड़े। दुपट्टा, कान की रिंग, मेंहदी रची उँगलियाँ। उसका स्पर्श। सबकुछ। उसका हर रूप, हर पहलू मेरी ज़िंदगी में, मेरे जिगर-ज़ेहन में, मुझमें, अपनी मुख़्तसर सी वो जगह बना चुके थे कि उसके अलावा मेरे लिये और कुछ नहीं था। मैं अपने आप से बोलता हुआ उससे बातें करने लगा।
मेरी भावनाएं गहरी होती गईं, कमाल यह कि मैं जानता था कि मेरा यह शग़ुफा हमेशा एकतरफा है। वह मुझसे प्यार नहीं करती, बल्कि किसी और को पहले से चाहती है। मगर मैं सोचता था कि मैं उसे किसी और से ज़्यादा प्यार करता हूँ।
वह प्यार करेगी मुझसे। कभी-कभी उसकी बातों से भी यह खुशफहमी होती थी।
याद आता है उसने पूछा था, ‘दिल की बात है न ?’ मेरी ताज़ी कविता उसने पढ़ी थी, जो मैं उसी के लिये लिखता था। मगर उस वक़्त तक खुलकर कहा कहाँ था!
‘तुम्हें क्या ग़म है’
‘बस। यही कि अकेला हूँ।’ मेरे मुँह से निकला था।
‘मगर मैं तो हूँ।’ उसने तुरंत सुधारा, ‘हम सभी तो हैं।’
इसके बहुत दिनों बाद उसे फ़ोन पर कविता सुनाने के बाद मैंने कहा था, ‘जानती हो यह मैंने तुम्हारा लिये लिखा है।’
‘क्यों और कोई भी तो हो सकता है।’
‘हो सकता है, मगर वो कहते हैं न, कोई एक ही ख़ास होता है।’

‘प्रेमी को हमेशा ऐसा लगता रहा है कि जैसे वह उसके उसके हाथों को थामे सामने बैठी है। उसने उसके पंजों में अपनी उँगलियाँ फँसा रखी हैं और उससे कहा है कि अपनी आँखें बंद कर ले।
प्रेमी का दिल धड़क रहा है। उसकी गर्म साँसें उसके गाल पर फिसलने लगीं, उसके कानों में धीमी सी सरगोशी होती है, ‘प्यार करते हो मुझसे?"
कैसा सवाल था। कैसा जादू था। वह बुदबुदाता है ‘हाँ। बहुत"
वह उसके होंठों को चूम लेती है। प्रेमी झट से आँखें खोल देता है। सामने उसकी बड़ी-बड़ी पलकें अधमुँदी सी हो रही हैं। वह उसे अपने बाहों में भींच लेता है।

स्निग्धा को देखता हूँ। तो वह नज़र चुरा लेती है।
"क्या हुआ?"
"कुछ नहीं। तुम भी। "उसने अधूरा छोड़ दिया।
मुझे कुछ याद आ गया। "जानती हो स्निग्धा, एक बार उसने मुझसे पूछा कि एक दिन दोस्तों में सुनाई वह कविता मैंने किसके लिए लिखी थी। मैंने कहा,दरअसल जिसके लिए लिखा वही मुझसे बार-बार पूछती है कि किसके लिए लिखा। तो वह भी इसी तरह शर्माकर बोली थी, ‘भक्ख्। तुम भी। कुछ भी बोल देते हो!’
पर सचमुच,मैंने शायद ऐसा कोई सपना देखा भी नहीं होगा। सिवाए उसे आलिंगन करने के। 

फिर, फिर नदी, पेड़, पहाड़, पत्थर और रास्ते साथ बोलने लगे।

नदी की कल कल करती धारा, पहाड़ों का रंग। उनके पीछे लाल गोले का ढुलकना और सुनसान रास्तों पर अकेले टहलना। कभी साईकिल उठाकर 10 किलोमीटर पहाड़ और खेतों के बीच से हाईवे पर यूँ ही चक्कर लगाना, भोर-दोपहर-साँझ, सर्दी-गर्मी-बरसात, कोई भी वक्त कोई भी मौसम साथ होती थी उसकी चाहत, उसके लिये मेरे संकल्प। क़ुदरत की ढेर सारी नेमतें, रौनकें और ख़ुबसूरत ज़ज्बातों में ग़ाफिल एक झूमता हुआ दिल जानकर उसने एक बार मुझे पागल कहा था, हाँ। मैं था। मैं मानता हूँ, माना था।
किसी रोज़ रास्ता उस लड़के से पूछता था, ‘जीत सकोगे?’ और वह हँसकर ज़बाव देता, ‘कोशिश तो कर ही सकता हूँ। जीत-हार क्या’
रास्ता मग़र संज़ीदा हो जाता, ‘मारे जाओगे’।
वह और भी उत्साह से कहता, ‘बिना लड़े मैदान छोड़ना सबसे बुरी मौत है। तब तुम्हारा वज़ूद मरता है। आत्मसम्मान मरता है।’
जब पहाड़ों की श्यामल श्रृंखलाऐं शुरू हो जातीं, साईकिल के पैडल और चैन-रिंग का शोर उभरने लगता और हवायें देह से लिपटने लगती। पहाड़ की भारी आवाज़ गूँजती, ‘तुम प्यार करते तो हो, पर वह नहीं करती?’
‘तो क्या हुआ! प्यार करने की कोई ऐसी शर्त है क्या?’
‘तो फिर इसका फायदा?’
‘फायदा, नफ़ा-नुकसान क्या यार! किसी से प्यार हो जाना वही सबसे ख़ुबसूरत बात है।’
 नदी उसे अपना रेतीला आँचल बिछाकर सुला लेती, दुआएँ देती, उसके वे राज़ बाँटती, चुलबुली सी हँसती और वह उसके गीले बाँहों में बच्चे की तरह किलकारियाँ मारता समा जाता। 

वह फ़रवरी की एक आम सुबह थी। हल्की सी ठंडक और ताज़गी लिए हुए और फ़ोन पर उसके जन्मदिन के लिए लिखी मेरी आत्मीय कविता सुनकर उसकी ठंडी आवाज़ थी, ‘तुम ग़लत समझ रहे हो।’
‘मैं तो इसे (प्यार को) ग़लत नहीं समझता।’
‘मैं किसी और से प्यार करती हूँ।’
‘मगर मैं भी तुम्हीं से प्यार करता हूँ।’ मैं यही कह सकता था, मुझे अपने हिसाब से समय से पहले कहना पड़ा था, मैंने इसे निर्णायक क्षण माना था।
‘भूल जाओ’
मगर मैं उसे कभी भूला न पाया। भूलाना चाहा भी नहीं। मानसिक-आध्यात्मिक रूप से वह मेरी प्रेरणा और शक्ति बनी रही है।
मेरे उसी दोस्त पेड़ ने मुझे तब यह कहा था जब, उसकी शादी हो चुकी थी। भारतीय वायुसेना के पायलट के साथ उसकी दुनिया बसाई जा चुकी थी। उसकी बारात उसी रास्ते से होकर गई थी जिस पर  हमेशा  आधी दूरी तक जाकर मैं लौटता रहा। उसी सड़क के किनारे खड़ा मेरा दोस्त, सैकड़ों शाखाओं, लाखों पत्तों और हजार वर्षों की उम्र वाला।उसने कहा था जब, मैं अपने उस अंतरंग को छूकर अश्रुमय विदा माँग रहा था कि अब न आऊँगा फिर कभी। दरख़्त कह रहा था, ‘ये तो होना ही था। ऐसा ही होता है। तुम थे ही क्या, क्या हो? कलम घिसने वाले, स्वप्नद्रष्टा, कल्पनाजीवी…यही तो दुनिया तुम्हें समझती रहेगी। तुम्हारी औकात क्या थी!’ पर प्यार प्यार होता है, बस ईमानदारी होना चाहिए, ग़लत कुछ भी नहीं होता। न सपने देखना, न उन सपनों के लिये कोशिश करना। प्रेम मिले तो जीवन बदल देता है। न मिले तो भी। लेकिन वह बहुत सुंदर होता है।
कितनी तक़लीफ होती थी यह सोचकर कि मैं उसे इतना चाहकर भी खाली हाथ रह गया और जिसने कभी ख़्बाव में भी उसकी कल्पना न की होगी, वह अजनबी उसे पा गया। मुझे हमेशा यह अफ़सोस रहेगा कि उसे यह समझा या विश्वास दिला ही नहीं पाया कि मैं उससे कितना प्यार करता हूँ।
आज इस कहानी का पहला कच्चा ड्राफ़्ट पूरा रहा हूँ स्निग्धा, जब उससे बिछड़ने के सात साल पूरे हो गये। 12 सितंबर। यही तारीख़ थी वह। 1997’

स्निग्धा सामने बैठी थी। मेरे साथ उसने भी यादों और ज़ज्बातों का अच्छा-ख़ासा सफ़र तय कर लिया था। और मेरी उम्मीदों के खिलाफ़ खामोश थी वह मेरी ओर देखते हुए…
‘स्निग्धा, ज़िंदगी खुबसूरत होती है। बहुत खुबसूरत  और प्यार, प्रेम,इश्क,मोहब्बत।लव। इस दुनिया को जीने लायक बनाते हैं।जीने की चाहत जगाते हैं। आज मैं सोचता हूँ, प्यार सिर्फ दुख देने के लिये या दुख में जीवन समाप्त कर देने के लिये तो नहीं है। मैं ज़िंदगी को जीना चाहता हूँ।’ मैंने झेंप के साथ ही अंदर कहीं एक अनकही सी ताकत भी महसुस की थी। ‘एक बात सच कहूँ प्यार और वासना में बहुत फ़र्क है। उसे चाहते हुए कभी भी मेरे मन में उसकी देह के प्रति उत्सुकता नहीं जागी। सच कह रहा हूँ। उसे हमेशा बस बेहद चाहा और कहते हैं न पूजता रहा लेकिन आज न जाने कैसे मुझे भावना के अतिरिक्त देह की भूख भी सताने लगी है। विरक्ति तो शायद कभी नहीं थी पर अब आसक्ति सी होने लगी है। क्या प्रेम एक उम्र के बाद सिर्फ़ देह रह जाता है? भावना नहीं’
‘नहीं, बल्कि मैं समझती हूँ, आदमी में ये दोनों लाज़मी हैं, क्या यही उसके ज़िंदा होने को साबित नहीं करता।’ स्निग्धा ने मेरी आँखों में देखा।
‘स्निग्धा अब किसी का इंतज़ार करने का ख़्याल, फिर से एक साथ के बारे में सोच कर कितना अच्छा लगता है। मैं फिर से जीना चाहता हूँ। क्या मैं फिर से प्यार कर सकता हूँ क्योंकि मैंने माना था कि प्यार सिर्फ एक दफ़े होता है।’
स्निग्धा पलकें झपकाकर हल्का सा मुस्कराई। बाहर झाँका, बरसात पूरी तरह से रूक गई थी। उसने मेज़ पर से फ़ाईल उठाई, ‘चलूँ मैं’
साढ़े नौ बज रहे थे। मैं उठा, ‘ठहरो ज़रा साथ चलता हूँ।’
‘नहीं, कोई बात नहीं। उतनी देर नहीं हुई अभी’, वह मुड़ने लगी।
‘स्निग्धा। मैं चल रहा हूँ। दफ़्तर बंद करके निकलते हैं।’
हम पैदल कच्ची गली के कीचड़, कंकड़ और उठान पर आई नालियों को लांधते-फांदते चल रहे थे। स्निग्धा गुमसुम थी। ये गौर करने वाली बात थी। वह इतनी देर तक ऐसी रहती न थी, मैं जानता था।
‘क्या बात है, डर रही हो?’
‘उँह…डर किस बात का। घर फ़ोन तो कर दिया था।’
‘फिर ऐसी चुप?’
दो कदम बाद वह पीछे घूमी, एक गहरी साँस के साथ उसकी आवाज़ उभरी थी, ‘मुझे पसंद करते हो?’
मैं हठात् समझ न सका पर होंठ बड़बड़ा गये, ‘हँ।।हाँ मतलब?’
‘तुम कभी ख़ुद अपनी तरफ़ से नहीं कहोगे न।तुमसे पहल न होगा और तुम सोचते हो कि सामने वाला ही कुछ कहे तो कितना अच्छा हो। बुरा न मानना पर तुम सोचते बहुत हो, ठीक भी है, लेकिन कभी-कभी दिल की भी सुन लेनी चाहिए है न’
उस अंधेरे में भी मुझे उसकी आँखों में सात रंग लहराते दिखे। और सचमुच सात रंगों की बिजली चमकी थी। ‘सलिल, एकदम नहीं तो कुछ-कुछ "माणिक मुल्ला" की तरह, आदर्शवादी-सिद्धांतवादी…उसका एक और पहलू  हो तुम!’ वह हँस पड़ी, ‘तुम वह प्रेम कहानी अभी पूरी न करना, कर भी नहीं पाओगे। अभी उसमें तुम्हें बहुत कुछ जोड़ना है।’
अचानक उसकी हथेलियों की गर्मी मैंने अपने हाथों में महसुस की थी। ज़िंदगी की आँच!
ठीक उसी पल पता नहीं कैसे, पर ऐसा लगा…दूर कहीं वह दरख़्त हल्का सा झूम गया।


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