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Bharat Bhushan Pathak

Inspirational

5.0  

Bharat Bhushan Pathak

Inspirational

प्रतिफल

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अनुभव एक साधारण परिवार में पला-बढ़ा युवक था। उसके मन में बाल्यकाल(बचपन)से ही अन्तराष्ट्रीय अन्तरिक्ष अनुसंधान संगठन में काम करने की इच्छा बलवती हो (इच्छा रखना) गयी थी।

मित्रों संभवतः आपको यह विदित होगा(जानकारी होगी) कि आप जो कुछ भी पढ़ते हैं, उसके बारे में

सुनते हैं ,समझते हैं या घटित होते (होते) देखते हैं।

आप उसी के अनुरूप (के अनुसार) अपने आप को ढालने(बनाने) का प्रयत्न(कोशिश) करते हैं।

अनुभव भी संभवतः इसी नक्शे कदम पर (के आधार पर) ढलने (बनने की) की कोशिश कर रहा था।

बचपन में एक बार अनुभव ने डाॅ०अब्दुल कलाम जी की जीवनी को पढ़ा, बस फिर क्या था इस महामानव ने जीवनी रूप में ही सही अनुभव को प्रेरित कर दिया था।

अब अनुभव ने अपने मन में यह विचार कर लिया था कि उसे भी इस महामानव की भाँति ही अपने आपको आकार देनी है। इसके साथ ही प्रारम्भ हो गया अभिनव

की संघर्ष यात्रा।

दोस्तों यह बात तो हम सभी जानते हैं कि संघर्ष यात्रा इतनी आसान नहीं होती इसलिए अनुभव की संघर्ष यात्रा भी उतनी आसान नहीं थी। पहले तो उनकी लेखनी से अनुभव का घर प्रयेक मध्यम वर्गीय परिवार की भाँति ही चल रहा था,परन्तु इस लेखक के कलम से प्रकट हुई कहानी को किसी नकलची कलमकार ने चुरा लिया। उसके बाद उहोंने उस पर अपनी रचना के चुराने का दावा भी किया,परन्तु वो हार गए,जिसके फलस्वरूप अपने इस दर्द को बाँटने के लिए वो शराब का सहारा लेना प्रारम्भ कर दिए और उनके इस साथी ने उनका खूब साथ निभाया।

अनुभव के पिता ने शराब को पकड़ रखा था या शराब ने उन्हें जकड़ रखा था यह कहना थोड़ा मुश्किल है,लेकिन पिता तो पिता होते हैं दोस्तों। साथ रहते हैं तो आपको एक सबल मिलता है,चाहे वह जिस भाँति के भी हों।

पर मित्रों शराब एक ऐसी चीज है जो बड़े-बड़े शूरमाओं को भी मौत के आगोश में पहुँचाकर ही दम लेती है,इसने अपने फर्ज को बखूबी निभाई अनुभव के पिता को मौत के आगोश यानि कि यमराज के चौखट तक छोड़कर आ गयी।

दोस्तों संभवतः आपके मन में यह विचार आ रहा होगा कि एक रचना की चोरी से क्या कुछ खास हो जाता है,पर

मित्रों एक रचनाकार की रचना मात्र उसकी रचना नहीं उसकी सन्तान होती है। क्या कोई पिता अपने पुत्र चाहे वह जैसा भी हो भला क्या उससे दूर रह सकता है नहीं न!

एक रचनाकार की रचना उसकी आत्मा होती है ? क्या कोई शरीर आत्माविहीन रह सकता है नहीं न!

संभवतः अब आप अपने इस प्रश्न का कि एक रचना की चोरी से क्या हो जाता है भला,यह भली-भाँति अब समझ पाएंगे। पर साथ ही यह उसके पिता के द्वारा की गयी बहादुरी नहीं,अपितु बुश्दिली ही कही जाएगी क्योंकि

मित्रों एक रचनाकार कभी मरता नहीं क्योंकि वह स्वयं जीवन संचारक ( जीवन का निर्माता),एक ऊर्जा है जो सर्वदा साहित्य को प्रकाशित करता है, वह एक अक्षयपात्र (कभी न खाली होने वाला) है जो साहित्य की पिपासा(प्यास,thirst)व क्षुधा(starvation,भूख) को अन्नत काल तक शान्त करता रहेगा।

उनके देहावसान(मृत्यु) के बाद अपनी बूढ़ी माँ और अपने पाँच भाई -बहन के लालन पालन का सारा भार अनुभव के कंधे को ही उठाना पड़ा,जिसके परिणामस्वरूप अनुभव अब अपनी इच्छाओं को अतीत में देखे गये एक सपने की भाँति ही विस्मृत करने लगा था। साथ ही उत्तरदायित्व ने उसके कंधे को तोड़ने की रणनीति(योजना,उपाय,strategy) भी निर्धारित कर ली

थी। अनुभव दिन में ऑटो रिक्शा और रात्रि में रात्रि प्रहरी(night guard) का काम करना प्रारम्भ कर दिया था। उसने इस तरह से अपने परिवार को संभाल रखा था,

क्योंकि इच्छाओं की चीख मजबूरियों की चीख से अधिक होती है मित्रों..

संभवतः(perhaps)इसी चीख ने अनुभव की इच्छाओं को दबा दिया था आज...वह दिन -रात किसी मिटृी की चाक की भाँति ही अपने परिवार की आवश्यकताओं की

पूर्ति के लिए अब मात्र गतिशील रहने लगा था, कभी-कभी यात्रियों को गंतव्य(पहुँचने का स्थान) पर छोड़ने के बाद वह कभी-कभी संकेत काका के यहाँ बैठकर चाय पीने बैठता तो अतीत के अंधकार में दबी इच्छा के कब्र से अनुभव को एक आवाज आ ही जाती थी, मानो अनुभव की अन्तरात्मा उससे आकर पूछ रही हो,"अनुभव आखिर कब तुम,तुम्हारी उन इच्छाओं का क्या ....

यह सोचते हुए ही अनुभव चाय को अनमने मन से पीकर वहाँ से निकलने को जल्दी में होता,क्योंकि इस

प्रकार सोचते रहने से अनुभव के सब्र का बाँध टूटने को होता,जो आँसूओं के रूप में बरबस ही अनुभव के आँखों

में आने-आने को थे।

इन आँसूओं को किससे छूपा पाता वो अपने उस संकेत

काका से जिनका नाम ही संकेत था तथा जो अनुभव के

आँसूओं के संकेत को बचपन से ही समझते थे।

संकेत वहाँ से उठा और जल्दी से अपने ऑटो रिक्शा में अपने आँखों में आए उस दर्द को छूपाते हुए उसे स्टार्ट करने का प्रयत्न करने लगा, तभी वहाँ उसे संकेत काका

आते दिखाई दिये,जिनकी वो बड़ी ही इज्जत करता था।

आते ही उन्हें देखकर अनुभव ने बड़े ही एक सधे हुए

कुशल कलाकार की तरह मुस्कुराकर उन्हें प्रणाम करते हुए बोला," ओ चाचाजी! प्रणाम कैसे हैं।

संकेत काका ने उसके प्रयुत्तर में सदा खुश रहो,खूब बढ़ो का आशीर्वाद देते हुए उससे बड़े ही स्नेहयुक्तभाव से

भरकर उससे कहा कि,"मेरे बच्चे अनुभव मैं मानता हूँ कि तुम्हारा नाम अनुभव है और थोड़े-बहुत तुम्हें तुम्हारे संघर्ष ने बना भी दिया है,परन्तु मुझसे अधिक नहीं। " बेटा ये बूढ़ी आँखें झूठ न बुलाएं तुम अभी रो रहे थे और किसलिए यह भी मुझको पता है।

बचपन से तुम्हारे सपने ने कभी तुम्हें सोने न दिया और आज भी कभी-कभी तुम उन्हीं सपनों के बारे में सोचकर तड़प उठते हो।

वह अब महसूस करने लगा कि अब उसकी चोरी पकड़ी गयी है और फूट पड़ा उसके मन में भरा गुबार का अम्बार। उसने संकेत चाचा से बिल्कुल ही रून्दे कण्ठ से कहा कि जी चाचा आपने सही कहा कि आपकी आँखें धोखा नहीं खा सकती और वह अपने ऑटो से उतरकर पास में बने सिमेन्ट के बैठने के स्थान पर धम्म से जाकर बैठ गया,जो कि संकेत काका के चाय के दूकान के सामने ही थी। संकेत काका की चाय की दूकान एक

पिकनीक स्पॉट(वनभोज का स्थान) के बीच में बने गार्डन में थी। उसी के बगल में बैठकर संकेत काका ने उसे गले से लगाते हुए कहा कि मेरे प्यारे बच्चे तुमने आदरणीय कवि प्रखर हरिवंशराय बच्चन जी की ये कविता तो अवश्य पढ़ी होगी,"कि कोशिश करनेवालों की कभी हार नहीं होती। " उसने बिकुल झुँझलाते से उनसे कहा कि चाचा ये सब कहानी,कथा और फिल्मों में ठीक लगती हैं वास्तविक जीवन में ये कविताएं उस भाँति की हैं जिस भाँति की किसी बेकार फिल्म की कथानक(script)होती है।

उसके इस प्रकार कहने से उन्हें गुस्सा नहीं उसकी चिन्ता होने लगी थी कि वह अपने आप को कहीं खो न दे। उसके बोलने के अन्दाज से नकारात्मकता(negativity)प्रत्यक्ष हो रही थी।

उसके बाद संकेत उन्हें प्रणाम बोलकर चल दिया स्वयं को जला अपने घर को रोशन करने निकल पड़ा,क्योंकि रात जो होने वाली थी और अब उसके पहरेदारी करने की बारी थी। हाँ अनुभव ने अपने इस भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान वाले सपने को भूला जरूर दिया था।

परन्तु उसने इसे थोड़ा ही सही मगर दिल में जगाकर रखा था, वह लगभग मध्यरात्रि 12ः30 में घर पहुँचकर खाना खाने के बाद अपने कमरे में जाकर अपने इस सपने के दिये की लौह में थोड़ा ही सही अपने परिश्रम के तेल का छिड़काव करता रहता था,जिससे कि वो इसे प्रकाशित कर सकने में कुछ सालों के बाद ही सही सम्भव हो पाए।

अनुभव के इस स्वप्न चिड़िया को पंख लगाने में उसका यह परिवार भी साथ देने का हरसंभव प्रयत्न करता था।

वह जब 12ः30 बजे मध्यरात्रि को थक हारकर पहुँचता तो माँ और उसकी पाँच बहनें उसे कुछ खिलाने के लिए

तैयार बैठी रहती थी।

दोस्तों ऐसा हो भी क्यों न जिस दीपक ने स्वयं को जला इन सभी के जीवन में प्रकाश कर रखा था क्या

उसे रोटी का एक निवाला भी न मिले तो फिर क्या इस महातपस्वी की तपस्या का अपमान न होता।

मित्रों किसी ने ठीक ही तो कहा है:-

खुद को जला दे मगर जमाने को रौशन कर।

माचिस तू वो बन ऐसी जो खुद को मिटा

मगर जमाने को बेजान न तू कभी कर।।

यही तो कर रहा था और अबतक करता आ रहा था अनुभव अपने सपने को आग लगाकर सबको रौशन कर रहा था वो....

खैर दोस्तों किसी ने साथ ही यह भी तो कहा है जिसका कोई नहीं उसका तो खुदा है यारों..

अनुभव के लिए अगली रात शायद ऐसा ही कुछ समाचार लेकर आनेवाला था जिसके बाद उसकी जिन्दगी ही बदल जाने वाली थी। अब उसे उस परमपिता परमेश्वर की असीम अनुकम्पा कहिये या उसका वो दीपक की भाँति जलने के बाद किया गया जी -तोड़ परिश्रम,उसका आज इन्तजार खत्म होने वाला था उसे या पता था कि वो इतनी जल्दी ही अपने सपने को सच होता देख पाएगा।

सुबह होते ही वह अपना ऑटो रिक्शा लेकर अपनी संघर्ष यात्रा की ओर निकलने ही वाला था कि तभी

डाकिया जो डाक लेकर आया था आते ही उसने पूछा कि

अनुभव से ही पूछा कि अनुभव जी का घर कहाँ है तथा वो कहाँ मिलेंगे। उसके यह बतलाते ही कि वह ही अनुभव है,उसने उसे एक कागज दिया जो संभवतः कोई सरकारी दस्तावेज थी और उसमें भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन का पता व मुहर लगा हुआ था।

वह उसे हाथ में ले तो लिया पर असमंझस में ही सही उसने खोलकर उसे पढ़ा जिसमें लिखा हुआ था कि जो

उसने अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन की परीक्षा 2008 में दी थी,उसमें उसका चुनाव हो गया है और उसे कल ही भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन जाकर अपने

असिटेन्ट साइंटीस्ट पद को ग्रहण करना है।

उसके बाद अनुभव की संघर्षयात्रा का अन्त हो चुका था और उसे सोहन लाल द्विवेदी जी की ये कविता याद आने लगी थी कि:-

कोशिश करनेवालों की कभी हार नहीं होती

लहरों से डरकर नौका कभी पार नहीं होती।

नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,

चढ़ती दीवारों पर,सौ बार फिसलती है।


मनों का विश्वास रगों में साहस भरता है,

चढ़कर गिरना,गिरकर चढ़ना न अखरता है।

आखिर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती

कोशिश करनेवालों की कभी हार नहीं होती।


डुबकियाँ सिंधु में गोताखोर लगाता है,

जा जाकर खाली हाथ लौट आता है।

मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में

बढ़ता दुगुना उसाह इसी हैरानी में।


मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती

कोशिश करनेवालों की कभी हार नहीं होती।


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