क्या कहूँ
क्या कहूँ
"अरे ! उर्मि सुना उस पगली जिसे तू अक्सर घर बुलाकर खाना खिलाया करती थी, उसे कल रात लड़का हुआ और खुद सड़क पर मरी पड़ी मिली।" पड़ोसन स्नेहा की आवाज सुनकर मै एकदम चौक गयी। छः महीने के बाद कल शाम को ही तो में ससुराल के गांव से वापस आई थी, क्युंकी मेरी सास को लकवा हो गया था। धीरे से मुझे वो पगली याद आई। न जाने हमारे मौहल्ले में कहा से और क्युं आई थी, विक्षिप्त बिखरे बाल, न शरीर और न कपड़ो का कोई होश। न जाने क्यूं। मन दुखता उसे युं देखकर इसी लिये तो घर से पुराने कपड़े लेकर उसे पहनाती ताकी उसका शरीर ढका रहे। मैं ये सोचने पर मजबूर हो गयी न यौवन न सुंदरता न प्रेम करने की समझ थी उसे फिर ये बच्चा ! क्या हवस मानवता पर इस कदर हावी हो गयी है।