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जिन्दगी के रुप

जिन्दगी के रुप

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अब तो उम्र का मोड़ है प्रभु जैसा रखेगा स्वीकार है। प्रभु लाल जी ने अपनी नियति स्वीकार ली थी मानो। अपना घर उन्हे रास आने लगा था। कम से कम बेटे के घर से तो लाख दर्जे अच्छा था। जहाँ उनकी सांसों का भी हिसाब रखा जाता था।

"इतने बुढ़ापे में भी चार चार रोटी ढकोस लेते है। बढ़िया पाचन शक्ति है। हमसे तो दो ही नहीं पचती।" बहू बढ़ा चढ़ा कर उनकी रोटियाँ गिनाती पति को।

"अपने कपड़े भी ठीक से नहीं रखते। फ्रिज में मिठाई थी। कहाँ चली गई"

"चटोरा पन गया नहीं इनका।"जबकि वो अच्छे से जानती थी की मिठाई उसके बच्चों ने ही साफ की है। एक दिन की बात हो तो ठीक। रोज़ की ही लानत, मलानत। कब तक अपने ही घर में बेगानों की तरह रहे। बेटा भी नालायक है। अपना ही माल खोटा हो तो क्या करे। बहू तो फिर पराये घर की है।

उस दिन तो गज़ब हो गया, बहू के कुछ रुपए , उसे मिल नहीं रहे थे, बस चिल्ला चिल्ला कर कहने लगी-रुपयों को कोई धरती या आसमान तो खा नहीं जाएगा। बच्चों ने लिये नहीं। तो घर में हम तीन लोग है। तुमने लिये नहीं। मेरा प्रश्नन ही नहीं उठता तो बचे तुम्हारे पिताजी, उन्हे क्या कमी रखते है हम लोग जो रुपये चुराने लगे। इतना झूठा इल्जाम। क्रोध, घृणा, ग्लानि से भर गये। प्रभु लाल जी।

घर छोड़ दिया। अपना घर, जहाँ उनकी ही तरह परिवार से सताये, या जो भरी दुनिया में अकेले थे, यहां रहते थे। प्रभु लाल जी ने आश्रय लिया। यहांं वे लाचार, बूढ़े कमजोर नहीं थे। व्यवस्था देखते थे आश्रम की। एकाउन्ट संभालते थे। सुबह सब योग करते, शाम को सहित्य, समाज, राजनीति पर चर्चा होती।कोई अस्वस्थ होता तो सभी मिलकर उसकी देखभाल करते। सच ये उन्हे अपना घर लगता।

"प्रभु लाल जी आपसे कोई मिलने आया है। अपने को आपका बेटा बता रहा है" सुबह सुबह ही आश्रम के केयर टेकर ने आकर बताया।

"अरे हरि तुम? कहो कैसे आये"

"बाबूजी आप बिना बताये घर से निकल आये। कितना खोजा आपको। घर चलिये, आपकी बहू बहुत शर्मिंदा है।"

"तुम्हें पूरा साल लग गया मुझे तलाशने में। एक ही शहर में रहकर भी। खैर किस काम से आये हो कारण बता दो।"

"मैं और आपकी बहू चाहते है की घर का रिनोवेशन करवा ले। कितना खस्ता हाल हो रहा है। और एक कमरा आपके लिये भी बनवा ले आपके सुविधा युक्त। आप हमारे साथ रहे। इन सबके लिये पैसों की जरुरत पड़ेगी। क्यों न हम खेत बेच दे। कागज़ पर आपके साईन लगेगें"

प्रभु लाल हँस पड़े। "तो ये बात है। इसलिये पिता याद आयी, पर बरखुरदार खेत तो मैंने बेच दिया है। उसका कुछ पैसा मैंने आश्रम मे दान कर दिया है।और कुछ भविष्य के लिये रखा है अपनी बीमारी हारी और अन्तिम संस्कार के लिये"

हरि लाल को ऐसी उम्मीद नहीं थी। उठ कर जाने लगा। प्रभु लाल ने उसे रोका कहा--रुको हरि, शायद तुम्हें बड़ा करने में ही कहीं मुझसे चूक हुई। बिन मां के बच्चे को अतिशय प्यार दे दिया मैंने।

मैं तुमसे, और बहू से नाराज़ नहीं हूँ। मेरे पास जो शेष रकम बची है, उससे तुम आराम से घर का रेनोवेशन करवा सकते हो। वो रकम मैं तुम्हें दे रहा हूँ ।और सुनो मेरे लिये वहाँ कमरा बनाने की जरुरत नहीं। मैं यहाँ खुश हो। बहू और बच्चों को मेरा आशीर्वाद कहना।

हरि ने पिता के पैर छुए। प्रभु लाल जी ने सजल आँखों से आशीर्वाद दिया।



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