लघुकथा - अव्यक्त भाव
लघुकथा - अव्यक्त भाव
"आपकी माँ खुद से ही क्या बातें करती रहतीं हैं? जब देखो तब बड़बड़ाती हुई घूमती हैं।" परेशान-सी मैंने यह सवाल राघव पर दाग दिया।
"आपकी माँ नहीं, हमारी माँ कहो ... क्या माँ की ममता में तुम्हें इन दो महीनों में कोई कमी लगी? जो तुम माँ को अपना नहीं पाई!"
मैंने सकपकाते हुए कहा, "नहीं-नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं है ... बस मम्मी बड़बड़ाती रहती हैं अकेले में तो मुझे लगा कुछ मानसिक परेशानी है क्या?"
राघव ने मेरा हाथ पकड़ते हुए बैठाया और कहा, "शुचि, माँ एकदम ठीक हैं। उन्होंने मुझे वह सब कुछ दिया जिसकी एक बेटे को जरूरत होती है। वह मेरी हर इच्छा की पूर्ति के लिए पापा व समाज से लड़ीं लेकिन खुद के लिए कभी नहीं बोलीं। पापा के गुस्सैल स्वभाव के कारण वह स्वयं को कभी व्यक्त न कर पाईं और अपनी अव्यक्त इच्छाओं को समय-समय पर दबाती हुईं इतनी एकांतप्रिय हो गईं कि जब अकेली होतीं तो स्वयं से ही बातें करना शुरू कर देतीं।"
कहीं खोते हुए से राघव आगे बोले, "तुम्हें पता है शुचि. ..मानव स्वभाव होता है कि जहाँ उसे मौका मिले वह उन्मुक्त गगन में अपने मन की इच्छाओं को उड़ान देता है। देखे गए सपनों को हकीकत में बदलता है लेकिन जब उसे उड़ने से या व्यक्त होने से रोक दिया जाता है तब मन कुंडली मार कर एक कोने में दुबक जाता है और गाहे-बगाहे वही दबी हुई इच्छाएँ शब्दों के द्वारा तर्क-वितर्क की कसौटी पर कसी जाकर उसे न्याय संगत ठहराने के प्रयास में लगी रहती हैं। यही सब माँ के साथ हुआ है। उन्हें अपने लिए एक साथी चाहिए और मैं मानता हूँ कि तुमसे अच्छा साथी माँ को कोई और नहीं मिल सकता। तुम उनको जितना प्रेम करोगी उसका दस गुना उनसे पाओगी।" कहते हुए राघव ने एक विश्वास मुझ पर डाली।
थोड़ी देर बाद मेरे कहे शब्दों पर पछतावा करती हुई चाय लेकर मैं मेरी माँ के पास खड़ी थी।