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Santosh Srivastava

Others

2.5  

Santosh Srivastava

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यहाँ सपने बिकते हैं

यहाँ सपने बिकते हैं

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भला सा नाम था उस फ्लाईओवर पुल का जिसके परली तरफ़ दो मंजिले मकानों की कतारें थीं, जिनकी बालकनियाँ पुल की तरफ़ खुलती थीं। शाम का समय, बेहद व्यस्त पुल...गहराते आसमान में ध्रुवतारा चमक रहा था और ऐन सामने थी उसकी बालकनी जिसके सामानांतर बिजली के तार पर एक टूटी पतंग लटक रही थी। दो बटा छब्बीस। हाँ, यह नंबर है उसके मकान का। मिथिलेश दयाल ने पत्रकारिता का अपना झोला कंधे पर सीधा किया और घंटी के बटन पर उँगली रख दी। क़दमों की आहट और चूड़ियों की खनखनाहट ने मिथिलेश को मजबूर कर दिया कि वह अपने माथे और होठों के ऊपर आये पसीने को पोंछे, अपनी सफ़ल पत्रकारिता पर मिथिलेश को शक न था पर इस इलाके में आना और एक कॉल गर्ल का साक्षात्कार। उसका पहला अनुभव था। दरवाज़ा खुला- “आप अखबार से आई है?”

“जी। मिथिलेश दयाल।”

“आइए। अंदरआइए।” बादामी चिकन के सलवार कुरते में उसकी भरी-भरी लुभावनी काया, बायें हाथ में ढेरों चूड़ियाँ।दाहिना हाथ खाली। ठूँठ सा।कमर तक लंबे खुले लहराते बाल और गोरा मोहक चेहरा। कुल मिलाकर दिलचस्प व्यक्तित्व था उसका। उसने सोफे पर बैठने का इशारा किया और ट्रे में पहले से ही ढँका खाना पानी का ग्लास उसकी ओर बढ़ाया। पानी पीते हुए मिथिलेश ने एक नज़र कमरे की सजावट पर डाली। एक आम माध्यम वर्ग का सजा सजाया बैठकनुमा कमरा ही तो था वह। वह भी आम औरतों जैसी ही।किंतु फिर भी ख़ास। ख़ास उसका कमरा भी। मिथिलेश की नज़र भी ख़ास बनकर उस कमरे को तौल रही थी। कोने में रखे काँच के टेबल पर रखा लाल फोन। इस फोन पर कितने अपरिचितों के बुलावे पर वह अपने तन को सज़ा पहुँचाती होगी उनके शयन कक्ष में। सिहर उठी मिथिलेश।अपने बदन पर कई-कई छिपकलियों के रेंगने का एहसास हुआ जैसे।

“क्या ले?। चाय कॉफी? पत्रकार तो चाय ही अधिक पीते हैं, है न। तब तक आप यह पत्रिका देखिये।”

और जवाब का इंतज़ार किये बग़ैर वह एक फ़िल्मी पत्रिका उसे देती हुई अंदर चौके में चली गई। फ़िल्मी पत्रिका के मुखपृष्ठ पर आज के सुपर स्टार रोहित की तस्वीर थी। तस्वीर पर हाथ फेरती वह रोमांचित हो उठी। पिछले हफ़्ते अखबार के संपादक संदीपजी ने रोहित के विषय में जो कुछ बताया था उसी का परिणाम था आज का साक्षात्कार। इस साक्षात्कार के लिये कितना वक़्त लगा था प्रश्नों को तैयार करने में, कितनी सावधानी, चूक की बिल्कुल गुंजाइश न हो।हालाँकि यह ओस की बूँद को पकड़ने जैसा प्रयास था, यह जानते हुए भी कि हाथ लगते ही बूँद बिखर जायेगी। पर इस बिखराव में से ही तो सार खोजना था मिथिलेश को।

वह चाय बना लाई थी। प्लेट में बिस्किट और नमकीन भी- “जबसे मालूम हुआ था कि आप आयेंगी तो मैं आपको अपने हाथ से बनाकर कुछ स्पेशल खिलानेवाली थी पर संकोच होता रहा। क्या पता आपको अच्छा न लगे।” मिथिलेश मुस्कुराई- “नहीं। अच्छा क्यों नहीं लगता। मुझे तो अभी ही इतना अच्छा लग रहा है। इतनी आत्मीयता। वरना हम पत्रकारों से लोग बड़ी औपचारिकता से मिल पाते हैं।”

उसने चाय का अंतिम घूँट भरा और सोफ़े पर आराम से टिक गई- “तो आपका अखबार में मेरा साक्षात्कार छापेगा। लेकिन क्यों? अभी ही क्या कम फिकरे उछाले जाते हैं हम पर। कोई क़सर बाकी है क्या?”

मिथिलेश दंग थी भाषा पर उसके अधिकार से। साफ़ सुथरा शिष्ट उच्चारण, पानी सी रवानगी। मिथिलेश ने डायरी और कलम संभाल ली।

“एक बात बताऊँ मिथिलेशजी! जब भी समाज में सुधारवादी संगठन सिर उठाते हैं। हमारे दरवाज़ों पर दस्तक होती है। कैमरे चमक उठते हैं। आख़िर क्या दिखाना चाहते हैं वे समाज को? किसे सुधारना चाहते हैं? क्या मैं समाज से सताई गई हूँ? मुझे तो उस दीपक की लौ ने जलाया है जिसका दावा था कि वह मेरे जीवन का अंधकार दूर करेगा। एक अदद पति था मेरा। था क्यों? है, आप सब जानते हैं कि कितने ठाठ से जी रहा है वह। उसकी सफलता, शानो-शौकत से रश्क होता है न, पर इस सफलता इस शान शौकत की तह में मेरी जवान काया दफन है, पता है किसी को?” जैसे कुएँ की गहराई में उतरकर उसकी आवाज़ आ रही हो-

“शादी के बाद रोहित मुझे मुंबई ले आये थे। बल्कि यों कहिए कि हमारा हनीमून भी मुंबई में ही मना था। अपनी उम्र के बारहवें साल से माइग्रेन और डिप्रेशन से पीड़ित मैं खुली हवा में साँस लेना चाहती थी।रोहित की मौजूदगी में अपने दर्द भूल जाती थी लेकिन रोहित मुब्तिला थे फ़िल्मों के लिये संघर्ष में। चकाचौंध से भरी इस दुनिया में प्रवेश पाने के लिये रोहित ने तरह-तरह की मुद्राओं में तस्वीरें खिंचवाई थीं। पूरा फोटो सेशन ही करा डाला था, फिर उन तस्वीरों का अल्बम बनाया बायोडाटा टाइप कराया, और रोज़ सुबह आठ बजते ही प्रोड्यूसरों के दरवाज़ों पर दस्तक देने अल्बम और बायोडाटा से लेस घर से निकल पड़ते। अपनी इंजीनियरी की डिग्री उन्होंने अलमारी में बंद कर दी। जिस डिग्री के सहारे बाबू की डूबती साँसों ने रोहित को मेरे लिये चुना था और बड़े फ़क्र से सबको बताया था कि मेरा दामाद इंजीनियर है किंतु फ़िल्मी दुनिया ने रोहित के पंख उगा दिये थे और वे अपनी काबलियत से पाई डिग्री त्याग आकाश में उड़ने की साध लिये पंख तौल रहे थे। बचपन से ही एक उदास, जानलेवा और असुरक्षा की स्थिति में मैं सहजता से नहीं जी पाई थी। लेकिन इतना पता था कि फ़िल्मों के प्रति जैसा आकर्षण है सबमें वैसा तब न था। फ़िल्मों के लिए अच्छी धारणा नहीं थी मन में। एक दूसरी ज़िंदग़ी नज़र आती थी इस दुनिया में। ग़ैर ख़ानदानी और महज मनोरंजन देने वाली। जवान लड़के लड़कियों को बिगाड़ने वाली।

“हे भगवान। कहाँ की लत लग गई रोहित बाबू को। ढंग से नौकरी करते। हमारी मुनिया बिटिया सीधी सादी। कहाँ खपेगी इस दुनिया में?”

बाबू की मेरे प्रति असुरक्षा की चिंता। मेरा माइग्रेन का दर्द- “बाबू, मेरी सुरक्षा की चिंता छोड़ दो। मैं तो वहाँ भी सुरक्षित नहीं थी, तुम्हारे पास। बाबू, मैं थक चुकी हूँ और निरंतर नियति से टकराकर रोहित के बंधन में अपना नीड़ खोज रही हूँ। जो मुझे आराम दे। चैन दे।”

मैं रोहित की प्रत्येक ज़रुरत का ध्यान रखती। दिन भर के संघर्ष से थककर रोहित की झपकी लग जाती तो हौले से अपनी गोद में उनका सिर दुबका लेती। ओह!कैसा अभिभूत कर देने वाला पल होता वह। लगता सारा भवन मेरी गोद में सिमट आया है जिसमें हवाएँ, झरने, नदी, पर्वत आकाश, चाँद, तारे सब तो हैं। ऐसी तो कभी खिंची नहीं किसी की ओर जैसी उनकी ओर खिंच रही थी मैं। उनका स्पर्श मदहोश कर डालता। मैं दिन भर उस स्पर्श को महसूसती गुनगुनाती रहती। मुझे उनके बदन के पोर-पोर से प्यार हो गया था, उनके हृदय से, उनकी आत्मा से। बहुत शुरुआत के चंद दिन। जो बिल्कुल मेरे अपने थे और जिनमें रोहित मेरे लिए जिए थे। सागर के किनारे भुरभुरी रेत पर बैठे हम दोनों पश्चिमी आकाश में लुभावनी गेंद जैसे सूरज को देख रहे थे। बदलते रंगों का सागरीय जल, सफेद फेन युक्त लहरें और चहचहाते पक्षी। धीरे-धीरे सूरज का गोला सागर में समा गया। मैं शर्मा गई। मानो रोहित के सीने में मैं दुबक गई हूँ। अगर मैं चिड़िया होती तो चारों दिशाओं को उनके नाम की गूँज से भर देती। अँधेरा गहराने लगा। सागर उर्मियाँ तट पर मचल-मचल कर सिर पटकने लगीं। तट की रेत सिहर सी गई फिर उसमे से एक कुलबुलाता केकड़ा निकला और अपने पतले डगों से तेज़ी से चलने लगा। मैं डरकर उनके नज़दीक सरक गई। वे मेरी ओर देख हँस पड़े 'केकड़े से डर गईं?'

और मेरी कमर में अपनी बाँह डाल फिरकी सी ली-

“डरपोक”

मैं आश्वस्त। भरोसे से पूर्ण। बाबू नाहक मेरे भविष्य को लेकर चिंतित हैं। रोहित है तो मेरे साथ। मेरे रोम-रोम को सुरक्षा देते।रोहित सांध्य तारा को टकटकी बाँधे देखते हुए बोले- “बहुत जल्द मुझे फ़िल्म इंडस्ट्री में प्रवेश मिल जायेगा। फ़िल्म साइन होते ही देखना। क्या कमाल दिखाऊँगा मैं। राज करोगी तुम। ऐश ही ऐश।”

रोहित की आँखों में लहराता निस्सीम सागर था। मैं डर गई। डर डूब जाने का न था बल्कि उसकी खौफ़नाक लहरों की चपेट में आने का था।

शाम गहराते ही सागर तट से लगी चौड़ी व्यस्त सड़क की बत्तियाँ जादुई आभास देने लगीं। सड़क के उस पार रेस्तरां सजने लगे। महँगे रेस्तराओं के सामने महँगी कारों में बैठे आइस्क्रीम खाते जोड़े और उनकी कार की खिड़की को टकोरता फूलों के गुच्छे लिये छोकरा। सब कुछ अरेबियन नाइट सातिलिस्मी लगता। मेरा मन होता है रजनीगंधा के फूल खरीदूँ और घर का कोना-कोना महका दूँ। रोहित ने फुटपाथ पर बैठी मराठी लड़की से जुही की वेणी ख़रीदी और मेरे बालों में मोती की लड़-सी जड़ दी। फिर मेरी हथेलियाँ अपने हाथों में भर मसलने लगे, मदहोश सी मैं। कैसे रास्ता पार हो गया पता ही न चला। लेकिन यह सब तो बहुत शुरुआत के दिनों की बातें हैं।

फिर फ़िल्मों के लिये संघर्ष का कठिन दौर। रोहित मुझे समय नहीं दे पाये। उनकी थकान निराशा को देख मैं भी अपनी भावनाओं को ज़ब्त किये रही। लेकिन अकेलापन मेरे माइग्रेन के दर्द को और जानलेवा बनाने लगा। दिन भर माथे पर दुपट्टा कसकर बाँधे रहती। उस शाम भी दुपट्टा कसा था, आँखें मुँदी थीं। लेकिन रोहित खुशी से छलके पड़ रहे थे।उन्हें हिट फ़िल्मों के प्रोड्यूसर ने अपनी नई फ़िल्म के लिये साइन किया था, जिसमें उन्हें हीरो के दोस्त का रोल मिला था।

“खोलो यार, ये दुपट्टा उपट्टा। आज तुम्हारे रोहित को मंज़िल मिल गई। अब देखना जानेमन। क्या धाँसू एक्टिंग करूँगा कि बस।”

“रोल तो दस मिनिट का ही है तुम्हारा?”

“ओफ्फो। कर दिया ना बेड़ा गर्क! यार। दस मिनिट ही सही, मुझे अपनी काबलियत दिखाने का मौका तो मिला। देखना, यही प्रोड्यूसर एक दिन मुझे हीरो का रोल भी देगा अपनी फ़िल्म में।”

रोहित की आँखों में फिर वही निस्सीम सागर ठाठें मारने लगा। मेरा दिल धड़क उठा। मैं इस दुनिया से अपरिचित थी पर इतना जानती थी कि इस प्रोफेशन में सिक्यूरिटी नहीं है। फ़िल्म चले तो चले वरना कौन पूछता है। उम्र बीत जाने पर नौकरी भी नहीं मिलती और बुढ़ापा! कितने अपने समय के सफल हीरो-हीरोइन गुमनामी की ज़िंदग़ी जीते हुए तिरस्कृत, लाचार, अर्थहीन बुढ़ापा गुज़ार रहे हैं। जैसे बाबू। वे वकालत करते रहे। केस मिले तो मिले, नहीं तो घर के सुरसा के मुँह से ख़र्चों में उनकी सरकारी फीस तक स्वाहा होती रही। न कोई भविष्य निधि, न पेंशन। लाचार बुढ़ापा टुकुर-टुकुर बस महेंद्र भैया का चेहरा ही ताकता है। कैसा ज़लील कर डालता है यह बुढ़ापा इंसान की ग़ैरत को।

रोहित का नौकरी न करने का इरादा मुझे बेचैन किये था लेकिन रोहित तो फ़िल्मी दुनिया के ज्वार में गले-गले तक उतर चुके थे और मैं तनहा, बेचैन, दर्द से पीड़ित, प्रतीक्षारत। एक कठपुतली की तरह कि कब मेरा मास्टर आये और मेरी डोर खींचे। घर में तो था बस फोन,और चौबीस घंटों में मात्र चार पाँच घंटों की रोहित की उपस्थिति जो सोने में गुज़र जाती। जागकर नहाना, शेव। तैयार होना और इस दौरान वही शूटिंग के किस्से।

“कल सीन ओ.के. होते ही डायरेक्टर ने मुझे गले से लगा लिया और व्हिस्की ऑफ़र की। जानती हो क्या कहा। “रोहित! तुममें संभावनाएँ हैं। चमकोगे, अवश्य चमकोगे।” रोहित डायरेक्टर की नकल करते हुए शेव करते जाते। इसमें मैं कहाँ थी। रोहित की ज़िंदग़ी में तो मेरा नामोनिशान तक न था। वे ऐसे चकाचौंध से भरे दिन थे जिसकी मरीचिका में रोहित निमग्न थे और यथार्थ की तपती रेत में मेरे पाँव छालों से भरे थे। अभी हमारी शादी हुए समय ही कितना गुज़रा था?आँखों में स्वप्न होने चाहिए थे। पर मेरी आँखों में भय था, आशंका थी। बचपन की घटनाओं ने मेरे अंदर एक असुरक्षा की भावना भर दी थी। मैं उसी को लेकर सीझती रहती। मेरी भावनाओं को साझा करने वाला साथी होना चाहिए था पर रोहित ने मुझे वनवास दे दिया था। रात-रात भर शूटिंग चलती, फ़िल्मी पार्टियाँ चलती। मुँह अँधेरे रोहित लौटते और तुरंत सो जाते। मैं जागती रहती। अपने आपको रसोई में व्यस्त रखती। खाना बनाकर रोहित के जागने का इंतज़ार करती। दोपहर ढल जाती। खाने का समय चाय के समय में तब्दील हो जाता।रोहित हड़बड़ाकर उठ बैठते-

“अरे चार बज गये। उफ छै: बजे से डबिंग है और सांताक्रुज़ पहुँचना है, दाढ़ी तक नहीं बनाई अभी।”

“दाढ़ी बढ़ी ही कहाँ है तुम्हारी? यूँ ही गाल छीले डालते हो। पहले हाथ मुँह धोकर नाश्ता कर लो। सुबह से कुछ खाया नहीं तुमने।”

मैं सुनना चाहती थी कि “तुमने भी तो कुछ खाया नहीं होगा?” किंतु।

“छोड़ो यार नाश्ता वाश्ता। तुम मेरे खाने की चिंता मत किया करो, ज़िंदग़ी में कुछ करने के लिये सबसे बड़ी बाधा है खाना।”

मैं रुआँसी हो उठी। रोहित को मेरी ज़रा भी परवाह नहीं। चाय का कप थमाकर मैं चौके में आ गई। न जाने कौन-सा भाग्य लेकर लड़कियाँ आती है जो शादी के तीन चार साल पति की बाँहों में ही गुज़र जाते हैं। रोहित चाय पीकर। तरोताज़ा हो चले जाते, मेरे लिये छोड़ जाते कालरात्रि। तनहा और शापित।सुबह का खाना गरम कर मैं जैसे तैसे अकेले बैठे ठूँस लेती। बाकी बचे खाने के लिये मैं बाल्कनी में खड़ी होकर उस बूढ़े भिखारी का इंतज़ार करती जो रोज़ ठीक नौ बजे आकर बाल्कनी की ओर देखते हुए गुहार लगाता था- “कुछ खाने को मिल जाये माई।” मैं सारा खाना उसे देकर उसका तृप्त होना देखती, यह बूढ़ा भिखारी महीनों मेरे अकेलेपन का साथी रहा है।

मेरा वनवास रोहित की फ़िल्म रिलीज़ होने के दिन समाप्त हुआ। प्रीमियर शो में रोहित मुझे भी ले गये। ले जाकर कुमार साहब की बगल में बिठा दिया। विदेशी परफ्यूम से मेरा दिमाग भन्ना गया। उन्होंने अपना चारों उँगलियों में पहनी अँगूठियों से भरा हाथ मेरी कुर्सी के हत्थे पर रख दिया, मैं सिमटी सिकुड़ी बैठी रही। फ़िल्म समाप्त होने पर कुमार साहब ने जेब से रेशमी बटुआ निकाला और उसमें रखी सुपारी चाँदी के सरौते से काटने लगे। सरौते में लगे घूँघरू बजउठे- “बधाई रोहित, तुम्हारा काम लाजवाब है। छोटे से रोल में तुमने अपना सिक्का जमा लिया।”

रोहित गद्गद्। उनकी दी सुपारी फाँक झट् से उनके पैर छू लिये। उन्होंने रोहित को गले से लगा लिया- “कहाँ घर है तुम्हारा? चलो छोड़ देते हैं।”

कार में कुमार साहब आगे बैठे। मैं और रोहित पीछे। कुमार साहब बार-बार मुड़कर पीछे देख लेते- ठीक से तो हैं न आप।” मैं मुंडी हिला देती।

“अगले महीने हम दो दिन की शूटिंग के लिये यूरोप जा रहे हैं। लौटकर अपनी नई फ़िल्म की घोषणा करेंगे। तुम्हारे लिये एक बड़ा रोल पक्का।”

रोहित की खुशी चरम पर थी पर न जाने क्यों मैं उनकी खुशी में हिस्सा नहीं बँटा पा रही थी। मैं बार-बार कुमार साहब के पीछे मुड़कर देखने से तंग आ चुकी थी। घर आया, हमारे साथ कुमार साहब भी उतरे और ऐन सामने आकर मुझसे हाथ मिलाने के बहाने मेरी हथेली दबा दी। एक फाँस सी मेरे मन में गड़ी जो रोहित ने नहीं देखी। मैंने उन्हें बताई भी नहीं। वे बेहद खुश थे और मैं उनकी खुशी में बाधा नहीं बनना चाहती थी। महीनों एड़ियाँ रगड़ी हैं रोहित ने तब जाकर यह दिन आया है।

कुमार साहब शूटिंग के लिये यूरोप गये थे और बुधवार तक रोहित आराम के मूड में थे। जाते थे पर जल्दी लौट आते थे। शाम को रोहित ने खुद कॉफी बनाई, एस्प्रेसोकॉफी वे बहुत अच्छी बनाते हैं। कॉफी की चुस्कियों के दौरान उन्होंने बताया-

“फ़िल्म इंडस्ट्री का नशा ही अद्भुत है। स्मोक के नशे से भी तीखा। जब यह नशा उतरता है तो इंसान अपनी असफलता के यथार्थ को महसूसकर सोशल लाइफ़ में फिर लौट ही नहीं पाता। कितने तो संघर्ष करते-करते दलाल तक बन जाते हैं और तस्करों के अड्डों तक पहुँच जाते हैं।”

मैं काँप गई- “रोहित मुझे तुम्हारे लिये बहुत डर लगता है। न जाने क्यों अक़्सर आँधी, बिजलियों की आवाज़ें सुनाई देती हैं।”

“तुम्हें तो खब्त है। तुम्हारे बाबू की ज़िंदग़ी ने तुम्हें डरा दिया है। नौकरी, प्रॉविडेंट फंड, पेंशन। बस, इसी को लेकर परेशान रहती हो, न जाने क्यों मेरे प्रोफेशन को सीरियसली नहीं लेती।”

रोहित ने कॉफी का अंतिम घूँट भरा और सिगरेट सुलगा ली-

“देखो डियर। हमें ज़िंदग़ी में अपने उद्देश्य को लेकर चलना चाहिए। मेरा उद्देश्य है एक सफल कलाकार बनना, कुछ नया कर दिखाना। सोचो, है न मुझमें कुछ जो कुमार साहब जैसे सफल प्रोड्यूसर की फ़िल्म मिली।वरना प्रोड्यूसर्स की रिसेप्शनिस्ट के पास तो स्ट्रगलर्स का स्टैंडिंग ऑर्डर रहता है। टरकाने वाला कि अभी प्रोड्यूसर शूटिंग में बिज़ी है, विदेश यात्रा पर गये हैं। डायरेक्टर के संग मीटिंग चल रही है। कल आओ, परसों आओ, महीने भर बाद आओ, सालों आते रहो, घिसते रहो एड़ियाँ। कम ऑन यार। खुलो, जियो।”

“लेकिन रोहित, यह दुनिया अंडरवर्ल्ड से भी तो जुड़ी है, डरती हूँ रोहित। कहीं कुछ।”

लेकिन मेरी बात अधूरी ही छूट गई। वे मुझे आलिंगनबद्ध कर मेरे कानों में फुसफुसाये- “अपने रोहित को स्टार तो बनने दो, फिर डरना अंडरवर्ल्ड से।”

बुधवार को कुमार साहब यूरोप से लौट आये और आते ही इनडोर शूटिंग में व्यस्त हो गये। उनके कहने पर रोहित मुझे फ़िल्मी पार्टियों में ले जाने लगे, शूटिंग में ले जाने लगे। मेरे पास इन जगहों में पहनने लायक ढंग के कपड़े न थे। रोहित मेरे लिये चार पाँच साड़ियाँ, सलवार सूट वगैरह ले आये- “कुमार साहब ने दिये हैं तुम्हारे लिये। नज़दीक से देखो यार फ़िल्मी दुनिया को। घर में बैठे-बैठे जंग लगा लोगी अपने आपमें।”

“ये तुम कह रहे हो या। कुमार साहब?” मैंने कहना चाहा। अब कुमार साहब बाकायदा हमारी ज़िंदग़ी के हर पहलू में बिराजमान रहने लगे थे। उनकी मंशा के मद्देनज़र रोहित भी जीवन के प्रति मेरी सीमाबद्धता को तोड़ उस महासमुद्र में मुझे तैराने लगे थे। और कुमार साहब! कभी नरगिस के फूल, कभी विदेशी परफ्यूम, कभी कतरी हुई सुपारी, कभी ठहाके और कभी मात्र मुस्कान से मुझे नवाज़ने लगे थे। कभी अपनी फ़िल्म का कोई प्रेम भरा संवाद बोलकर बेबाकी से मेरा हाथ दबाकर पूछते- “कैसा लगा?”

मैं सतर्क, हड़बड़ाई सी किंतु तारीफ़ के लिये मजबूर- “बहुत अच्छा। आपकी फिल्में तो लाजवाब होती हैं।”

“अरे रोहित। कल एक गेट टु गेदर रखा है, नई फ़िल्म के सिलसिले में वर्सोवा वाले बंगले पर। ले आना इन्हें भी।” और सरौते के घूँघरू रुनझुनाने लगे।

दूसरे दिन सुबह से रिमझिम बरसात हो रही थी। जाते-जाते रोहित शाम को पहनने वाली मेरी पोशाक निर्धारित कर कह गये थे- “टैक्सी ले लेना। बरसात की परवाह मत करना, आ ही जाना। वैसे भी बूँदाबाँदी है थम जायेगी तब तक। मैं तुम्हें पाँच बजे अँधेरी स्टेशन पर मिलूँगा।”

अंगारों पर सिंकते भुट्टों की सौंधी खुशबू लिये गीली हवा टैक्सी के शीशों से टकराई, मेरे बाल कंधोंपर बिखर से गये। मैंने आँखें मूँद ली।

“मैडम। कहाँ रोकूँ टैक्सी?”

ड्राइवर के पूछने पर आँखें खोली तो अँधेरी स्टेशन सामने था। रोहित ने मुझे देख लिया था। उसने हाथ के इशारे से टैक्सी रोकने को कहा। फिर पिछली सीट पर बैठते हुए मुस्कुराया- “वर्सोवा।” टैक्सी सड़क पर फिसलने लगी।

“अच्छी दिख रही हो।” रोहित ने मेरे कंधों पर अपनी बाँह फैलाई और पिछली सीट से टिककर आँखें मूँद ली।

बड़ा खूबसूरत बंगला था कुमार साहब का। चारों ओर फूलों से भरा बगीचा। सामने लहराता सागर और नारियल के पेड़, दूर कहीं मछुआरों की बस्ती थी क्योंकि हवा में सूखती मछलियों की गंध समाई थी। बड़ा सा फाटक दरबान ने खोला। कुमार साहब बरामदे में पड़ी बेंत की कुर्सी पर बैठे-बैठे ही चिल्लाये- “सीधे चले आओ रोहित।”

फिर अपने अलसेशियन कुत्ते को भौंकने से मना करने लगे- “नो जॉली, नो।”

लेकिन गेट टु गेदर के नाम पर केवल हम तीन। तो मि. कुमार अकेले में रोहित से मिलना चाहते थे। मुझे रोहित की काबलियत पर नाज़ हो आया। इतनी जल्दी तो अच्छे अच्छों को भी चांस नहीं मिलता ऐसी बड़े बजट की फ़िल्मों में काम करने का।

गोरखा नौकर अखरोट की लकड़ी से बनी नक्काशीदार ट्रॉली पर व्हिस्की की बोतल, सोडा, बर्फ और नमकीन सजाये हाज़िर हुआ।

“अरे, स्ट्रॉबेरी मिल्क लाओ इनके लिये, हमने कहा था न बनाने को।” उन्होंने मेरी ओर इशारा किया और रोहित से पैग बनाने को कहा। ग्लास खूबसूरत डिज़ाइन वाले लेकिन मिट्टी के थे, बल्कि ट्रॉली में रखे सभी बर्तन मिट्टी के ही थे। मेरे लिये स्ट्रॉबेरीमिल्क भी मिट्टी की मुग़लई ढंग की नाज़ुक सी सुराही में बुलवाया गया था। रोहित ने पैग बनाये । कुमार साहब कहानी की थीम बताने लगे- “बड़ी धांसू कहानी है और तुम्हारा रोल तो नायक प्रधान है। पूरी फ़िल्म में छाये रहोगे तुम।”

रोहित आभार से हँसे- “आप देखियेगा, शिकायत का मौका नहीं दूँगा आपको।”

“आपको कहानी कैसी लगी?” उन्होंने मुझसे पूछा। मैं क्या कहती। सब कुछ तो था कहानी में। एक्शन, मारधाड़, स्मगलिंग, बलात्कार।

“ये भी ख़त्म हो गई। इस गोरखे को शराब का तजुर्बा नहीं है। वैसे यहीं पास में दुकान है।”

“मैं ले आता हूँ। आप परेशानन हो।”

रोहित के कहते ही वे उठकर अंदर कमरे में चले गये।फिर रोहित को अंदर से आवाज़ दी। काफ़ी देर दोनों अंदर ही रहे। ऊबकर मैं उठकर बगीचे में टहलने लगी। अचानक रोहित कार की चाबी लिए बाहर आये, मैं तेज़ी से उनके पास पहुँची- “जल्दी आना। मुझे बोरियत लग रही है।”

रोहित कार में बैठ चुके थे। चेहरा तनावग्रस्त, नज़रें झुकी हुईं-

“देखो, अंदर उनके साथ जाकर बैठो, कुमार साहब जो कहें मान लेना। आख़िर फ़िल्म में इतना बड़ा रोल दे रहे हैं मुझे। लाखों का एग्रीमेंट है। नहीं, कुछ मत सोचो। तुम मेरी हो,बस मेरी रहोगी। इन सब बातों से कुछ फ़र्क नहीं पड़ेगा मुझे।”

और मैं कुछ समझूँ, कहूँ, बोलूँ कि रोहित कार स्टार्ट कर चुके थे। मेरे पैर जहाँ के तहाँ जड़ थे। सब कुछ आरपार दिख गया था मुझे। नहीं, चकित नहीं थी मैं। बचपन से यही नियति रही है मेरी। मेरे अपने ने ही मुझे विदेह कर दिया था। मेरे मन ने मेरे शरीर को छूना बंद कर दिया था। बस। आँखों में एक नदी सी उमड़ती जो रात के अंधकार में तटों पर उफनने लगती। गिलाज़त, नर्क़ की बिलबिलाहट, संबंधों की कीच।

“मुनिया। इधर आओ।”

गर्मी के दिनों में छत पर बिछे बिस्तरों में मेरे बिस्तर की ओर बढ़ता चचेरे भाई महेंद्र का हाथ। छोटे-छोटे चार भाई बहनों को लेकर महेंद्र ऊपर छत पर सोता था। नीचे आँगन में माँ बाबू चाचा चाची। महेंद्र से बहुत छोटी थी मैं। मुझसे छोटे नरेंद्र, चुनिया, बिट्टू। बारह वर्षीया मैं देह की अनुभूति से अनजान और महेंद्र का बढ़ता हाथ। मेरी फ्रॉक के बटनों में उलझता। तमाम सीने की टोह लेता उसका हाथ। मेरा खून जम गया था, ज़बान सूखकर तालू से चिपक गई थी। उस रात महेंद्र ने मुझे देह का अर्थ समझाकर विदेह कर दिया था। सुबह जब मैं छत से उतर रही थी तो पैर थरथरा रहे थे। मन में विद्रोह की चिंगारी थी लेकिन ज़बान कटी हुई थी। किससे कहती, कैसे और क्या कहती? न हिम्मत थी, न शब्द। मेरी खामोशी ने महेंद्र के पाप को और भड़का दिया। फिर तो जब भी मौका मिलता, जहाँ भी मिलता, महेंद्र मुझे घसीट लेता। यह नरक मैंने उसकी शादी होने तक भुगता और तिल-तिल मरती रही मैं। और आज रोहित! रोहित की महत्वाकांक्षा ने मुझे शोषण के कगार पर ला पटका है। मेरे मांसल सौंदर्य को मोहरा बना उन्होंने शतरंज की बिसात बिछाई थी। मेरी आत्मा पर यह क्रूर आघात था। औरत की मांसलता असाधारण और महान पुरुषों को भी अपने मकड़ जाल में उलझा सकती है। रोहित ने यह नब्ज़ पकड़ ली थी। उसे छूनी थी ऊँचाईयाँ। लेकिन मेरे नारीत्व पर अपने पंजे जमाकर।

कुमार साहब लड़खड़ाते हुए मेरे पास आये और मुझे अपनी बाँहों में समेटकर अंदर कमरे की ओर ले गये। कमरे में ज़हरीला नीला अंधकार था। रोहित की महत्वाकांक्षा साँप की जीभ सी मेरे चारों ओर लपलपाने लगी। हाँ, यह साँप मणि देगा पर एवज में मुझे डँसकर। और मैं नर्म गुद्गुदे बिस्तर में धँसती चली गई। मुझे लगा मैं एक विशाल जंगल में गुम हो रही हूँ जहाँ काँटेदार झाड़ियाँ हैं। मेरे बदन के कपड़े उन काँटों में उलझ कर तार-तार हो गये हैं। खरौंचे उभर आई हैं। देह चुनचुनाहट से भर गई है कि कुछ हलक में उँडेले जाने की छलछलाहट और जलता तुर्श घूँट मेरे हलक के नीचे उतर गया। संपूर्णरूप से मुझे जलाकर ख़ाक करता हुआ- “पियो। प्रिये। प्रियतमा। तुम्हारी मदहोशी से ही हम मदहोश होंगे।” तड़प, जलन, चुनचुनाहट और महत्वाकांक्षाओं के तपते ढूह। और मैं एक अभिशप्त आत्मा जो हज़ारों साल, हज़ारों प्रलय और हज़ारों जन्मों से भटक रही हूँ। शायद मैं इसी तरह असीम आकाश में फैले गहरे अँधेरे की परतों से टकराती रहूँगी और न उस आकाश में चाँद निकलेगा न सूरज, क्योंकि चाँद रोहित की हवस, महत्वाकांक्षा ने चुरा लिया है और सूरज ज़हरीले नीले अंधकार से झुलस गया है। फिर वह डरता भी है तो है मंदिर की घंटियों से जो उसके उगते ही बज उठती हैं और नदी के पावन जल में डूबी हथेलियों से जो पूर्व में लाली देख उसे अर्घ्य देने को भर उठती है।

ज़िंदगी की ढेरों उलझनें। अंतर्विरोधों से भरे पल छिन और मन की चिनगारियों पर लाचारियों की परत दर परत झेलती मैं। रोहित उस घटना से स्तंभित न थे। मानो सब कुछ सुनियोजित ही था। बल्कि वे तो अपनी उपलब्धि पर खुश थे- “आज एग्रीमेंट साइन हो गया। कुमार साहब की फ़िल्म में हीरो का रोल मिला है मुझे और जानती हो हीरोइन कौन है? आज की सबसे हिट नंबर वन हीरोइन।”

उमंग, उत्साह। आसमान को छूने की कोशिश। ज़मीन से ऊपर उठे रोहित के पैर और रौंदी जाती मैं। मेरे होठों पर शिकायत। विरोध या विद्रोह की हिम्मत को तो महेंद्र ने बचपन में ही दबा दिया था। मैं उसकी करतूतों का ज़िक्र कैसे कर सकती थी? माँ बाबू चाचा चाची का क्या होता फिर? जब भी हिम्मत की उन्हें सब कुछ बता देने की मेरी आँखों में उनका लाचार बुढ़ापा कौंधने लगता। तय था, सबकुछ सुनकर बाबू और चाचा महेंद्र को घर से निकाल देंगे और उसका निकाला जाना उन की तबाही का वायस बन जायेगा। चुनिया बिट्टो। नरेंद्र की भी तो ज़िम्मेदारी महेंद्र पर थी। बाबू की वकालत चल नहीं रही थी। वैसे भी बुआओं और चाचा की पढ़ाई शादी का भार ढोते-ढोते अब उनके पास कुछ न बचा था। अधेड़ उम्र में तो चाचा की ज़िद्द पर बाबू ने शादी की थी और मैं और चुनिया इस दुनिया में आकर महेंद्र के कंधों का बोझ बन गये थे। चाचा प्राइवेट कंपनी में नौकरी करते-करते रिटायर हुए थे। न पेंशन, न प्रोविडेंट फंड न ग्रेच्युटी। बुढ़ापा दस्तक दे चुका था और दिल ने रोगी होने का ऐलान कर दिया था। जिस रात बाबू ने दिल के दर्द से बेहाल हो खून थूकना शुरू किया था उस रात घर में महेंद्र की अहमियत बढ़ गई थी।

और मैंने उसकी हवस के लिए होम होने दिया था खुद को। और होम कर दिया था रोहित के लिए भी इस शरीर को। तब से ज़िंदग़ी के इस पोखर का पानी कीचड़ बनकर सड़ाँध मारने लगा है जिस पर मच्छर भिनभिनाते हैं जबकि खिलने चाहिए थे कमल। ज़िंदग़ी की तमाम सुविधाओं से युक्त। सबसे महँगे इलाके में शानदार बंगला, गाड़ी, विदेशों की उड़ानें सब कुछ मयस्सर करा दिया रोहित ने लेकिन किस शर्त पर। मेरी सुहाग सेज पर मणिधारी सर्प छोड़कर कि उसकी मणि छीननी है मुझे, स्वयं को दाँव पर लगाकर।

रोहित की फ़िल्म बॉक्स ऑफ़िस पर अपने झंडे गाड़ रही थी। रोहित शूटिंग की व्यस्तता से थक चुके थे और कुछ दिन स्विट्ज़रलैंड में आराम करना चाहते थे लेकिन तभी मुझे अपने अंदर पनपते अंकुर का पता चला। मेरा सिर चकराने लगा। चेकअप के बाद डॉक्टर ने रोहित को जब पिता बनने की बधाई दी तो रोहित ने मुझे बाँहों में उठा लिया और झूले पर बैठाते हुए मेरे चेहरे को अपनी हथेलियों में भर लिया- “आज मैं बहुत खुश हूँ। ईश्वर ने मुझे सब कुछ दिया, जो भी मैंने चाहा। मैं शुक्रगुजार हूँ उसका।” “लेकिन मैं नहीं रोहित, मैं माँ बनना नहीं चाहती।”

मेरे सपाट उत्तर पर रोहित चौंके- “क्या कह रही हो तुम? पागल तो नहीं हो गईं?”

मैं झूले पर ही टिक गई, आँखें मूँद ली- “रोहित, क्या तुम पसंद करोगे कि हमारे बच्चों पर लोग उँगलियाँ उठाये कि इनकी माँ चरित्रहीन है। इनके पिता मात्र एक दलाल। जो अपनी महत्वाकांक्षाओं की ख़ातिर पत्नी तक का सौदा करते रहे।” चटाक। मेरे गाल पर रोहित की पाँचों उँगलियाँ उछल आईं- “कमअक़्लऔरत। आज की दुनिया की यही माँग है। वरना करते रहो ज़िंदग़ी भर क्लर्की और खाते रहो दाल रोटी।” मैं रो पड़ी। उबलते आँसू गालों पर से ढुलककर मेरा सीना भिगोते रहे। रोहित ने परवाह नहीं की और उठकर चले गये।

तो यह था मेरे गूँगे समर्पण का सिला। रोहित को मेरी तबाही का ज़रा भी रंज न था बल्कि वे तो मेरी माँ बनने की इंकारी से मुझसे खिंचे खिंचे से रहने लगे। ज़्यादातर समय शूटिंग में व्यस्त रहते और घर में होते तो फोन। कभी बड़ी बहन को, कभी पापाजी को। या कभी दोस्तों को।

लातूर में भूकंप आया था। भूकंप के झटके मुंबई ने भी खाये थे। एक भूकंप मेरे मानस का, एक झटका मेरे दिल का। मेरे मन की दीवारों को भी तिड़का गया था। इनका फोन था स्टूडियो से- “सुनो। हम सब लातूर के भूकंप पीड़ितों के लिये अपना एक दिन का मेहनताना डोनेट कर रहे हैं। लेकिन मैं पाँच लाख का अतिरिक्त चेक दे रहा हूँ। इतने धन का करेंगे क्या। न हमारे आगे कोई न पीछे।”

दीवारें तिड़की, मन ढह गया। तीव्रता से एहसास हुआ कि मुझे क्या हक है रोहित की गृहस्थी वीरान रखने का? लेकिन माँ न बनने का मेरा इरादा भी पक्का था और इस गलीज़ शरीर को कहीं और रिश्तों में बाँधना मुमकिन न था। अपने आप से घृणा थी मुझे। मैं जलती लौ नहीं बल्कि बुझती बत्ती थी जो मात्र प्रदूषण फैलाती है। नौकरी करना मेरे वश में न था। नौकरी के लिये चाहिए हिम्मत और स्वाभिमान, जो दोनों ही कुचले जा चुके थे मेरे अंदर, रह गया था घृणा योग्य शरीर। और फिर घृणित शरीर का घृणित प्रोफेशन।”

कहकर वह ज़ोर से हँसी। उसकी हँसी से खिड़की के रास्ते कमरे में फुदक आई गौरैया चिड़िया सहम गईं।

“मिथिलेशजी। जब इंसान ज़बान से कुछ कह नहीं पाता तो उसका दिमाग, उसकी सोच कहती है। मेरी सोच ने मुझे सलाह दी कि जब ज़लालत से भरी ज़िंदग़ी ही जीनी है तो क्यों न खुलकर स्वतंत्र रहकर जियूँ। चुनौती बनकर जियूँ। पुरुष की बर्बरता के ख़िलाफ़ एक आंदोलन बनकर जियूँ। मैंने रोहित को सच्चे दिल से चाहा इसीलिए उसकी गृहस्थी से चुपचाप अलग हो गई। वे तो इन दिनों अपनी पत्नी और बेटी के साथ मॉरीशस में छुट्टियाँ बिता रहे हैं। एक-एक पल की ख़बर रखती हूँ मैं। आख़िर धर्म से तो उनकी विवाहिता हूँ। वे धर्म नहीं निभा पाये यह बात दीगर है। कुमार साहब अब भी मेरे लिये बेचैन रहते हैं। मैं उन्हें दोष नहीं देती, उनके पास सपने थे। रोहित ने उन सपनों को ख़रीद लिया। बुलाते हैं अक़्सर। जाती हूँ मैं। अरे, हम तो वो नालियाँ हैं मिथिलेशजी जो पुरुषों के मन के, दिमाग के, वासना के तमाम कचरे को बहा ले जाती हैं ताकि आप जैसी सुहागिनों का घर न उजड़े।"

उफ! कैसा जज़्बा रखती है यह औरत। अपने को मिटाकर, अपनी बरबादी का जश्न मानती। सहसा मिथिलेश अपने को बौना महसूस करने लगी उसके आगे। उसकी आँखें छलछला आईं।

“अरे। आप रोने लगीं मिथिलेशजी, मुझे देखिये, मैंने अपने सारे आँसू आँखों की रेत में सूख जाने दिये हैं।”

तभी उसकी आँखों के मरू से एक तूफ़ान-सा उठा और मिथिलेश की डायरी के पन्ने उसकी कहानी के घाव से फड़फड़ा उठे।


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