चक्रव्यूह
चक्रव्यूह
जब माँ द्वारा मेरे लिए रखी गयी चाय में पपड़ी जम चुकी होती है, घंटों पहले रखी गयी सेब की फांकें पीली पड़ चुकी होती हैं और माँ मुझे उठने की हांक देने के कई आयाम भर चुकी होती हैं, तब कहीं मैं उठता हूँ । पूरे बदन में जकड़न हो रही होती है और माथा भारी लग रहा होता है। दीवार घड़ी पर नजर डालता हूँ । अपराह्न के चार बज रहे होते हैं। बंद खिड़की से छनकर बिस्तर पर गिर रही जाड़े की गुन-गुनी धूप कई तरह की बहुभुजाकर और गोलाकार आकृतियां धारण किये बैठी होती हैं।
हालांकि सोने से पूर्व किये गये संकल्प के अनुसार मुझे तीन बजे ही उठ जाना चाहिए था। इस कारण खुद पर खीझ होने लगती है। दरअसल ऐसे कई संकल्प रोज करता हूँ और रोज ही तोड़ता हूँ । ऐसा क्रम पिछले कई वर्षों से जारी है। जैसे हरेक सप्ताह तय करता हूँ कि अगले सप्ताह से फिल्में नहीं देखूंगा। अब चूंकि अगले सप्ताह से फिल्में नहीं ही देखनी है, इसलिए इस सप्ताह एक-दो फिल्में तो देख ही ली जाये। इस तरह फिल्म देखने का क्रम अगले सप्ताह भी जारी रहता है। फिर यह संकल्प कि अब की सोमवार से सुबह चार बजे उठकर हल्की-फुल्की दौड़ लगाने के बाद जोरदार पढ़ाई करूंगा। अब चूंकि सोमवार से तड़के उठना ही है तब इस सप्ताह भोर में सोने का मजा क्यों छोड़ दिया जाये? इस तरह भोर में सोने की क्रिया अगले सप्ताह भी जारी रहती है। हरेक दिन दोपहर को यह सोच कर सोता हूँ कि रात को देर तक पढ़ाई करूंगा लेकिन रात को बारह बजते ही आँखे मूंद जाती है। सुबह उठते ही प्रण करता हूँ कि आज कुल चौदह घंटे ही पढ़ूंगा, परंतु किसी भी दिन आठ घंटे से अधिक नहीं पढ़ पाता हूँ ।
इस तरह मैं पिछले चार वर्शों से आई.ए.एस. से लेकर क्लर्की तक की प्रतियोगी परीक्षाओं की बाकायदा तैयारी करता आ रहा हूँ - बगैर किसी निर्णायक सफलता के। छिटपुट सफलता से बात नहीं बनती है न! जब लिखित परीक्षा का बेड़ा पार लगाया तब इंटरव्यू में बेड़ा गर्क। कभी दोनों में अच्छा परफार्मेंस रहा तब किन्हीं अन्य ‘गोपनीय’ कारणों से छंटे जो बरमूदा त्रिकोण से कम रहस्यमय नहीं है। इन कारणों के रहस्य ढूंढ निकालने के लिए मैंने जितनी माथा-पच्ची की है उतने में कोई महान वैज्ञानिक आविष्कार संभव था। वैसे मोहल्ले के लोगों ने इसकी खोज कर ली है। उनके अनुसार मैं नितांत दिमागरहित व्यक्ति हूँ । लोगों की इस खोज के कारण मुझे घर-बाहर अक्सर फब्तियां सुननी पड़ती हैं, तिरस्कार और डांट का सामना करना पड़ता है। इसी कारण घर से बाहर निकलने पर इस बात का खास ख्याल रखता हूँ कि किसी जान-पहचान के व्यक्ति से खास कर अपने दोस्तों की चंडाल चौकड़ी से आमना-सामना नहीं हो। लेकिन ऐसा अक्सर नहीं हो पाता।
घर से बाहर निकलते ही खेल का मैदान आता है। दरअसल इसे खेल का मैदान कहना भी एक एक तरह से खेल के मैदान का अपमान करना ही है। वैसे यह एक जमाने में अवश्य ही खेल का मैदान हुआ करता था। अब तो इसमें मोहल्ले के आवारागर्दी करते-फिरते बेरोजगार किस्म के छोकरों का जमघट लगता है, जिसमें ताश और जुए जैसे ऐतिहासिक खेलों की जबर्दस्त प्रतिस्पर्धाएं चलती हैं तथा मोहल्ले से लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर के ज्वलंत मुद्दों पर शिखर वार्ताओं का लंबा दौर चलता है। इनमें मोहल्ले में चल रहे इश्क और रोमाँ स की क्रमिक विकास स्थितियों का अध्ययन तथा कस्बे के हर दिल अजीज सिनेमा घरों के मार्निंग शोज में चल रही एडल्ट फिल्मों की दृश्यवार व बेबाक समीक्षा करने से लेकर सामने सड़क पर से गुजरती लड़कियों के कूल्हों के व्यास तथा उनकी कमर की लोचों की आवृत्तियों की गणना की जाती है। साथ ही उनकी चालों और कमर की लोचों में वांक्षित सुधार लाने के उन प्रस्तावित फार्मूलों पर गहन विचार-विमर्श किया जाता है जिनके अमल में लाने पर वे श्रीदेवा से लेकर माधुरी दीक्षित तक को मात दे देंगी। इसके अलावा इस बैठक में कुमार सिनेमा घर में इवनिंग शो में अनिल कपूर की चल रही फिल्म के लिए पास अथवा टिकट का जुगाड़ करने तथा आगामी दुर्गापूजा अथवा सरस्वती पूजा के लिए अधिकारिक चंदा जमा करने की प्रभावी रणनीति बनायी जाती है।
मैं चाहता हूँ कि इस उत्पाती मंडली की तेज निगाहों से बच निकलूं। मगर नहीं। मंडली के किसी सदस्य की दूरबीनी आँखे मुझे देख ही लेती है।
‘‘अरे देख न रे। विभुआ जा रहलो ह।’’
‘‘कहां जा रहली ह रे विभुआ? तनी इधरो आबा हो।’’ मैं बिना कुछ बोले झुंझलाकर उड़ती हुई नजरों से उन्हें देखता हूँ और उनकी उपस्थिति को झुठलाते हुए आगे बढ़ जाता हूँ ।
‘‘साला जैसे कलक्टर बन गया है।’’
‘‘पढ़ने से घमंड हो गया है।’’
‘‘अरे पढ़ने से क्या होगा? दिमाग तो है ही नहीं विभुआ के। बड़ा आई.ए.एस. अफसर बनने चला था।’’
‘‘पगला गया है विभुआ।’’
दिमाग झन्ना जाता है। अब तो इनसे उलझना ही पड़ेगा। हालांकि यह बिल्कुल वाहियात काम है। इसका मतलब है घंटों का समय जाया करना। लेकिन यह जैसे अपरिहार्य बन गया है।
मैं जैसे ही उनकी तरफ मुड़ता हूँ वैसे ही मंडली का एक सदस्य खुषी से चिल्ला उठता है- ‘‘अरे रवींद्र भइया ....।’’ मंडली सड़क की ओर दौड़ पड़ती है। मैं चैन की सांस लेता हूँ ।
मैं आगे बढ़ चलता हूँ । दरअसल ऐसी अवांक्षित स्थितियां रोजमर्रा की जिंदगी का अभिन्न हिस्सा बन गयी है। अपनी मेहनत के बल पर किसी कम्पिटीशन में सफल होकर नौकरी पाने का मेरा नाकाम प्रयास अब मेरे लिए भयानक अपराध बन गया है। शायद यही कारण है कि हर रोज, हर कहीं ऐसी असहनीय स्थितियों को झेलना मेरी मजबूरी बन गयी है।
‘‘रवींद्र भइया ....। बॉस, सुनिए न।’’
मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ । कस्बे के प्रतिष्ठित ‘सुपर हीरो’ की मोटर साइकिल आकर रुकती है। मित्र मंडली के सदस्य अपने ‘ही-मैन’ को घेरकर खड़े हो जाते हैं।
‘‘बॉस। किसी तरह ‘तेजाब’ के पास का जुगाड़ कीजिए! क्या धांसू एक्टिंग की है अनिल कपूर ने!’’
‘‘क्या डांस किया है माधुरी दीक्षित ने!’’
मैं बिना रुके, बिना चारों तरफ देखे चलता जाता हूँ । मुझे दिमाग-रहित मानने वाले इन दोस्तों, मोहल्ले के लागों और दूर-दराज के रिश्तेदारों तक को मैं हरेक साल मैट्रिकुलेशन, इंटरमीडिएट अथवा ग्रैजुएशन की परीक्षाओं के समय अत्यंत तीक्ष्ण बुद्धि और व्यापक ज्ञान-विज्ञान से युक्त दिमाग वाला व्यक्ति नजर आता हूँ । यहां परीक्षार्थी, उनके परिवारजन और दोस्त परीक्षाओं के मौसम को ‘नकल पर्व’ के रूप में मानते हैं। नकल के पूजा स्थलों यानी परीक्षा केंद्रों पर तैनात पुलिस कर्मी से लेकर इनविजीलेटर तक पूरे उत्साह और जोष-खरोष के साथ इस ‘पर्व’ को सफल बनाने में अपना बहुमूल्य योगदान देते हैं।
लेकिन इस ‘पर्व’ में मैं अजीबो-गरीब स्थिति में फंस जाता हूँ । जान-पहचान और रिश्ते के लोचदार दायरे में आने वाले हरेक परीक्षार्थी की ओर से जो नकल देवता में आस्था रखते हैं, मुझ तक अथवा मेरे माँ -पिताजी तक इस बात की धुआंधार पैरवी जाने लगती है कि मैं परीक्षार्थी के नकल पर्व को सफल करूं अर्थात परीक्षा केंद्र पर जाकर चिट्ट बनाऊं।
अपने बिल्कुल निकट किसी मोटर साइकिल की तेज घरघराहट से मेरा ध्यान टूटता है। मैं सड़क के थोड़ा किनारे हो लेता हूँ ।
‘‘का हालचाल बा हो विभू? कहीं कुछ हुआ?’’
मैं बेबसीपूर्ण मुस्कराहट से उसकी तरफ देख जाता हूँ । वही कस्बे का हीरो रवींद्र अपने ही मोहल्ले का है। दो साल पहले बाप की कमाई से कलेक्टर के ऑफिस में क्लर्की की नौकरी खरीदी थी। गये साल अपना पुराना स्कूटर बेचकर उसने यह नयी मोटर साइकिल खरीदी जिसका इस्तेमाल वह दफ्तर जाकर हाजिरी लगाने, लड़कियों के आसपास मंडराने, कॉलेज जा रही अथवा कॉलेज से घर लौट रही लड़कियों के आगे-पीछे बेतरतीबी से मोटर साइकिल चलाने का प्रदर्षन करने, विरोधी गुट के लड़के को धमकाने तथा दोस्तों के बीच अपना रौब गांठने के लिए करता है।
‘‘विभू! ये पढ़ने-लिखने का चक्कर छोड़ो। इससे कुछ होने वाला नहीं है।’’
मैं कुछ नहीं बोलता।
‘‘अभी भी मौका है। बीस-पच्चीस हजार देकर कहीं कुछ जुगाड़ कर लो। अगर तुम कहो तो मैं कलक्टर के ऑफिस में तुम्हारा मामला जमाने की कोशश करूं?’’ मैं तिलमिला जाता हूँ । वह मेरे जवाब की प्रतीक्षा किये बिना ही ‘सोच लेना’ कहकर रफूचक्कर हो जाता है- सड़क के बीचों-बीच मोटर साइकिल को कलाबाजियां खिलाते हुए।
रवींद्र जिलाधिकारी के पी.ए. रामदरष बाबू का मंझला लड़का है। यह सोचकर कि वह कुछ करेगा नहीं, रामदरश बाबू ने जिलाधिकारी से अपने संपर्क का फायदा उठाते हुए उसे कलक्टर के कार्यालय में क्लर्की की नौकारी पर रखवा दिया। उसका काम केवल दफ्तर जाकर हाजिरी लगाना और महीने के पहले दिन अपना वेतन ले आना है। रामदरष बाबू का बड़ा लड़का राजगीर प्रखंड कार्यालय में प्रखंड विकास अधिकारी है। बिहार लोक सेवा आयोग के माध्यम से नौकरी हुई है। वह अपने जमाने में अपने छोटे भाई से अधिक ‘सर्वगुण संपन्न करामाती’ था। उसकी अधिक प्रतिष्ठा थी। तभी तो उसने मैट्रिक से लेकर एम.ए. तक की परीक्षाएं प्रथम श्रेणी में पास की थी-विद डिस्टिंक्शन। आखिरकार उसमें कागज की छोटी-छोटी पुर्जियों पर माइक्रोस्कोपिक अक्षरों में परीक्षा में पूछे जाने वाले संभावित सवालों के जवाब उतार लेने, परीक्षा हॉल में चाकू और बम का प्रयोग करने, परीक्षा से पहले प्रश्न-पत्रों को आउट करने, नकल विरोधी षिक्षकों को अस्पताल अथवा स्वर्गलोक की राह दिखा देने तथा कॉपी जांचने वाले प्रोफेसरों से लेकर विश्वविद्यालय तक के अधिकारियों तक अपनी पैरवी भिड़ाने की महान योग्यताएं थीं जो आज के जमाने में बड़े काम की चीज है। उसका सबसे छोटा भाई अपने दोनों बड़े भाइयों के नक्षे कदम पर पूरी निश्ठा से चल रहा है। रामदरश बाबू को पूरा विष्वास है कि वह भी अपने परिवार का नाम रौशन करेगा और अपने कारनामों के बल पर बड़ा अफसर बनेगा।
चलते-चलते मेरा पैर सड़क पर पड़े एक पत्थर से टकराता है। मैं लड़खड़ा जाता हूँ । मेरी नजर मैगजीन कार्नर पर पड़ती है, जहां सामने ही रोजगार समाचार टंगा है। मैं इसे गैर रोजगार समाचार अर्थात् नॉन इम्प्लायमेंट न्यूज के नाम से पुकारता हूँ । दरअसल यह बेरोजगारों के मतलब का कम, उन रोजगारशुदा लोगों के मतलब का ज्यादा होता है, जिन्हें किसी रोजगार अथवा कार्यक्षेत्र में तीन .... पांच .... दस साल का अनुभ्व हो। अब ये अनुभव बेरोजगारों के पास कहां से आयेंगे?
इस तथाकथित रोजगार समाचार पर नजर पड़ते ही मुझे ध्यान आता है कि इसमें अथवा इसके आगे-पीछे के किसी अंक में रेलवे परीक्षा का परिणाम निकलने वाला है। मैंने यह परीक्षा पिछले साल दी थी। मेरे दिल की धड़कन तेज हो जाती है। ऐसा हर बार ही होता है। दुकान पर जाकर रोजगार समाचार की एक प्रति उठाकर उसके पन्ने पलटने लगता हूँ । एक पन्ने पर ध्यान टिक जाता है ‘रेलवे रिक्रूटमेंट बोर्ड-महेन्द्रू, पटना-परीक्षा फल’। मेरा दिल धौकनी बन जाता है। मैं उस पेज पर अपनी नजरें गड़ा देता हूँ ।
‘‘भाई जी। दो रुपये।’’
‘‘क्यों अभी कुछ दिन पहले मैंने पिछला अंक एक ही रुपये में खरीदा था?’’
‘‘आप कहां हैं? देखते नहीं पहले पेज पर इसका दाम लिखा है - डेढ़ रुपये। पचास पैसे पटना से यहां लाने के हुए। स्पेशियली इसे पटना से मंगाया है। यहां का एजेंट अब इसे नहीं मंगाता।’’
‘‘यह क्या धांधली है?’’
‘‘धांधली नहीं। इसे मंगवाने का खर्च तो मैं अपनी जेब से दूंगा नहीं। लेना है तो लो नही तो रास्ता नापो।’’
मैं गुस्से से तिलमिला उठता हूँ । लेकिन अपने पर काबू रखते हुए रोजगार समाचार खरीदे बिना हट जाता हूँ । अब मैं सीधे लाइब्रेरी जाकर ही अपना रिजल्ट देखूंगा।
मेरा मन खीझ से भरा हुआ था। जब मैंने चार साल पहले कम्पिटीशनों की तैयारी षुरू की थी जब इसके दाम केवल पच्चीस पैसे थे। पिताजी सैंकड़ों बार कह चुके हैं कि रोजगार समाचार सहित कम्पिटीशनों में उपयोगी पत्र-पत्रिकाओं को घर पर ही मंगवाया करो। लेकिन मुझे ऐसा करने की हिम्मत नहीं पड़ती। इसके लिए हर महीने कम से कम पचास से से एक सौ रुपये जरूरी हैं। इतने पैसे कहां से आयेंगे? पिताजी जिस आर्थिक तंगी में हैं उसे देखते हुए मुझे उन पर और बोझ डालना बहुत अखरता है। मैं तो उनसे फार्म भरने अथवा इंटरव्यू के लिए पटना अथवा अन्य कहीं अन्य कहीं जाने के लिए किराये का पैसा माँ गते समय भी अपराध-बोध से भर जाता हूँ । कई बार तो उनसे जरूरी खर्च के लिए पैसे माँ गने की हिम्मत नहीं जुटा पाता हूँ । हालांकि पिताजी ने कभी भी मुझे पैसे देने से इंकार नहीं किया। परन्तु यह तो मैं ही जानता हूँ कि वह किस तरह इसका इंतजाम करते हैं। इसके लिए कर्ज लेने, उधार माँ गने से लेकर घर में आवष्यक खर्च में कटौती करने जैसे तरीके अपनाने पड़ते हैं। लेकिन दो-दो जवान बेटियों की शादी की चिंता और गहरे कर्ज में डूबे होने के बावजूद वह मेरी हर माँ ग की पूर्ति करते हैं। उनका एक ही सपना है कि मेरी अच्छी-सी नौकरी लग जाये ताकि मेरी शादी में वसूली गयी दहेज की भारी रकम से दोनों लड़कियों की शादी निबटा दी जाये।
बेटे की अच्छी नौकरी, उसकी शादी में भरपूर दहेज मिलने, अपनी लड़की की शादी किसी अच्छे परिवार में कर देने और बुढ़ापे के दिन सुख से काटने के परम्परागत सपने माँ और पिताजी की में उस समय जोर-शोर से हिलोरें लगे थे जब मैं आई.ए.एस. की पी.टी. में आ गया था। दो-दो जवान बेटियों की शादी की चिंता से मुरझायी इन दो जोड़ी आँखों में रंगीन खुशफहमियां अंगड़ाई लेने लगी थीं। एक तरह से परिवार के सुनहरे कल की उम्मीद मेरी सफलता की संभावना पर ही टिकी थी जो श्रृंखलाबद्ध असफलताओं से भरभरा कर धराशायी हो गयी। मैं आई.ए.एस. की परीक्षा में तीनों मौकों के साथ-साथ संघ लोग सेवा आयोग की अन्य परीक्षाओं से लेकर बिहार लोक सेवा आयोग, कर्मचारी चयन आयोग, विभिन्न बैंकिंग सर्विस और रेलवे रिक्रूटमेंट बोर्डों की परीक्षाओं तक में अपना भाग्य आजमा चुका हूँ , लेकिन साली कामयाबी ने मुझसे हर बार बेवफाई ही की।
मैं चलते-चलते ठिठक जाता हूँ । यह सड़क प्रीति के घर जाती है। वह जरूर अपने घर के बाहर बरामदे पर बैठी होगी अथवा छत पर टहल रही होगी। उसने मेरी असफलता को लेकर मेरे प्रति किस तरह की धारणा बनायी होगी यह तो मैं नहीं जानता। परन्तु मुझे अब उससे निगाहें मिलाने में डर-सा लगता है। कभी मैं रिक्शे पर कॉलेज जाती अथवा कॉलेज से घर लौटती प्रीति का साइकिल से पीछा करने, उसके कॉलेज के इर्द-गिर्द मंडराने और कॉलेज के निकट किसी पान की दुकान पर खड़े-खड़े उसकी राह देखने जैसे काम पूरी निश्ठा से करता था।
यह सोचकर कि आसपास के लोग चलते-चलते यों रुक जाने के कारण मुझे पागल समझ रहे होंगे, मैं यंत्रवत् उसी रास्ते पर बढ़ने लगता हूँ , जो प्रीति के घर जाता है। दूर से मैं अंदाजा लगा लेता हूँ कि दूर छत पर टहल रही धुंधली-सी आकृति प्रीति की ही है। मैं अपना दिल मजबूत बनाकर आगे बढ़ता रहता हूँ ।
मैंने कस्बाई प्रेम की त्रासदी अच्छी तरह भोगी है। जान हथेली पर लेकर छुप-छुप कर मिलना। नाना तरकीबों के जरिए प्रेम-पत्रों का आदान-प्रदान करना। हर समय इस आशंका से ग्रस्त रहना कि पता नहीं कब किसी परिचित की नजर हम दोनो पर पड़ जाये और बावेला मच जाये। लेकिन इसके जो मजे हैं वह शायद दिल्ली और बंबई जैसे महानगरों के खुले समाज में बेधड़क प्रेम करने वाले प्रेमियों को भी नसीब नहीं होंगे।
प्रीति की आकृति धीरे-धीरे स्पष्ट होने लगती है। लेकिन मैं हर बार की तरह इस बार भी प्रीति के घर तक पहुंचने से पहले आगे वाली गली में घुस जाता हूँ । गली का दूसरा छोर धनेश्वर घाट मोहल्ला में समाप्त होता है जहां कस्बे की सबसे उपेक्षित चीज है - पुस्तकालय। अंग्रेजों के जमाने का। खंडहर हो चुके तीन कमरे तथा एक बरामदा। दो कमरों में सड़-गल रही लकड़ी की रैकों पर धूल भरी फटी-पुरानी किताबें पड़ी हैं, जिनका वर्षों से असंख्या दीमकें बड़े चाव से अध्ययन कर रही हैं।
इस समय पुस्तकालय में समाज का अवांछित हिस्सा बनने के मेरे नक्शे कदम पर चलने वाले दो-चार सिरफिरे पाठक अखबारों में अपना सिर घुसाये बैठे हैं। कस्बे में चार-चार सिनेमा घर खुल जाने के बाद यहां आने वाले पाठकों की संख्या लगभग नगण्य हो गयी है। मुझ जैसे फालतू लोग की अपना समय बर्बाद करने आते हैं। देश की 21वीं सदी में ले जाने वाले कल के महान नागरिक तो सिनेमाघरों, वीडियो शोज अथवा ताष व जुए जैसे खेलों की मंडलियों में बैठकर देश को विकास के पथ पर अग्रसर करने का प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं।
अभी तक पुस्तकालयाध्यक्ष महोदय के चरण कमल यहां नहीं पड़े थे, सो रोजगार समाचार देखने के लिए उनकी राह देखनी ही थी क्योंकि रोजगार समाचार तथा अन्य पत्र-पत्रिकाओं को रोजगार-संबंधी विज्ञापनों वाला हिस्सा अथवा फिल्मी तारिकाओं की अर्धनग्न तस्वीर काट लेने वाले दुर्दांत पाठकों से बचाने के लिए पुस्तकालयाध्यक्ष के कमरे में रख दी जाती है। पुस्तकालयाध्यक्ष उच्च भारतीय परंपरा का निर्वाह करते हुए पुस्तकालय बंद होने से कुछ पहले आते हैं। मैं एक कुर्सी पर बैठकर एक अखबार उठा लेता हूँ । मेरी नजर एक पेज पर टिक जाती है जिसमें देश के मौजूदा हालात पर एक अच्छा-सा लेख छपा है। मैं इसे पढ़ने लगता हूँ ।
‘‘दिमाग तो है ही नहीं विभुआ को। बड़ा आई.ए.एस. अफसर बनने चला था।’’
‘‘पगला गया है विभुआ।’’
‘‘ ..................................................... ’’
ऊहूँ । अखबार नहीं पढूंगा। जरा मैगजीनें देख ली जाये। दो-चार पन्ने उलट-पलट कर ही उन्हें रख देता हूँ । अभी पुस्तकालयाध्यक्ष महोदय नहीं आये थे। मैं समने की दीवार पर टंगी दीवार घड़ी पर अपनी नजरें टिका देता हूँ ।
अगर रेलवे में भी हो गया तब भी ठीक है, आजकल नौकरी कहां मिलती है? रेलवे की नौकरी तो फिर भी सेंट्रल सर्विस है। काफी सुविधाएं हैं - ऑल रूट पास, क्वार्टर, तमाम तरह के भत्ते। सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि माँ -पिताजी की आँखों में छाये निराशा के बादल कुछ तो छंटेगे - शायद पूरी तरह ही। रेलवे में हो जाने के बाद मैं बी.पी.एस.सी. की जोरदार तैयारी करूंगा। इसमें तो अंतिम उम्र सीमा तीस वर्ष तक है।
साइकिल की घंटी बजते ही मेरा ध्यान टूटता है। मैं समझ जाता हूँ कि पुस्तकालयाध्यक्ष महोदय का शुभागमन हो रहा है।
जब मैं किसी परीक्षा का रिजल्ट देखने के लिए रोजगार समाचार के पन्ने पलटता हूँ , लगता है जैसे कोई पहाड़ पलट रहा हूँ । बहुत ही कठिन दौर से गुजरना पड़ता है। वैसे अब यह अनुभव काफी पुराना पड़ चुका है - धड़कते हुए दिल से रोजगार समाचार के पन्ने खोलना, सुपर सोनिक आवृत्ति से धड़क रहे दिल पर काबू रखते हुए रोल नंबर ढूंढना और फिर निराश हो जाना। जैसे इस बार हुआ। ऐसे समय में लगता है कि शरीर से समूचा रक्त चूस लिया गया हो। खड़े रहने की ताकत नहीं बचती। बहुत देर तक बेजान-सा बैठा रहता हूँ । फिर लाइब्रेरी से एक-बारगी निकल कर पूरा कस्बा छान मारता हूँ । धनेश्वर घाट से पुल पर, वहां से कचहरी रोड, फिर नई सराय ....। ऐसे समय में एक कदम भी उठना दूभर होता है। फिर भी चलता रहा हूँ - बिना रुके हुए, बिना चारों तरफ देखते हुए। केवल यह ध्यान रखता हूँ कि किसी जान-पहचान के व्यक्ति से आमना-सामना न हो। किसी परिचित को देखते ही या तो कतरा कर निकल जाता हूँ या दूसरी राह पकड़ लेता हूँ । हर तरफ से माँ -पिताजी की आँखे मुझे बींध रहीं प्रतीत होती है। उनसे मैं बच निकलना चाहता हूँ । परंतु वे जान-पहचान वाले किसी की आँखे नहीं है कि उनसे कतरा कर बच निकला जा सके। ऐसे समय में मुझे घर जाने की हिम्मत नहीं पड़ती। पूरा कस्बा जैसे काटने को दौड़ता है। लगता है कि किसी निर्जन जगह में जाकर गला फाड़-फाड़ कर रोऊं।
मैं चलता रहता हूँ , भारी कदमों से। आगे जाकर एक पार्क में घास पर पसर जाता हूँ । रात हो आयी है। तारों से भरे आकाश की ओर सूनी आँखों से टकटकी लगाये देर तक निहारता रहता हूँ ।
कस्बे के स्टेशन से गुजरने वाली रात की ट्रेन की सीटी से यह अंदाजा लग जाता है कि काफी रात हो गयी है। इस समय तक मोहल्ले के सभी लोग सो चुके होंगे। लेकिन माँ अभी तक जाग कर मेरी प्रतीक्षा कर रही होंगी। वह अभी तक भूखी होंगी। वह मुझे खिलाकर ही खाती हैं। इस फेर में उन्हें कई रात भूखे ही सोना पड़ता है। इतनी रात तक मेरे घर नहीं लौटने की वजह से वह चिंतित हो रही होंगी। संभव है कि उन्होंने मुझे ढूंढने के लिए पिताजी को मोहल्ले में इधर-उधर भटकने के लिए मजबूर कर दिया हो। पिताजी मोहल्ले में मेरे पुराने दोस्तों के घर जाकर मेरे बारे में पूछताछ करते फिर रहे होंगे। यह भी संभव है कि माँ और दोनों बहनों ने पड़ोसियों के यहां जाकर मेरे इतनी रात तक घर नहीं लाटने को लेकर रोना-धोना शुरू कर दिया हो।
मुझे यह सब बहुत लगता है। मैं चाहता हूँ कि मुझसे कोई किसी तरह ही अपेक्षा न रखे। कोई मेरी चिंता न करे। मैं माँ से कई बार कह चुका हूँ कि मेरे लिए परेशान न हो। लेकिन उन्हें समझाया थोड़े ही जा सकता है। उन्हें और घर के अन्य लोगों को लगता है कि मैं कुछ न कुछ करूंगा और एक दिन पूरे परिवार की किस्मत खुल जायेगी।
मैं अब यहां एक क्षण भी नहीं रुक सकता। घर जाने के लिए एक झटके से उठ खड़ा होता हूँ । घर की ओर तेजी से कदम बढ़ाने लगता हूँ । रास्ते में मेरे दोस्त सुलभ की दुकान है। मेरे पांव अचानक ठिठक जाते हैं। दुकान बंद हो चुकी है। दुकान के बाहर बोर्ड लटका है ‘सुलभ वस्त्रालय’। मेरी नजर उस पर टिक जाती है।
सुलभ ने मेरे साथ ही कम्पिटीषनों की तैयारी शुरू की थी। परंतु दो साल बाद उसने जहां-तहां से कर्ज लेकर यह दुकान खोल ली। मैंने उसे ऐसे काम करने पर काफी भला-बुरा कहा। उसे पलायनवादी, मेहनत से जी चुराने वाला, अस्थिर दिमाग वाला, बेवकूफ और इसी तरह के अनेक विशेषणों से विभूषित किया। परंतु वह अपनी बात पर अटल रहा। आज उसकी दुकान खूब चल रही है। काश मुझे भी पहले अक्ल आ जाती। अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है। सुलभ ने ठीक ही इन कम्पिटीशनों को भ्रमजाल कहा था। अभी इस फंदे को तोड़कर निकला जा सकता है। अगर मैं भी कपड़े की एक दुकान खोल लूं तब कैसा रहे? क्या पता दुकान चल निकले। लेकिन दुकान खोलने के लिए इतने पैसे आयेंगे कहां से? पिताजी कोई अफसर तो हैं नहीं। महज हेड क्लर्क होकर रिटायर होंगे यही डेढ़-दो हजार वेतन मिलता है। ऊपर से इतना खर्च।
लेकिन मैं इतने पैसों का इंतजाम तो कर ही सकता हूँ जिससे कपड़े की दुकान तो नहीं परंतु पान की गुमटी खोली जा सके। इसमें बुरा भी क्या है? बहुत-से लोग छोटे-मोटे धंधे से मालामाल हो गये। एक-दो हजार में सभी सामान आ जायेंगे। मैं चाहूँ तो अपनी सभी किताबों व कॉपियों को ही बेचकर सौ रुपये जुटा सकता हूँ । कुछ दोस्तों और इधर-उधर से उधार ले सकता हूँ । गुमटी चल निकली तो दो-एक महीने में सभी उधार चुकता कर दूंगा। और फिर गुमटी चलेगी कैसे नहीं? मोहल्ले के निकट जो कचहरी चौराहा है वहीं अपनी गुमटी लगाऊंगा। वहां से सुबह-षाम बल्कि देर रात तक लोगों का आना-जाना लगा रहता है। दफ्तर के समय तो लोगों का मजमा ही लगा होता है। आजकल पान-बीड़ी-सिगरेट खाने-पीने वाले लोगों की संखा भी तो बेहिसाब हो गयी है। मैं गुमटी को खूब सजाकर रखूंगा। अच्छे पान, अनेक तरह के मान-मसाले, जर्दे .... बीड़ी-सिगरेट .... कोल्ड ड्रिंक्स के अलावा कुछ स्टेशनरी सामान भी रखूंगा। अगर गुमटी चल निकली तो इससे होने वाली आमदनी अच्छी नौकरी वालों के भी कान काटेगी।
लेकिन ऐसा हो पायेगा क्या? पिताजी और घर के लोग ऐसा करने देंगे? इससे परिवार की प्रतिश्ठा बढ़ेगी? लोग-बाग क्या कहेंगे? आखिर गुमटी ही खोलनी थी तो इतना पढ़ने की जरूरत क्या थी?
लेकिन क्या मैं इसी चक्रव्यूह में घिसटता रहूँ ? इस भ्रमजाल से तो निकलना ही होगा। अगर चार साल का समय दूसरे कामों में लगाया होता तो कम से कम इस विकल्पहीनता की स्थिति से उबर जाता।
मैं अपने मोहल्ले के निकट के कचहरी चौराहे तक पहुंच चुका था। घर बिल्कुल निकट आ गया। मैं तेजी से घर आने वाली सड़क पर चल पड़ता हूँ । घर पहुंचने से पहले फिर संकल्प करता हूँ कि कल से पूरे जोर-शोर से कम्पिटीशनों की तैयारी में लग जाऊंगा। कल से सुबह चार बजे उठ जाऊंगा। हल्का-फुल्का व्यायाम करने के बाद पढ़ने बैठूंगा। कम से कम चौदह घंटे पढ़ूंगा। जितनी भी तरह की वैकेंसीज निकलेंगी, सभी भरूंगा। देखता हूँ कि किसी अच्छे कम्पिटीशन में मेरा सेलेक्शन कैसे नहीं होता है। फिर साहिर की एक गजल गुनगुनाते हुए घर की ओर बढ़ चलता हूँ ।
-- वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना ना हो मुमकिन..
उसे इक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा।....