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गुबार

गुबार

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कुमुद को मैंने जब भी देखा, जब भी मेरी उससे मुलाकात हुई वह हमेशा खुन्नस खाया और चिढ़ा हुआ ही रहता था। उसकी बात का हर सिरा शिकायतों से शुरू होता और शिकायतों पर ही खत्म, न दुआ न सलाम, बस सीधी शिकायतें, एक नहीं बल्कि पूरा पुलिंदा।

पहले तो उसकी बातें सुनकर उस पर, उसकी हालत पर नील को तरस आता, बाद में धीरे-धीरे उसकी बातों से ऊब होने लगी, फिर चिढ़ और फिर एकदम ही मन उचट जाता। अक्सर वह सोचता - जब उसके साथ के इस सफर ने मुझे थका कर रख दिया है तो मैं क्यों नहीं उससे दूर जा पाता हूं। मेरी इस थकान ने मुझे मेरे सामाजिक जीवन से बहुत दूर कर दिया। यूं तो मैं समाज में ही था, लोगों के बीच था, बोलता-बतियाता भी था फिर भी कितना दूर था इसका तो मुझे भी कोई अंदाजा तक नहीं था। लेकिन ना जाने क्यों मेरे भीतर हलचल मची हुई थी अजीब-सी बेचैनी का आलम था जिसे मैं समझ कर भी नहीं समझ पा रहा था, शायद यही मेरी कमतरी थी जो मुझे खुद से अलग कर रही थी। और जब कभी इन बातों पर गौर करता तो अक्सर सोचता कि भाई, मैं क्यों अपनी कमतरी के अहसास में खुद से ही अलग हो जाता हूं ! मेरा अपना भी तो कोई वजूद है जो मुझे हालात का सामना करने में सक्षम बनाता है। अपनी इस सोच के चलते मैं थोड़ा उससे लापरवाह रहने लगा। इसका परिणाम यह हुआ कि उसकी शिकायतों के साथ-साथ तानेकशी ने भी ले ली। अब इन शिकायतों और तानों के हमले जबर्दस्त होने लगे जिनको झेलना मेरे बस में नहीं था फिर भी झेलने की असफल कोशिश कर रहा था। मेरी इसी कोशिश का फायदा उठाया उसने, अब तो वो जब तब लड़ने को तैयार रहता। उसका सामना करने से भी अब डर लगता, मेरी इस बात को भी उसने खूब भुनाने की कोशिश की। मैं जितनी शान्ति से अपनी बात को समझाने की कोशिश करता वह उतना ही अशांत और बेचैन होकर झगड़ा करता, मेरी बात तो सुनता ही नहीं था इससे मुझे और तकलीफ़ होती, कोफत होती कि मैंने इससे बात की ही क्यों और ? अब कभी भी उससे बात नहीं करूंगा। आज से अभी से ! लेकिन होता क्या, जब वो खुद ही पहल करता और बड़े प्यार से बोलता तो लगता मेरा अपना है, अरे मेरे अपने दोस्त को ऐसे-कैसे छोड़ दूँ, माना कि वो बड़ा आदमी है, जाहिर है लोग उसके आगे-पीछे घूमते हैं, लोगों की, रिश्तों की भरमार रहती है उसके पास फिर भी दोस्ती के रिश्ते की उसे जरा भी कदर नहीं ! इस तरह खुद ही खुद को डांटने लगता। ऐसे में न तो मैं छूट पा रहा था और न ही जुड़ पा रहा था , सांप छुछंदर की स्थिति थी !


इस बार मैंने मन को कड़ा किया कि अब बस, जो भी हो पर मुझे टस से मस नहीं होना है और सच में मैं अपने फैसले पर कायम था पूरे तीन दिन हो गए थे न मैं उससे मिला न उसे फोन किया, उसका फोन रिसीव भी नहीं किया...मैं बड़ा खुश कि मैंने फतह पा ली मगर मुझे क्या पता था कि मेरी यह खुशी आज के सूरज ढलने के साथ ही ढलने वाली है और हुआ भी यही। मैं अभी खाना खाने बैठा ही था कि आया दनदनाता हुआ, उसकी आवाज़ सुनते ही सबसे पहला ख्याल आया - बस हो गया आज का खाना खराब, रात काली ! अजी विश्वास तो कीजिए हुआ भी वही ! लाख मिन्नतें की उससे, भाई पहले खाना खा ले बाद में इत्मीनान से बात करते हैं लेकिन मजाल है जो वो सुन ले ! अगर सुनता ही होता तो आज हमारा रिश्ता कुछ और ही होता, साथ ही उसका असर भी खुश नुमा होता ! लेकिन दोस्तों, ऐसा कुछ भी नहीं है बस, जो है उसका जिक्र मैंने शुरुआत में ही कर लिया था। अब देखना यह है कि बदलाव कैसे लाया जायेगा यही सबसे बड़ा मुद्दा है। यहां तो हम इसी को करने के फेर में रहते हैं मगर हो ही नहीं पाता है ! इससे बनता तो कुछ नहीं , हां बिगड़ता ज़रूर है ! अब अक्सर लगने लगता अगर इससे बात करके या उसे अहमियत देकर रिश्ते को मजबूत बनाने की कोशिश करना ही फ़िजूल है हासिल जब दुख ही होना है , अशांति और तकलीफ़ ही होनी है तो फिर इसका एक ही सोल्यूशन है , वो है एवोयड करना हालांकि मैं करता भी हूं लेकिन वो नहीं कर पाता , बार बार माफ़ी भी मांगेगा , रोना-धोना भी करेगा यहां तक कि झगड़ा भी करेगा मगर दूर जाने की कोशिश कभी नहीं करता है, बस सबकुछ बिना वजह कैसी भी ऊटपटांग हरकतें करेगा ! इसके पीछे उसका मकसद होता है जुड़े रहना, बस तरीक़ा ही गलत होता है और वो यह भूल जाता है कि सामने वाले पर क्या असर पड़ेगा ! मेरी उससे तकरार हो जाती है उसे समझाने के चक्कर में। इतना सब उल्टा-सीधा पंगा होने के बाद भी उसके साथ रहने की सोच भी नहीं सकता क्योंकि पहले की सारी कोशिशें नाकाम होती गई कभी उसकी वजह से तो कभी मेरी वजह से ! जब हमारे रिश्ते पर चिंतन-मनन करता हूं तो भी कुछ पल्ले नहीं पड़ता लेकिन वो बचपन में ऐसा नहीं था । उसे ग्रेजुएशन के बाद पता नहीं क्या हुआ कि वो ऐसा बनता गया और आज हाल ये है।

एक दिन मैंने उसे बहुत जोर देकर पूछा, मैं पूछता रहा वो टालता रहा, इस टालम-टाली में पूरा एक साल बिता दिया लेकिन मैंने भी पीछा नहीं छोड़ा जब तक बताया नहीं ! आखिरकार वो बताने लगा - मैं शुरू से ही प्रोफेसर बनना चाहता था, मेरी इच्छा नहीं थी कि मैं पूरे दिन कपड़ों के अंबार तले दबा रहूं और एक - एक कपड़ा खोल-खोलकर उन्हें दिखाऊं, झूठ-मूठ उनकी तारीफ़ करूँ - "अजी मेडम जी यह रंग तो आप पर खूब जम रहा है..वाह जी वाह ! आपकी पसंद का तो जवाब नहीं !" और तो और ऊपर से साड़ियों को पहन-पहन के दिखाओ, कभी ऐसा एंगल तो कभी वैसा एंगल, फिर तारीफों के पुल बांधों भले वो काली-कलुटी, मोटी भैंस ही क्यों न हो, मुझे इतना गुस्सा आता है कि मैं कंट्रोल ही नहीं कर पाता हूं, जब तब बेवजह बीवी-बच्चों पर बरस पड़ता हूं, जरा भी नहीं सोचता, अरे भाई, इन बेचारों ने क्या बिगाड़ा है ये तो खुद ही मेरे फ्रस्ट्रेशन की चक्की में पिसने लगते हैं और मैं चाहकर भी खुद को संभाल ही नहीं पाता हूं !

पर यार तेरी दुकान तो दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की कर रही है, ऐसा तो कतई नहीं लग रहा है, तू गैर जिम्मेदाराना तरीके से काम कर रहा है, यार, तू बड़ा क़िस्मत वाला है जो तुझे इतना अच्छा, जमा-जमाया धंधा मिला और तू ऐसी बातें कर रहा है, इतने नौकर-चाकर काम करने वाले और क्या चाहिए यार ? नहीं तो मुझे देखो आठ घंटे की ड्यूटी और तीन घंटे आने-जाने के एक घंटा अपने पर्सनल कामों के लिए , बारह घंटे तो ऐसे ही चले जाते हैं तो फिर फैमिली के लिए कहां वक्त बचता है एक संडे मिलता है तो घर में रहकर आराम करने को मन करता है और बीवी-बच्चों को बाहर जाना होता है , ऐसे में घर का माहौल तौबा-तौबा ! सच कहूं - मैंने हमेशा तुम्हारी वाली जिन्दगी की चाहत की, हमेशा यही ख्वाहिश रही - काश, तुम्हारे जैसा मेरा भी बिजनेस होता ! लेकिन इन सबके लिए मेरी तो बस तमन्ना ही रह गई और तुम इससे ना खुश हो वो भी इतने कि अपने दोस्त को भी नहीं बताया, मगर हां , खुद भी दुखी होते रहे, टार्चर होते रहे और मुझे भी करते रहे ! तुमने कभी नहीं सोचा कि तुम्हारे दोस्त पर क्या बीतेगी ?

यार, सोचा, बहुत सोचा, हर बार कहने की कोशिश की पर कभी हिम्मत ही नहीं हुई ! मैंने तुम्हें भी बहुत तकलीफ़ दी। मानता हूं जो हुआ, ग़लत हुआ लेकिन तेरे अलावा यह सब किसी से कहने की सोच भी नहीं सकता था पर इस चक्कर में तुम्हें बहुत ही ज्यादा तकलीफ़ हुई इसका मुझे बेहद अफसोस है, यह भी सच है कि मैं खुद को तुमसे अलग महसूस ही नहीं करता दोस्त !

यह बिल्कुल सही है मुझे भी ऐसे ही महसूस होता है तभी तो तुम्हारी बातों से परेशान होकर तुमसे कितनी बार दूर जाना चाहा, गया भी पर कहां जा सका ? जानता है - इतने सालों में एक बात बड़ी शिद्दत से, बड़ी गहराई से समझ में आई और फिर यूं ही ऊपर की ओर देखने लगा जैसे किसी सोच में पड़ गया हो । इस तरह कुमुद को चुप देख कर नील ने कहा - अरे बोल ना अब सस्पेंस क्यों क्रियेट कर रहा है !

यही कि, इन्सान के पास जो होता है चाहे कितना भी क्यो ना हो फिर भी वो उससे संतुष्ट नहीं रह पाता उसे लगता है जैसे उसके साथ अन्याय हुआ है जो वो करना चाहता था , कर नहीं पाया और जो पाना चाहा, कभी नहीं मिला ! और जो मिला होता है उससे असंतुष्ट रह कर यही सोचता ही रहता है - काश मुझे ये मिला होता , वो मिला होता ! देख, हम दोनों इसका जीता-जागता उदाहरण हैं !

 बिल्कुल यार , तुमने मुझे झेला...

 क्या कहा - झे़ला, मैंने तुम्हें झेला है ? जरा भी शर्म नहीं आती नील ने अपनेपन भरे गुस्से में कहा तो कुमुद फट से बोला --

सॉरी सॉरी यार, मन पे मत ले, मत ले मेरे यार मत ले , तूने तो मुझे संभाला है पर साले, इसमें कौन-सी बड़ी बात है ! यार हम दोस्त हैं एक-दूसरे को संभालना हमारा नैतिक कर्तव्य है , सच में आज मेरा मन हल्का हो गया है आज के बाद तुम को और खुद को अब कभी तकलीफ़ नहीं दूँगा, नहीं दूँगा क्या बल्कि होगी नहीं, बोझ हट गया, अंधेरा भाग गया, सारे बादल छंट गए हैं ,चल, आ मेरे यार इक वारी जफी पा ले, आ यार, कहते हुए अपनी बाहें फैलाकर आगे बढ़ता है नील भी अपनी बाहें फैलाता है और दोनों गले मिलते हैं दिल के साथ आँखें भी भर आती है ।

चलिए आइये अगर भरत मिलाप हो गया हो तो गर्मागर्म पकौड़ों के साथ चाय का स्वाद लिया जाए, नाश्ते की ट्रे रखते हुए लीना बोली ।

कुमुद और नील को वाकई चाय-नाश्ते की सख़्त जरूरत थी, ऐसे टूट पड़े जैसे कुछ हुआ ही ना हो, इस तरह हल्के - फुल्के माहौल। में चाय-नाश्ता चलता रहा ! लीना मुस्कुराती रही। उसे मुस्कराया हुआ देखकर दोनों ने एक साथ कहा - देखो , हमारा मखौल उड़ाया जा रहा है, चालिए,उड़ा लीजिए, उड़ा लीजिए !

          लीना सोच रही थी - अच्छा हुआ, आज बरसों का गुबार निकल गया !                       

                                                  


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