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अंकुश की बेटियाँ

अंकुश की बेटियाँ

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      मोबाइल पर निहारिका थी- “हाँ नेह..... जल्दी बोलो, यहाँ बहुत खतरनाक स्टेज से गुज़र रहे हैं हम|”

      “क्या हुआ? तुम ठीक तो हो न अंकुश?”

      “मैं ठीक हूँ..... डोंट वरी..... रिपोर्ट मिली?”

      “हाँ..... लड़की है ट्विन्स.....”

      “ओह माई गॉड..... यू मीन जुड़वाँ..... छुटकारा पाओ यार..... कहाँ पाल रही हो हैडिक| कल ही माँ के साथ जाकर एबॉर्शन करवा लो|”

                निहारिका मौन थी| फोन कट गया| तभी कार के शीशे झनझना कर टूटे| अंकुश सहित चारों पत्रकार, कैमरामैन सहम गये| खून शिराओं में उबाल खाने लगा| बाहर हाथों में धारदार हथियार लिये, माथे पर केसरिया पट्टी बाँधे आठ दस नौजवानों का बौखलाया हुआ दल था- “नाम बताओ, धर्म बताओ..... वरना काटकर फेंक दिये जाओगे|”

      अंकुश ने ग़ौर से देखा| अधिकतर खाकी पैंट पहने थे| एक दो काले पैंट में भी थे, मगर रंगीन पट्टी सभी के माथे पर बँधी थी| कुछ के हाथों में त्रिशूल भी थे..... कुछ के हाथों में छुरे, तलवार.....

      गूँगे हो क्या?” टूटे हुए काँच में से तलवारें अंदर घुसीं| वे तपाक़ से बोले- “हम हिंदू हैं..... मैं अंकुश..... ये रोहित, आलोक, जसविंदर और नरसिंह|

      कैमरामैन के होंठ काँप रहे थे| अंकुश ने ही पहल करी सिद्दीकी को सूरज में बदलकर..... दल आश्वस्त हो आगे बढ़ गया| सबकी जान में जान आई|

      “अब हम तुम्हें पूरी रिपोर्टिंग के दौरान सूरज ही बुलायेंगे|” अंकुश ने सिद्दीकी की पीठ पर हाथ फेरा| लेकिन जसविंदर आतंकित था- “अगर हमलावर ,मुस्लमान हुए तो?”

“तो अल्लाह मालिक है|” कहते हुए रोहित ने सिगरेट सुलगाई और जलती हुई तीली आलोक की ओर बढ़ा दी|

कार हाइवे पर दौड़ रही थी| पर इतनी जल्दी वे दंगाई कहाँ लोप हो गये? दूर-दूर तक सड़क सुनसान..... मातम मनाती सी लग रही थी| हाइवे के दोनों ओर बसे गाँवों में भी सन्नाटा था लेकिन धुआँ और जले हुए प्लास्टिक, कपड़े, रस्सी, कागज की गंध हवाओं में बेशुमार रची बसी थी| मस्जिद के गुंबदों पर केसरिया पताकाएँ लहरा रही थीं| कई जगह तो दरागाहें तोड़कर वहाँ हनुमान और शिवलिंग के नाम से पत्थर रखकर सिंदूर और चंदन की रेखाओं से पोतकर फूल चढ़ा दिये गये थे| यह आक्रोश थे उन राम भक्तों को ज़िंदा जला दिये जाने के एवज जो अयोध्या में राम नाम का पत्थर राम मंदिर की नींव में चुनकर आये थे| सोचकर कलेजा मुँह को आता है| जुझारू पत्रकार होते हुए भी अंकुश अंदर तक हिल गया था इस अमानवीय घटना पर| इतिहास..... वो भी मध्यकालीन इतिहास में, जो जुल्म और अत्याचार का जीवंत दस्तावेज है एम. ए. किया है उसने..... चाहा था निहारिका की तरह वह भी अध्यापन ही करेगा लेकिन पत्रकारिता के आकर्षण में ऐसा बँधा कि फिर यहीं का होकर रह गया| निहारिका अलबत्ता पब्लिक स्कूल में हिंदी पढ़ाती है| लेकिन फ्रीलांस पत्रकारिता भी करती है| समाज के कुत्सित पहलुओं पर जीवंत और ज्वलंत लेख लिखकर| या फिर समसामयिक ख़बरों को मुद्दा बनाकर| कितनी मेहनती है निहारिका| सुबह का स्कूल, दोपहर को घर लौटकर सारे घरेलू काम निपटाना..... माँ, बकुल और स्वयं अंकुश जैसे लापरवाह मस्तमौला पति की देखभाल| कभी-कभी बकुल की शरारतें आसमान छूने लगती हैं तो झल्ला पड़ती है- “अंक, तुम्हारा लाड़ला मुझसे नहीं सम्हलता| ले आऊँ दूसरी?” वह शरारत करता|

“ए..... हिम्मत भी की तो मार डालूँगी| तुम्हें भी, उसे भी|”

“हम तो ऑलरेडी मरे हुए हैं नेह!” कहता अंकुश उसे बाँहों में भर लेता|

कार झटके से रुकी| सिद्दीकी ने सामने पेड़ के नीचे बैठी रो रोकर बेहाल हुई लड़की पर कैमरा फोकस किया| कैमरे की लाइट से चकाचौंध हुई लड़की चीख पड़ी- “नहीं, मत मारो मुझे..... छोड़ दो|”

सब उसके नज़दीक पहुँच गये| उसकी सलवार और कमीज जगह-जगह से फटी थी जिसमें से उसके खरौंचे गये अंग वहशी दरिंदों की दास्तान कह रहे थे| अंकुश ने उसके सिर पर हाथ फेरा- “तुम कौन हो, तुम्हारा घर कहाँ है?”

“मैं..... मैं आयशा..... नहीं नहीं मैं हिंदू हूँ हिंदू..... मुझे मत मारो|”

जसविंदर ने बोतल से उसे पानी पिलाया- “चलो बहना, तुम्हें तुम्हारे घर छोड़े देते हैं|”

“मेरा घर तो जल गया| मेरे अब्बा, चाचू सबको जिंदा जला दिया| वो दूध ले जाने वाली गाड़ी भी जला दी जिसमें मेरे मोहल्ले के लोग दूध के डिब्बे रखकर बेचने ले जाते थे| उस गाड़ी में बहुत लोग थे| सब जल गये, मर गये|” बचे खुचे गाँव के लोग उनके इर्द गिर्द इकट्ठा हो गुज़री रात की वहशी दास्तान बयाँ करने लगे|

“पुलिस भी मिली हुई है साहब दंगाइयों से, खड़ी खड़ी तमाशा देखती है|”

आलोक ने घटना का सिरा पकड़ना चाहा..... “आपके गाँव में तबाही किस संप्रदाय के लोगों ने मचाई, क्या खुलकर बतायेंगे?”

“क्या बतायें साहब, कौन थे वे? जब वे जय श्रीराम बोलते थे तो हिंदू लगते थे और जब अल्लाहो अकबर बोलते थे तो मुसलमान लगते थे| उन्हीं में से कुछ ने दरगाह पर हनुमान बैठाये और कुछ ने उन दुकानों को कैरोसिन से नहलाकर जला दिया जिसमें गणपति पूजा और मकर संक्रांति के समय बिकने वाला पूजा का सामान, पतंगें रखी थीं|”

वे छहों अवाक थे..... कलम किस पर चले? मरने वाले मुसलामानों के ख़िलाफ़ दंगाइयों के ऐलाने जंग पर या कारसेवकों को ज़िंदा जला दिये जाने के खिलाफ छिड़े धर्मयुद्ध पर.....

उन्होंने बोतलों से पानी पिया, भीगी आँखों को धोया और गाँव वालों से अलविदा ले कार में आ बैठे| अंकुश का सिर भारी हो चला था| कनपटी से तीव्र दर्द की अनुभूति अब भौहों तक फैलने लगी थी| उसने डिस्पिरिन की गोली खाई और चेहरे पर रुमाल रखकर कार की सीट से सिर टिका दिया| बाकी बहस में मुब्तिला थे| लेकिन अंकुश की आँखों के सामने वह लड़की थी..... सिसकती..... काँपती..... कभी अपने को मुसलमान कहती तो कभी हिंदू..... माँ ने बताया था विभाजन के समय गुड्डो बुआ के गुमने के किस्सा|

तब माँ बाबूजी रावलपिंडी में थे| बाबूजी की नई-नई शादी हुई थी और देश दो टुकड़ों में बँट गया था| हिंदुस्तान पाकिस्तान के नाम पर वहाँ के बाशिंदे भी बँटने लगे थे| अंग्रेजों की लगाईं फूट डालने की आग ने सबको अपनी चपेट में ले लिया था| सब तरफ़ ‘मारो काटो’ के नारे बुलंद थे| हिंदू मुसलमान को मार रहा था, मुसलमान हिंदू को..... कोई किसी को पहचान नहीं रहा था| पड़ोसी, मित्र सब पराये और दुश्मन हो गये थे| जो जिस हाल में था, भाग रहा था..... अपनों से..... पुश्तान पुश्त के संबंधों से, अपनी ज़मीन से..... अपने घर से|..... धुआँ, दहशत, खून बरसाती रातें और लपकती आग में झुलसते घरों के बीच से बाबूजी कैसे माँ और तीनों बुआओं को लेकर भागे होंगे..... जबकि रात को पिछवाड़े से दंगाई घुस आये थे और सोए हुओं को चादर उघाड़-उघाड़कर तलवारें भोंक-भोंककर मार रहे थे| दादी, बाबा, दोनों चाचाओं की बस चीख भर निकली थी और सब स्वाहा.....

ऊपर की मंज़िल में तीनों बुआएँ सोती थीं| बुआओं के कमरे से लगा माँ बाबूजी का कमरा..... दंगाई चीख रहे थे..... “निकल साले नामर्द..... कहाँ छुपा बैठा है सब औरतों को लिये|”

वे चीखते और चीख के साथ ही झनझनाकर टूटते काँच के प्याले, तश्तरी, तस्वीरों की काँच..... बर्तन सब कुछ ख़त्म कर रहे थे वे| बाबूजी दौड़े थे सीढ़ियों की ओर हुंकारते हुए पर तीनों बुआएँ उनसे लिपट गई थीं..... “नहीं भैया..... अब कुछ नहीं बचेगा..... सब ख़त्म हो जायेगा, हम कुछ नहीं कर सकेंगे|”

अब कुछ नहीं बचेगा, मान लिया था बाबूजी ने भी और हताश वे चारों को लेकर छत से पीछे गली में उतरती सीढ़ियों से भाग निकले थे| अंदर उनके जन्मदाता और भाइयों की लाशें इस उम्मीद में पड़ी थीं कि उनका दाह संस्कार होगा, उनका बेटा और भाई उनकी अस्थियाँ बीनकर, कलश में भरकर गंगा की धारा में प्रवाहित करेगा..... पर, ज़िंदग़ी की पकड़ मज़बूत थी और मौत फिसल चुकी थी..... वे अपने ज़मीर को धिक्कार रहे थे कि तभी उनका पूरा घर धू-धू कर जल उठा| बरगद के पेड़ के नीचे रूककर बाबूजी ने मन-ही-मन वे मंत्र दोहराये जो अंतिम कर्म के समय कहे जाते हैं और माँ के कंधे पर सर रख फूट-फूटकर रो पड़े थे..... आह! किन जन्मों का भुगतान है ये..... न वे माँ, बाप, भाइयों की रक्षा कर पाये न उनका अंतिम कर्म ही..... वे पैदा ही क्यों हुए..... सहसा उनके बेबस हाथों की मुट्ठियाँ कस गई थीं जो ताबड़तोड़ उनकी अपनी छाती पर बरस रही थीं| रोका बुआओं ने- “क्या कर रहे हैं भैया..... क्या दोष है आपका? हमने सोचा था क्या कि ऐसा होगा? पुश्तान पुश्तों से जमे बसे हम यूँ लावारिस हो जायेंगे|”

लेकिन शक्ति जवाब दे चुकी थी| बाबूजी बरगद की उभरी जड़ों पर ढह गये| सब उनके करीब ही दुबक गये..... मानो बरगद ने सबको पनाह दे दी हो| पर न जाने कहाँ चूक हो गई| गुड्डो बुआ पेशाब के लिये नज़दीक की झाड़ियों में गईं तो फिर लौटी ही नहीं| न चीख, न पुकार..... गई कहाँ बुआ? बाबूजी पागलों की तरह झाड़ियों को हाथ में पकड़ी लाठी से टटोलकर पुकारते रहे..... “गुड्डो..... गुड्डो..... कहाँ है गुड्डो तू?”

“यहाँ|” बाबूजी पलटे..... माँ के हाथों में बुआ की पहनी हुई नीली सलवार थी| फटी, नोंच नोंच कर उतारी हुई| कहर बरसाती रात में बाबूजी की लंबी चीख ‘गुड्डोऽऽऽ‘ खुद भी कहर बनकर धरती आसमान कँपा गई|

वह झाड़ी अंकुश ने देखी नहीं थी पर वह उसकी स्मृतियों में इतनी पैबिस्त है कि कोई भी झाड़ी देख वह थरथरा उठता है| गुड्डो  यानी मँझली बुआ को तो देखा तक नहीं है उसने| माँ कहती हैं-“हमारा कुसूर था हिंदू होना और हिंदू होकर रावलपिंडी में रहना|”

वह माँ की गोद में लेट जाता है- “नहीं माँ, हमारा कुसूर था प्रजा होना..... उन मुट्ठी भर नेताओं की जो अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिये कुछ भी करा डालते हैं|” कार शरणार्थी शिविर के सामने रुकी| दंगा पीड़ितों का हुजूम जहाँ शरण लिये हैं| अंकुश को लगा उसके माँ, बाबूजी भी यहीं कहीं हैं..... और इंतजार कर रहे हैं उस वक़्त का जो अब आयेगा तो उन्हें मुंबई पहुँचा देगा और वे शरणार्थी नहीं रहेंगे, घर द्वार वाले हो जायेंगे| शरणार्थी शिविर में मर्द, औरत बच्चे राहत सामग्री के लिये हाथ फैलाये हैं| पेट की भूख ने उनकी सारी ग़ैरत निगल ली है| उनका अपना कहने को कुछ रह नहीं गया| बस ये भूख है जो चाहे दुःख हो या सुख पीछा नहीं छोड़ती| वे सब अपने कागज पत्तर, कैमरे सम्हाल अखबारों के लिये सामग्री जुटा रहे हैं| हर एक से उन पर गुज़री भयावहता को हूबहू बयान करने की अपील लेकर.....

“क्या बतायें आपको..... यह कि कैसे दुधमुँहे बच्चों पर कहर ढाया है इन पिशाचों ने? या कि यह कि चहल पहल से भरे घर के दरवाजे बंद कर पानी से भर दिया तमाम कमरों को और उसमें बिजली दौड़ा दी| अरे साहब, बीस लोग मर गये उस घर में इस बर्बरता से..... सब एक ही परिवार के|” कहते हुए वह अधेड़ फूट-फूटकर रो पड़ा था और रो पड़ी थी मानवता.....

औरतों के कटे हुए स्तनों से भरे पैकेट..... नन्हे बच्चे की आँखों के सामने कूट-कूट कर मारे गये उसके माँ, बाप, भाई, बहन..... जिंदा जलाये जाते मर्द, एक औरत देह को चीथते दस-दस आदमज़ात भेड़िये..... और शर्त बदते लोग-

“आज मुसलमान ज़्यादा मारे जायेंगे? नहीं, हिंदू मारे जायेंगे..... लगी शर्त पचास हजार की|”

और शर्त लगाते लोगों द्वारा ही छेड़े गये दंगे..... मुँह पुलिस का भी रुपयों से ठूँसा गया..... तभी तो वह निठल्ली खड़ी देखती रही|

समाजसेवी, दंगा पीड़ित इसे आतंकवादी कार्रवाई कह रहे हैं| यह कट्टरपंथियों का ऐसा वहशी गिरोह था जिसने धार्मिक चश्मे पहन बर्बरता का विभाजन की त्रासदी से भी भीषण कीर्तिमान स्थापित किया था| यह मानो एक सधे हुए गिरोह का योजनाबद्ध काम था..... ट्रकों में भरकर दंगाई आते..... उनके हाथों में हथियारों के साथ मोबाइल फोन भी होते जिससे वे पल पल की ख़बर अपने बॉस को देते| बॉस जैसा निर्देश देते वे वैसा ही कर गुज़रते|

रात उन सबने गेस्ट हाउस में गुज़ारी| गेस्ट हाउस किसी बैंक का था जिसने राहत शिविरों में भारी राशि दान में दी थी| बाहर पहरा..... पुलिस का नहीं, बैंक की अपनी व्यवस्था थी| सभी ने जैसे तैसे खाना निगला, थोड़ी-थोड़ी शराब पीकर जो नींद लाने के लिये ज़रूरी थी| अंकुश ने थोड़ी ज़्यादा पी ली थी| एक तो मौजूदा हालात, बर्बरता का तांडव फिर माँ बाबूजी का अतीत और फिर उसका अपना भविष्य जो मुँह बाये खड़ा था| उसके अपने प्रोफेशन, निहारिका के जॉब में इतना दम कहाँ था कि बकुल के साथ-साथ उन जुड़वाँ लड़कियों की भी जिम्मेदारी उठा सकें जो निहारिका की कोख में अंकुरित हो चुकी हैं| कितना प्रीकॉशन लिया था उन्होंने पर न जाने कैसे ये हो गया| उन्होंने तय कर लिया था कि बकुल के बाद अब और नहीं..... बल्कि अब कभी नहीं..... माँ कहतीं- “देख अंकुश, तेरी गुड्डो बुआ लौट आई हैं..... वैसी ही बड़ी बड़ी काली आँखें, भौंहों के बीचों-बीच वैसा ही काला तिल है बकुल के|”

तब यह सुनकर अच्छा लगा था पर गुज़रात के दंगाग्रस्त इलाकों में रिपोर्टिंग करते हुए वह जो पेड़ के नीचे बैठी, सिसकती लड़की मिली थी..... और जो उसे तब बेतहाशा गुड्डो बुआ याद आ गईं थीं..... उस हालात में तो बिल्कुल भी अच्छा नहीं लग रहा था वह सब..... बकुल और गुड्डो बुआ..... और दोनों के बीच एक बिल्कुल अनचाही विरोधी परिस्थिति..... निहारिका की कोख के वे जुड़वाँ कन्या भ्रूण ओह, क्या करे वह? डरता है हालात से? या अपने आप से? या आर्थिक संकट से? या गुड्डो बुआ के संग गुज़रे वहशीपन से? उसने देखी नहीं, पर वो नीली सलवार अक़्सर उसके ख़्वाबों में आती है जो माँ के अनुसार गुड्डो बुआ ने अंतिम समय में पहनी थी..... नीली सलवार या नीला ज़हर..... औरत होने के जुर्म को सज़ा देता..... उँगलियाँ मोबाइल के नंबरों पर घूमीं-

“हलो नेह..... क्या सोचा?”

“किसके बारे में अंक? पहले अपनी तो कहो, कैसे हो?” निहारिका का उतावली भरा स्वर सुन उसने संक्षेप में अपनी बात कही- “मैं ठीक हूँ..... लौटने में पंद्रह दिन भी लग सकते हैं| दो दिन के बाद हम दिल्ली जायेंगे| टी.वी. रपट प्रिंट मीडिया की ख़बरों का हवाला देना है..... पत्रकार संघ की गोष्ठी है, समय लग सकता है| तब तक बहुत देर हो चुकी होगी| तुम माँ के साथ जाकर एबॉर्शन की डेट फिक्स कर लो..... यह तो तय है कि हमें अब चाइल्ड नहीं चाहिए|”

और निहारिका के कुछ कहे बग़ैर ही उसने फोन काटकर मोबाइल ऑफ कर दिया| एक पैग और पिया और फोल्डिंग पलंग पर लेट गया| उसकी सोच आँधी की गिरफ़्त में थी|

कैसा लगा होगा माँ बाबूजी को गुड्डो बुआ को खोकर! वह असहाय परिस्थिति जब वे चाहकर भी बुआ को ढूँढ नहीं पाये और ज़िंदा बचे लोगों की ज़िंदग़ी की खातिर उन्हें हिंदुस्तान के शरणार्थी शिविर में शरण लेनी पड़ी| दादी, बाबा, दोनों चाचा उनकी आँखों के सामने सांप्रदायिकता की आँच में धू-धू जल गये| वे उनकी अस्थियों तक नहीं बटोर पाये| कैसा लगा होगा अपनों का इतना वीभत्स अवसान!!! क्या यही शर्त थी आज़ादी की? धर्म की आड़ में राक्षसी कृत्य? तुम हिंदू हो अपने हिंदुस्तान जाओ..... तुम मुसलमान हो अपने पाकिस्तान जाओ| हिंदू, मुसलमानों के बीच हिंदुस्तान पाकिस्तान खड़ा कर जाते जाते भी अंग्रेज़ अपनी जात दिखा गये जबकि अपने देश को आज़ाद करने में दोनों का खून बहा था| और विभाजन की उस त्रासदी से भी बढ़ चढ़कर है गोधरा कांड..... सामूहिक कत्लेआम, लूटपाट..... जो नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली की क्रूरता से भी दस क़दम आगे है| वह तो पराये देश से इस देश को लूटने आये थे..... धन बटोरने और खूबसूरत भारतीय स्त्रियों से अपना हरम सजाने और ये..... अपने ही देश को लूटते, अपने ही लोगों को कत्ल करते, अपनी ही माँ बहनों से बलात्कार करते..... कौन हैं ये? किस देश के नागरिक? किस धर्म के पालक? अंकुश करवटें बदलता रहा..... हर बार औरत ही सजा भुगतती है हर अत्याचार की, हर उत्पीड़न की तो फिर वह अपनी ज़ात से कोई औरतज़ात पैदा ही क्यों करे?

सुबह करीब दस बजे वे सब निकल पड़े दूसरे दंगाग्रस्त इलाकों में..... आज दिन भर रिपोर्टिंग करनी है| जान का खतरा भी है क्योंकि पत्रकारों को सरकार की ओर से कोई सुरक्षा मुहैया नहीं है| फिर भी ये जाबांज़ पत्रकार अपने दल के साथ दिन भर गुजरात के विभिन्न इलाकों में तांडव करती मौत के बीच ज़िंदग़ी तलाशते रहे..... जो कुछ देखा रोंगटे खड़े कर देने वाला था| मनुष्य इतना बर्बर, क्रूर हो सकता है सोचना भी दूभर है..... उन सब ने तो आँखों से देखा|

देखा कि एक अधजले मकान के सामने एक गर्भवती महिला दंगाईयों से घिरी ज़िंदग़ी की भीख माँग रही है- “मुझ पर नहीं तो मेरी कोख में पलते इस बच्चे पर दया करो, छोड़ दो मुझे|”

और कार में बैठे उन सभी ने फटी-फटी आँखों से देखा कि रोने गिड़गिड़ाने के एवज में दगाइयों में से एक ने अपनी तलवार उस महिला के पेट में घुसकर उसकी कोख फाड़ डाली और उसका आठ महीने का शिशु हवा में उछाल दिया- “ले कर ली तेरे बच्चे पर दया|” एक दूसरे दंगाई ने अपनी तलवार की नोंक पर शिशु को लोक लिया| वह नर्म माँस का..... हिलता डुलता शिशु तलवार की धार में धँसता चला गया| अंकुश ने साफ़ देखा, उस शिशु की रग-रग से ज़िंदग़ी जीने का मोह..... रक्त में लिथड़ी उसके पैरों हाथों की नर्म गुलाबी कोंपल जैसी उँगलियाँ, मचल जाने को आतुर..... सघन मुलायम काले बालों का नन्ही गेंद सा सिर..... हाँ, उसने साफ़ देखा, उसका तड़पता जिस्म..... तलवार में घुसने से पहले..... तो क्या उसने माँ पुकारा होगा या पापा पुकारा होगा?..... या फिर गुड्डो बुआ की तड़पती सिसकती आरजू, शायद तलवार की ही नोंक पर उछाली जाती उनकी नीली सलवार..... अंकुश ने अपने सिर के बाल मुट्ठी में भींच लिये, माथे, कनपटी की शिराएँ दाहक उठीं और उनका लावा आँखों से अश्रु बन बह चला| सभी सकते में थे| सिद्दीकी थर-थर काँप रहा था और कार की खिड़की से मुँह बाहर निकाले उल्टियाँ कर रहा था| जसबीर ने उसकी पीठ सहलाते हुए कार आगे बढ़ाने का इशारा किया..... कार के चलते ही ठंडी हवा ने सबको राहत से सहलाया..... देखी हुई बर्बर घटना को भुलाने की कोशिश में जसविंदर कुछ कह रहा था| पर अंकुश के कान तो सुन्न थे| उसकी आँखों के सामने तो वह अजन्मा शिशु..... रक्त से सना..... धरती पर घुटनों के बल चलने और किलकारियाँ मारने को तड़प रहा था..... लेकिन जिसकी तड़प अब उसके दिल की विदा होती धड़कन के साथ धीमी पड़ती जा रही थी| ऐसी ही उसकी बच्चियाँ होंगी निहारिका की कोख में जिन्हें मिटाने पर तुला है वह| तब उसमें और इन दंगाइयों में अंतर ही क्या रह गया? अंकुश तड़प उठा| पसीने भरी हथेलियों को उसने पेट पर रगड़ा और सूखते हलक और थरथराती उँगलियों से मोबाइल पर निहारिका का नंबर लगाया, “हलो नेह..... नेह..... प्लीज, तुम एबॉर्शन मत कराना, मुझे मेरी बच्चियाँ चाहिए| समझ रही हो न तुम?”

“अंक..... क्या बात है डार्लिंग, कैसी आवाज़ हो गई है तुम्हारी, जैसे घंटों से रो रहे हो|”

“हाँ..... मैं रो रहा हूँ..... मैं रो रहा हूँ अपनी अजन्मी बच्चियों के लिये, इस दुआ के साथ कि वे सलामत रहें| अरे नेह, फिर अंतर ही क्या रह जायेगा मुझमें और उन दंगाइयों में जिन्होंने अभी अभी एक प्रेग्नेंट लेडी के पेट को तलवार से फाड़कर उसके अजन्मे शिशु को तलवार की नोंक पर उछाला है|”


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