"पैराहन"
"पैराहन"
"पैराहन" भाग-१
एक पूरा चक्कर लेके फिर ज़िन्दगी उसी मक़ाम पे ठहर गयी थी, और अगर स्पष्ट कहूँ तो ठहरी नही थी, सुस्ता रही थी ! ठहरी तो तब भी नही थी, जब इसे ठहर जाना चाहिए था ! फिर भला अब क्यूँ ठहरेगी ये ! तज़वीज़ों के कितने रेशे पिरोये होंगे ज़िन्दगी ने इस पैराहन को मंसूब करने के लिए, और ये पैराहन है कि तंग हो गया, कुछ और मौसम काट देता तो; खैर आज नया लिबास खरीदा ! थोड़ी सी असकसाहट हो रही थी इसे पहन के, सोचता हूँ, वापस वही पैराहन पहन लूँ, हाय रे अकल ! जब पुराना इतना भाता था, तो नया खरीदा ही क्यूँ ? और जब नए का मोल भी चुकता कर दिया तो फिर, पुराने से मोह कैसा ? मन मार के उस मैले-कुचैले पुराने पैराहन को संदूक में रख के, संदूक का ढक्कन बंद कर ताला लगाया था ! और बंद हो गयीं वो तमाम यादें, वो तमाम लम्हात, जो उस पैराहन से कह-सुन लिया करता था ! उसकी बायीं आस्तीन कुछ ज़्यादा ही खुश रहा करती थी ! रहे भी क्यूँ न तुमने कितनी ही मर्तबा उसे तकरीबन पूरा भिगो जो दिया था, और रोना बंद करते-करते भी सिसकियों के साथ, तुम्हारी लार, नाक और आंसू सब इस आस्तीन को ही तो सहेजने पड़ते थे ! इस मामले में पैराहन के मुढ्ढ़े भी उतने ही फ़िक़रमंद रहते थे, अगरचे उन्हें कभी मौका नसीब नही हुआ कि तुम्हारी ठुड्डी उन्हें छू पाती ! तुम्हारी बिंदी रह गयी थी, उसी पैराहन की आस्तीन में जिसे मैंने सुई-धागे से ठीक खीसे के बगल में टांक दिया था ! वो भी उसी सन्दूकिया कब्र में दफना के आया हूँ ! जाने क्या-क्या सोचता हुआ आलोक, सड़क पे फर्राटे भरता जा रहा था, और अब ठीक उन्नति के घर के सामने ठहर गया !
(आलोक-सामान्य कद-काठी का सांवला-सजीला नौजवान, वक़्त की कुछ धूल है चेहरे पे, जो उसे उसकी उम्र से ज़्यादा दिखाती है, साथ ही बढ़ी हुयी दाढ़ी और बेतरतीब बाल उसकी रौनक ढके हुए हैं !)
क्रमशः