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शुरुआत

शुरुआत

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बाई के आते ही जैसे ही सुधा बोली, सून रेखा,आज तू आँगन ज़रुर धो देना।सुनते ही बाई की मिसाइल दगी,आज तो मैं बिल्कुल नहीं धोऊँगी। कभी आप खुद भी तो धो लिया करो

यह सुन कर गुस्से में भन्नाई सुधा सोचने लगी,महीने में चार तो रविवार और बाकी मिला कर लगभग चौदह-पंद्रह दिन तो यह छुट्टी मारती ही है तो, तब भी तो वह स्वयं काम करती ही है, तो बाकि के पंद्रह दिनों के लिए इस पर निर्भर हो, इसके नखरे उठाने की क्या ज़रूरत भला!

अपने गुस्से को बरबस रोक, हँसते हुए सुधा बोली, बात तो तू सोलह आने सच कह रही है। चल तेरी बात अब मैं मान ही लेती हूँ। कभी-कभी क्या...कल से सारा काम अब मैं खुद ही किया करूँगी। कल से तेरी छुट्टी,कह कर वह गुनगुनाते हुए रसोई में चाय बनाने चली गई।

एक नई खिली, ताज़गी भरी मुक्त सुबह की शुरुआत हो गई थी सुधा के लिए।


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