तुम मत काटना "पंख"
तुम मत काटना "पंख"
कुछ तो कहना चाहती थी मीनू। जिस तरह से उसने आज मुझे देखा था, इससे पहले तो कभी ऐसा आभाष नहीं हुआ मुझे। उसकी मासूम सी चमकती आंखों में कुछ तो ऐसा 'ख़ास' छुपा था मेरे लिए, जिसे वो झुठी मुस्कान की आड़ में छुपाने की कोशिश में नाकाम रही।
मेरे मन में ना जाने कितने सवाल चल रहे थे मीनू को लेकर। कॉलेज की छुट्टी के बाद जाते वक़्त उसका इस क़दर देखना मेरे मन में न जाने क्यूँ खटक सा गया था। उसकी झूठी मुस्कान के पीछे के राज़ को मैं जानना तो चाहता था, लेकिन उसकी आंखों की बेकरारी मानो जैसे सब कह गयी हो और मैं उसे सुन कर भी अनसुना बना रहा।
उस रात मैं ठीक से पढ़ नहीं पाया, या कहिये की पढ़ने में मन नहीं था। तो इसलिए मैं जल्दी ही क़िताबों को समेट रख सो गया था। कुछ देर तक मैं करवट बदलता रहा, सोने की कोशिश करता रहा। सोते वक्त भी मेरे दिमाग मे सिर्फ एक ही सिलसिला चल रहा था और वो था 'मीनू'। और ना जाने कब मुझे नींद आ गयी और मैं सो गया।
सारी ज़मीन बर्फ़ से ढकी हुई है, बर्फीले पहाड़, पेडों पर भी बर्फ जमी है। सारी धरती बर्फ से ढकी है। 'अरे ये क्या! ये दो बर्फ से बने बादल हैं, नहीं....! ये तो बादल ही हैं, हाँ, हाँ ये तो बादल ही है। चारों तरफ रूई की तरह सफेद बदल। 'वाह,,,! क्या खूबसूरत नज़ारा है।'
'लेकिन मैं यहाँ कैसे आया ? और ये जगह कौनसी है ?' मैंने और थोड़ा आगे बढक़र देखा तो सामने रूई की तरह सफ़ेद बादल से बनी एक दीवार थी। मैंने उसे क़रीब से जाके देखा तो वो बहुत मुलायम थी और उसे हाथ से अलग हटाया जा सकता था। अरे हाँ, ये तो हाथ से धुँए की तरह हट रही है। उस दीवार को मैं हाथ से धुँए की तरह हटा रहा था। तभी मेरे दिमाग मे फिर से वही सवाल उठा। 'मैं यहां कैसे आया ? और ये कौनसी जगह है ?'
मुझे कुछ समझ नहीं आया और मैंने तुरंत अपने हाथ रोक लिए। मैंने चारों तरफ नज़र दौड़ाई, वहां हर तरफ सन्नाटा था। और वहां सिर्फ मैं अकेला ही था। मैं थोड़ा घबरा गया था और तभी मेरे दिमाग में ख्याल आया।
'कहीं मैं मर तो नहीं गया ? कहीं ये स्वर्ग तो नहीं है, हाँ शायद ये स्वर्ग ही है, लेकिन ये स्वर्ग कैसे हो सकता है ? कहते हैं स्वर्ग में देवता होते हैं, यहाँ तो कोई देवता भी नहीं है, ये मैं कहाँ हूँ ? और यहाँ कैसे पहुंचा ?' ऐसे-ऐसे ख़्याल मेरे दिमाग को अपने सिकंजे में जकड़ने लगे थे।
तभी अचानक से मुझे कुछ आवाज़ें सुनाई दीं। और वो आवाज़ दीवार के उस पार से आ रही थी। आवाज़ लड़कियों के हँसने की थी। जैसे लड़कियां हँस-खेल रही हों। मैं उस पार देखना चाहता था, लेकिन दीवार इतनी ऊंचाई तक बनी थी कि उसका ओर-छोर ऊंचे आसमान तक दिख ही नहीं रहा था। मैंने दीवार को फिर से हाथों से चीरना शुरु किया, ये सोचकर कि शायद उधर का दृश्य दिख जाए। लेकिन 'ये क्या ?' इसे तो जीतना चीरता हूँ उतना ही फिर से भर जाता है। कुछ समझ नहीं आ रहा मुझे और एक बार फिर से आवाज़ सुनी, और इस बार लड़कियों की आवाज़ के साथ पक्षियों, और जानवरों की आवाज़ भी सुनई पड़ी। सुंदर और प्यारी आवाज।
मैं दीवार से कुछ दूर खड़ा होकर उसे देख रहा था कि शायद कोई रास्ता नज़र आ जाये उस पार जाने का। तभी मेरी नज़र एक परी पर पड़ी।
"ये तो परी है, वाह... कितनी खूबसूरत है ये। इसका मतलब उस पार सच में परियाँ है ?" मैंने दीवार के उस पार से आई परी को देखा और सोचने लगा। और उस परी ने भी मुझे देखा, लगता था जैसे मुझे देख कर वो डर गयी थी। और फिर वो परी बहुत तेज़ी से उसी दीवार के अंदर चली गयी।
अब मुझे समझ आ गया था कि क्या करना है। मैं पहले थोड़ा सकुचाया, सोचा की 'पता नहीं क्या होगा उस पार' और फिर मैंने एक लंबी सांस ली और एक दृढ़ संकल्प लेकर उस दीवार मैं प्रवेश करने लगा। मेरे चारों तरफ अब सिर्फ धुंआ- धुंआ था। मुझे धुएँ के अलावा कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। मेरा दिल डर से बैठा जा रहा था। लेकिन मैंने भी ठान लिया था, और फिर करीब दो मिनट तक चलने के बाद मैं उस दीवार के पार पहुंच ही गया।
"वाह......... क्या नज़ारा है ! सुंदर रंग-बिरंगी तितलियां, सुंदर प्यारे मोर और रंगों से भरे उनके पंख, इधर से उधर फुदकते खरगोश, कोयल की मन-मोहक मीठी आवाज़, लाल रंग के तोते, पीले और सफेद रंग के तोते, रंग-बिरंगे फूल, सुंदर झरने के ऊपर उगते सूरज की किरणों से बना वो इंद्रधनुष, उस इन्द्रधनुष से सारा वातावरण रंग-बिरंगा दिख रहा है, बहुत सारी परियाँ हीरा से चमकीले वस्त्रों को पहने हाथ में जादू की छड़ी, सिर पर हीरों का मुकुट लिए इधर से उधर उड़ रही है, खेल रही है, गा रही हैं। ये तो सच में स्वर्ग है।"
मैंने जब वो नज़ारा देखा तो मेरी आँखें फटी-की फटी रह गयीं। लेकिन मेरे दिमाग मे अब भी ये सवाल है कि मैं यहाँ कैसे आया ?, क्या मैं सच-मुच मर चुका हूँ ?' मैं इस सवाल को अपने ज़ेहन में लिए चारों तरफ देख रहा था। सहमा हुआ सा एक-एक कदम आगे बढ़ाने लगा। आगे जाने पर मैंने देखा कि एक बड़ा सा रंगों से भरा तालाब है। लाल , नीला, हरा, पीला, सफेद, गुलाबी, जामुनी, सुनहरा। मानो जैसे दुनिया के सभी रंग उस तालाब में पानी की भाँति भरे थे।
उस पानी से रंग-बिरंगी प्रकाश की किरण निकल रही थी। देख कर ऐसा लग रहा था, जैसे वो एक ज्ञान का सागर हो और दुनिया के सभी ज्ञान उस तालाब में मौजूद हों। उस तालाब में बड़ी परियाँ छोटी परियों के साथ खेल रही थीं। उन्हें देख कर तो लग रहा था की जैसे बड़ी परियाँ उन छोटी परियों की माँ हैं ?
'मीनू... ये यहाँ कैसे ? लगता है ये भी मर चुकी है शायद।'
उस तालाब में मैंने मीनू को किताब पढ़ते देखा तो अचंभित रह गया। मीनू और उसकी सहेलियां सब एक साथ तालाब में किताबें पढ़ रही है उनकी किताबों से वही रंग निकल रहा था जो तालाब में भरा हुआ है और वो रंग सीधा तालाब में गिर रहा था। उन सब परियों के चेहरे पर बहुत गजब का तेज़ है। ऐसा लग रहा है जैसे इनकी आंखों में भी कुछ सपने सजे हों।
मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था, बस मैं भौंचक्का सा सब देखता जा रहा था। मैंने एक बार सोचा भी की मीनू से बात करूं और पूँछूँ की वो कैसे मेरी ? उसे तो मैंने आज सुबह ही देखा था कॉलेज में। मेरा मन बार-बार मीनू की तरफ जाने लगा, लेकिन मैं हिम्मत नहीं जुटा पाया। खैर उसे भी छोड़ आगे बढ़ चला मैं।
इसी तरह मैंने वहाँ एक से बढ़कर एक सुंदर जगह देखी। मैं लगभग सारा कुछ देख चुका था और काफी दूर निकल आया था। मैंने फिर से एक दीवार देखी। 'धुएँ की दीवार, नहीं... नहीं..... काले धुँए की दीवार, हाँ जी सही सुना... काले धुएँ की दीवार।' ये दीवार भी हूबहू उस पहली वाली दीवार की ही तरह थी। इसे भी ऐसे ही पार किया जा सकता था। लेकिन दोनों में फ़र्क इतना था कि ये काली है और वो दूध की तरह सफेद थी। इस दीवार के उस पार से पंखों वाले शहज़ादे आते और अपने साथ एक परी उस पार ले जाते। वो पंखों वाले शहज़ादे बहुत सुंदर, सुडौल और जवान पट्ठे थे।
उसे देख मेरे मन में फिर से एक सवाल खड़ा हो गया था कि उसके दूसरी तरफ क्या हो सकता है ? ये शहज़ादे इन्हें कहां ले जा रहे है ? क्या इसके उस पार भी कोई स्वर्ग है...? हाँ.. हो भी सकता है, क्या पता उस पार शहज़ादों का स्वर्ग हो, जैसे इस तरफ परियों का स्वर्ग है।' ये सोच कर मेरा मन उस पार जाने के लिए व्याकुल हो उठा। और मैंने बिना सोचे- समझे उस पार जाने का फैसला कर लिया।
उस दीवार के पार जब मैं पहुंचा तो वहां का मंज़र देख मेरा दिल दहल गया। जी हां.... मेरा दिल दहल उठा, क्योंकि इस पार कोई स्वर्ग नहीं था। इधर थी एक ऐसी दुनिया जिसे मैं नर्क भी नहीं कह सकता और स्वर्ग भी नहीं कह सकता।
इस पार उन शहजादों द्वारा लाई परियों पर वो अत्याचार हो रहा था जिसे देख सबकी रूह सन्न रह जाती। हर एक परी को तीन मेरे जैसे ही दिखने वाले लोगों ने घेर रखा था। और वो शहज़ादा जो उस पार से उस परी को लाया था, वो भी कोई शहज़ादा नहीं था। बल्कि मेरे ही जैसा एक लड़का था और बाकी दो लोग उस लड़के के माँ- बाप थे। मेरे सामने ही उसके माता - पिता ने बेचारी परी के दोनों हाथ पकड़ लिए। उस लड़के के हाथ में एक बड़ी सी तलवार थी। परी रो-रोकर उन लोगों से दया की भीख मांग रही थी। लेकिन उन्होंने उसकी एक ना सुनी और बड़ी बेरहमी से बेचारी परी के दोनो पंख काट दिए। वो परी दर्द से चीख उठी, तडपती रही, चिल्लाती रही। लेकिन उन निर्दयी लोगों ने उस बेचारी पर जरा भी रहम नहीं किया और डाल दिया एक पिंजरे में उस खूबसूरत मासूम परी को तड़पने के लिए।
दीवार के इस पार क्या हो रहा है और क्या नहीं, इस बात का दीवार के उस पार की उन परियों और इनके परीजनों को कुछ पता नहीं चल रहा था। उनके लाड़-प्यार से पाली गयी परियों पर क्या अत्याचार किया जा रहा है, उन बेचारों को इस की भनक तक भी नहीं थी।
वहां एक नहीं, बहुत सारे पिंजरे थे। उन सभी पिंजरों मैं ऐसी ही परियाँ थीं जिनके पंख काट दिए गए थे। उनकी खूबसूरती ढल चुकी थी। आंखों पर काले निशान बन चुके थे, और बहुत कमजोर भी हो चुकी थी और जिन लोगों ने उनके पंख काटे थे, वो लोग उन परियों पर हँस रहे थे। उनका तमाशा बना रहे थे।
मैं उन सबके बीच से निकला जा रहा था लेकिन उन्हें कोई फर्क ही नहीं पड़ रहा था। मानो जैसे मैं उन्हें दिख ही नहीं रहा था।
'हे भगवान....मैं ये कहाँ फँस गया...? और मैं यहां से कैसे निकलूं..?, मेरा तो दम घुटने लगा है यहाँ।
प्लीज् कोई तो मुझे देखो, कोई तो मुझसे बात करने की कोशिश करो और बताओ मैं यहाँ कैसे आया और क्यूँ आया ?
मैं बहुत ज्यादा डर गया था। चारों तरफ से बेचारी उन परियों की रोने-चीखने की आवाज़ आ रही थी, जिनके पंख काट दिए थे।
मैं चाहकर भी उनकी कोई मदद नहीं कर सकता था क्योंकि मुझे वहाँ कोई देख नहीं पा रहा था, ना ही सुन पा रहा था। मेरी आवाज़ भी उन तक नहीं पहुंच पा रही थी। मैं बोलना चाहता लेकिन मेरे गले से आवाज़ ही नहीं निकल रही थी।
उस दर्द को उस मंज़र को मैं बयान नहीं कर सकता था जिसे मैं देख रहा था। आगे पिंजरों में पड़ी कटी परियां बस सिसक रही थीं मानो जैसे उन्होंने उस दर्द को अपना लिया हो।
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सुबह के सात बज चुके हैं, मेरी ऑंखे खुली तो मैंने मेज़ पर रखी बज रही अलार्म घड़ी को बंद किया और एक चैन की लम्बी सांस ली। मैंने इर्द-गिर्द नज़र घुमाई तो पाया कि मैं सपना देख रहा था।
चलो अच्छा हुआ जो अलार्म ने मेरी आँख खोल दी, वर्ना मेरा तो दम घुटने लगा था। रात को में मीनू के बारे में ही सोचता-सोचता सो गया था शायद इसलिए.....।
कॉलेज पहुंच कर मेरी आँखें अब सिर्फ मीनू को ही देख रही थी। इधर से उधर यहाँ से वहां। मुझे बहुत चिन्ता भी हो रही थी उसकी, कि कहीं उसे कुछ हो तो नहीं गया।
"ज्योति" आवाज़ देकर कुछ दूर खड़ी मीनू की दोस्त को बुलाया।
"हाय कमल... कैसे हो..?" ज्योति मेरे पास आकर बोली।
"आई एम फाइन, एंड यू ?"
" मैं भी अच्छी हूँ।"
"ज्योति... 'मीनू' नहीं आई आज..?"
"नहीं कमल अब शायद 'मीनू' नहीं आ पाएगी।"
"क्यों..?" मैंने ऐतराज़ जताते हुये आश्चर्य से पूछा।
"बेचारी बहुत रो रही थी, उसका सपना अब शायद ही कभी पूरा हो पायेगा।"
"मतलब..?"
मैंने उसकी उलझी गुत्थी को समझने की कोशिश की।
"मतलब ये की उसके ससुराल वालों ने उसका कॉलेज बंद करवा दिया। क्योंकि वो प्रैग्नेंट है और जब तक बच्चा नहीं हो जाता तब तक वो कॉलेज नहीं आएगी।" ज्योति ने कहा।
मैंने फिर ज्योति से पूछा
"तो अभी क्या जरूरत थी बच्चा पैदा करने की, पहले पढ़ाई पूरी कर लेती तब करती।"
"उसने अपनी मर्ज़ी से थोड़ी ना कर रही है। ये तो उसके ससुराल वालों ने जबरदस्ती किया है। उसके सास-ससुर को पोता-पोती खिलाने की जल्दी है।" ज्योति ने कहा।
और फिर ज्योति ने अपने बैग से एक क़िताब निकाली जो कुछ दिन पहले मीनू ने मुझसे ली थी पढ़ने के लिए।
"ये लो कमल तुम्हारी बुक, ये मीनू ने दी है और हाँ उसने कहा है, कि एक लैटर रखा है इसमें तुम्हारे लिए उसे जरूर पढ़ना। उसने रिक्वेस्ट की है।" ज्योति ने किताब देते हुए मुझसे कहा।
जवाब में मैंने कुछ नही कहा, बस मुस्कुरा दिया और उससे किताब लेकर एक बेंच पर बैठ गया। ज्योति भी चली गयी। मैंने किताब से लेटर निकाला और पढ़ने लग।
"कमल मैं तुमसे मिली, तुम बहुत अच्छे हो। और इसी लिए शायद तुमसे मेरी दोस्ती बनी रही। लेकिन अब ये तुम्हारी दोस्त तुमसे एक बात बोलना चाहती है। जैसे तुम मुझे समझते हो। एक दोस्त होकर, एक अच्छे भाई का भी फ़र्ज़ तुमने निभाया है, मेरी भावनाओं को समझते हो। ऐसे मेरे ससुराल मैं मुझे कोई भी समझने की कोशिश नहीं करता, और ना ही कोई जरूरी समझता है। जब मैं तुमसे मिली तो एक बार को सोचा की काश तुमसे ही मेरी शादी हुई होती तो कितना अच्छा होता पर अब ये मुमकिन नहीं था लेकिन मैं तुमसे एक चीज़ माँगना चाहती हूँ। तुम कभी मत काटना अपनी पत्नी के पंख।"
इस लेटर को पढ़ने के बाद मुझे सब समझ आ गया था। वो सपना, वो परियाँ, परियों के इस क़दर पंख काटना।
ये समाज है, जहाँ लड़की के माता-पिता उसे एक परी की तरह प्यार करते हैं, परी की तरह उसे पढ़ाते-लिखाते हैं। दुनिया का ज्ञान देते हैं और फिर कर देते हैं उसकी शादी एक शहज़ादे से, ये सोचकर कि 'वो शहज़ादा उसे प्यार करेगा उसे उसकी काबिलियत के लिए इज़्ज़त देगा लेकिन ये शहज़ादा क्या करता है उस परी के साथ।
उसके अरमानों का गला घोंट देता है। अपने माँ- बाप के कहने मात्र से उसके सपनों के पंख काट देता है और बना देता है कामवाली बाई , एक नौकरानी।
बच्चे पैदा करो, घर संभालो और भूल जाओ अपने उन सपनों को जिन्हें तुमने देखा था अपने माँ- बाप के अंचल में।
ये चीख-पुकार वो है जिसे हम कभी सुन ही नहीं पाते और बेचारी औरत रोज घुलती रहती है खुद के ही अंदर। घुट-घुट कर।