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Rupa Bhattacharya

Inspirational

5.0  

Rupa Bhattacharya

Inspirational

अटूट बंधन

अटूट बंधन

4 mins
920


आज 12वीं का रिजल्ट जारी हुआ, शिल्पी 93 प्रतिशत अंकों के साथ पास हुई थी।

जींस-टाॅप पहनी हुई, कंधे तक लहराते बाल हाथों में एक छोटा सा पर्स लेकर सांवली सलोनी शिल्पी मुस्कराते हुए घर के अंदर आई और झुक कर मेरे कदमों को छुआ।

'मासी'आज आपके कारण ही मैं यहाँ तक पहुंची हूँ, नहीं तो मैं- --। मैंने उसके मुँह पर हाथ रखते हुए कहा, और मेरे कारण ही तुझे अभी बहुत आगे तक जाना है।

मैं दस पहले का वह भयावह घटना याद कर अंदर ही अंदर कांप उठी। मेरी शादी दो ही साल में टूट चुकी थी। माँ ने एक एन आर आइ लड़के के साथ बड़ी धुम-धाम से मेरी शादी की। अमेरिका में एक साल तो अच्छे से बीता, मगर फिर मैंने शराबी पति का अत्याचार सहने से इनकार कर दिया। मैं अकेले ही उसे हमेशा के लिए छोड़ कर अपने वतन आ गई।

मायके में आकर मैंने महसूस किया कि भैया भाभी अब पहले जैसे नहीं रहे, वे मुझसे किनारा करना चाहते हैं, बुढ़ी माँ कुछ बोलने में असमर्थ थी। भैया मेरे मुँह पर कुछ बोलते उससे पहले मैं ही अपनी माँ से आज्ञा लेकर गांव के उस टूटे -फूटे मकान में रहने चली गई जो मेरे दादाजी की आखिरी निशानी थी।

मैं वहां जाने के लिए खुशी- खुशी राजी हो गई, क्योंकि 'डूबते को तिनके का सहारा ' चाहिए था। मैंने सोचा गांव के शांत वातावरण में अपनी लेखनी भी बखूबी रख सकूँगी। उस समय तक मेरी दो-तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी थी, जिसकी कुछ रायल्टी भी मिलती थी।

गाँव का मकान रहने लायक नहीं था, मगर किसी तरह "बुधिया" की माँ के साथ मिलकर उसे रहने लायक बना लिया था।

गाँव की हरियाली देख दिल को ठंडक पहुँची थी। हरी भरी पीले फूलों से सजे हुए सरसों के खेत, आम के पेड़ों से आती हुई मंजरो की भीनी-भीनी खुशबू, कोयल की कुक मन को सुकून पहूँचाने के लिए काफी था और इन सब के साथ फूदकती हुई "बुधिया "।

उसे छोटे से मकान की देख रेख के लिए "सोमरा" अपने परिवार के साथ आंगन में बने हुए एक कमरे में रहता था।

कुछ ही दिनों में दस साल की बुधिया मेरे काफी करीब आ चुकी थी। दिन भर इधर-उधर दौड़ती, भागती मगर जब भी मुझे लिखते देखती, मेरे करीब आकर बैठ जाती और ध्यान से एक टकराव मुझे लिखते देखती। कभी-कभी बोली पड़ती" मासी" कहानी सुनाओ ना ! एक दिन मैंने पूछा तू स्कूल क्यों नहीं जाती ? जवाब उसकी माँ ने दिया "छोटी मालकिन हमार भाग में लिखल पढल ना है दो जून की रोटी मिल जायब यही बहुते है।"

मैं कुछ जवाब दे पाती की अचानक "सोमरा" नशे में धूत सामने आ खड़ा हुआ।

का कहती हो मेमसाहब ? पढ़ लिख कर तो तुम ने अपना मरद छोड़ दिया है। मैं चुप रही, वह कुछ सुनने लायक स्थिति में नहीं था।

अब तो यह रोज होने लगा। बुधिया का बाप शराब पीकर आता, पत्नी से पैसे माँगता और अमानवीय तरीके से उसे पीटता।

मैं समझ गई थी कि अब अपना बोरिया बिस्तर बाँधने का समय आ गया है।

तभी एक दिन पता चला कि बुधिया की शादी तय कर दी गई है। मैं सुनकर अचंभित रह गई।

रातों रात शादी की तैयारी भी हो गई मगर रात में शादी के समय बुधिया गायब थी। चारों ओर खोजा गया, कहीं बुधिया न मिली मैं अपने कमरे का दरवाजा बंद कर पड़ी हुई थी।तभी मुझे छत पर कुछ खटर-पटर सुनाई दिया। मैं छत पर गई और मोबाइल की रोशनी से जो नज़ारा देखा उसे देख कर अन्दर तक काँप गई।

छोटी सी बुधिया लकड़ी की सीढ़ी छत पर लगाकर उसे पर चढ़ी हुई थी और छत से बाहर कुदने की कोशिश कर रही थी। मैंने जोर से चिल्लाकर कहा क्या तुम पागल हो गई हो ? नीचे आओ ! तुम्हारी शादी मैं नही होने दूंगी। सब ऊपर आ गये थे। बुधिया की माँ दहाड़े मारकर रोने लगी मगर बुधिया तो जैसे काठ की बन गई थी, सीढ़ी पर सपाट खड़ी थी।अचानक मैंने कहा तुझे मेरी "कहानी" की कसम, नीचे आ जा-----और बुधिया नीचे आ गई।

तभी सोमरा उसे पकड़ कर नीचे ले जाने लगा- -----बुधिया की माँ ढाल बन कर बीच में खड़ी हो गई और चीखी छोटी मालकिन इसे लेकर भाग जाओ !

मैंने शहर आकर अपने गहने बेचकर एक छोटा सा घर खरीदा और बुधिया (शिल्पी) का सहारा बनी और वह मेरे अकेलेपन की साथी। हम एक दूसरे से अटूट बंधन में बंध चुके थे।


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