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पहला प्यार

पहला प्यार

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"प्यार ?"

श्रेया खिलखिला कर हँस पड़ी। अपनी सहेली की बात पर कि उसे प्यार हो गया है। अनुज नाम था उसका। शाहरूख खान जितना हैंडसम तो नहीं, मग़र उसकी नज़रों में किसी शहजादे से कम न था। ज्यादातर लड़के फ़ुटबॉल ग्राउंड पर मिलते थे, पर श्रेया का सारा समय लाइब्रेरी में अनुज को देखते गुज़र जाता था। उसकी कत्थई सी आँखे जब किताब के पन्नों से हटकर श्रेया से मिलती तो मानो लगता की वसंत ऋतु जल्दी आ गयी हो। खैर, श्रेया के हिसाब से प्यार जैसी भी कोई चीज़ होती कहाँ है भला ? इसी तरह कब कॉलेज ख़त्म हुए कब सबकी राहें अलग हुयी पता ही नहीं चला।

कहते हैं ना की किसी की आपके जीवन में अहमियत तब ही पता चलती है जब वो चले जाए। श्रेया को बार-बार वही लाइब्रेरी की "साइलेंस" में बिताए पल याद आ रहे थे और साथ ही यह एहसास भी की शायद वही प्यार था। वो प्यार जो कहीं खो गया। वो प्यार जिसे वो एक 'हैलो' भी ना कह पायी।

"अब बहुत देर हो चुकी है, कुछ नहीं हो सकता।" इन ख़यालों के साथ वो तैयार हो रही थी। लड़के वालों के लिए जो रिश्ता लेकर आ रहे थे। अनुज के बारे में सोचते-सोचते वो यह तो पूछना भूल ही गयी माँ से की लड़के का नाम क्या है ?

पूछ के करती भी क्या माँ-बाबा की पसंद के आगे कौन सुनता उसकी ?

चाय और नाश्ते की ट्रे लेकर जब को मेहमानों के सामने पँहुची तो वहीं कत्थई आँखे उसकी तरफ़ देख कर मुस्कुरा दी। श्रेया के मुँह से निकला- 'हैलो' शायद बरसों पहले की तमन्ना पूरी कर रहा था।


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