"खंडित मूर्ति "
"खंडित मूर्ति "
आज बेटे के जन्मदिन पर शहर के आश्रम में दान पुण्य करने आई सुधा अपनी पुरानी मकान मालिकन को बुरी हालत में देख कर हैरान सी रह गई। याद आ रही थी उसे वो ममतामयी मूरत जो दिन भर अपने बच्चों को प्यार करते हुऐ नहीं थकती थी। और कहाँ यह अकेलेपन की त्रासदी को झेलती जीर्ण सी काया।
मिठाई ले कर जा पहुँची सुधा अपनी मकान मालिक के पास और पूछ बैठी।
"आप यहाँ इस हाल में आन्टी वो भी चार चार लड़कों के होने के बावज़ूद ।"
"अरे बिटिया जानती नहीं हो क्या, यह तो दुनिया का दस्तूर है। लोग भगवान की मूर्ति को भी खंडित हो जाने पर घर से विदा कर देते हैं। मैं तो फिर भी एक इन्सान ठहरी, आखिर मेरी क्या औक़ात।
आन्टी अपनी बात अभी पूरी भी नहीं कर पाई थी कि, तभी सामने से वकील साहब आते हुऐ विनम्रता के साथ बोले।
"सब मेरी गलती है सावित्री जी मैं अगर देश में होता तो ऐसा कभी नहीं होता। मैं किसी काम से देश से बाहर गया हुआ था । वापस आया तो राय साहब और आपके बारे में पता लगा। राय साहब मरने से पहले अपनी वसीयत मुझसे लिखवा गये थे। आपकी खानदानी हवेली और सारा व्यापार आपके नाम है। आपके बेटे चाह कर भी आपको घर से बाहर नहीं निकाल सकते।"
वकील जी की बात सुनकर सुधा राहत के साथ मुस्कुराते हुए आन्टी के हाथों पर हाथ रखते हुऐ बोली।
"देखा आन्टी भगवान की मूर्ति खंड़ित भले ही हो जाऐ ,पर वो फिर भी भगवान ही रहती है। "