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Balram Agarwal

Others

3.0  

Balram Agarwal

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कबूतरी

कबूतरी

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जरूर कुछ गड़बड़ है—मिसेज खन्ना कई दिनों से वॉच कर रही थीं—नौकरी करते हुए ये कभी भी आठ बजे से पहले बिस्तर से नहीं उठे। अब, स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के अगले ही दिन से यह हाल है कि सुबह पाँच बजे उठ जाते है! शौच आदि से निबटकर सही छ: बजे घर से निकल जाते हैं। मॉर्निंग-वॉक तो जैसे इनकी कुंडली में ही नहीं लिखा था, लेकिन अब ये पार्क में जाने लगे हैं! हाफ-पैंट को ‘आरएसएस का सुथन्ना’ कहकर छूते तक नहीं थे। पिछले हफ्ते एक जोड़ी कैपरीज़ और एक जोड़ी स्पोर्ट्स-शू ले आए खरीदकर; बोले—इनमें ईज़ी रहता है। घर के दरवाजे से निकलते ही जॉगिंग शुरू कर देते हैं! और गजब की बात यह कि लौटकर आते हैं—नौ-सवा नौ बजे। गरज यह कि सुबह के तीन घंटे पार्क की भेंट चढ़ाने लगे हैं। समझ में नहीं आता कि पार्क में ये करने क्या जाते है? घूमने जाते हैं या…। बस। या…के बाद वाला विचार बेहद पीड़ादायक था।

वह विचार मन में आते ही मिसेज खन्ना सिर से पाँव तक जैसे हिल-सी गईं। उस कबूतरी की वजह से ही तो नहीं ले बैठे हैं वॉलंट्री रिटायरमेंट!—वह मन ही मन सोचने लगी—हे भगवान्, बुढ़ापे में जग-हँसाई ना करा बैठें ये। देखना पड़ेगा।

अगली सुबह। अलार्म बंद करने के बाद बिस्तर से उठकर जैसे ही खन्ना जी फ्रेश होने के लिए टॉयलेट में घुसे, मिसेज खन्ना ने भी बिस्तर छोड़ दिया। वे सड़ाक से दूसरे टॉयलेट में घुस गईं। फिर, जैसे-जैसे खन्ना जी तैयार हुए, वैसे-वैसे वह भी तैयार होती गईं। लेकिन बचते-बचाते कुछ इस तरह कि खन्ना जी को कुछ भी असामान्य न लगे।

घर से खन्ना जी के निकलने के दो-तीन मिनट पीछे ही वह भी निकल लीं। हालाँकि पूरी तरह पीछा नहीं कर सकीं उनका, क्योंकि खन्ना जी ने तो रोजाना की तरह दरवाजे से निकलते ही जोगिंग शुरू कर दी थी। फिर भी, उन पर नजर रखने जितनी दूरी बनाए रखने में वह कामयाब रहीं।

खन्ना जी पार्क में घुसे, उनके पीछे-पीछे पाँच मिनट बाद ही वह भी। खन्ना जी जॉगिंग करते आगे बढ़ गए। पेड़ों की ओट में अपने-आप को छिपाती वह भी आगे बढ़ती रहीं, कुछ इस तरह कि पति पर नजर भी रख सकें और किसी को सन्देह भी न हो।

पार्क में घूमने आने वालों की संख्या बहुत ज्यादा न सही, कुछ कम भी नहीं थी। उन्हीं के बीच रास्ता बनाते खन्ना जी जॉगिंग करते और जान-पहचान के लोगों से ‘हाय-हलो’ करते विस्तृत पार्क के एक हिस्से में बने गोलाकार पक्के फुटपाथ पर दौड़ते रहे। मिसेज खन्ना पेड़ों की ओट में छिटपुट आसन करती-सी एक जगह पर टिक गईं और नजर जमाए उन्हें देखती रहीं।

गोलाकार फुटपाथ पर जॉगिंग के बाद वे पार्क के दूसरे सिरे पर मखमली लॉन को घेरती फूलों की क्यारियों के निकट जा बैठे। वहाँ तक नजर को दौड़ाए रखने में मिसेज खन्ना को असुविधा-सी होने लगी। पहले वाली जगह से उठकर वह कुछ-और आगे वाले, निगाह रखने में कुछ-और सुविधाजनक पेड़ों के पीछे आ गईं।

कुछेक आसनों का अभ्यास करने के बाद मिस्टर खन्ना प्राणायाम करने लगे हैं।–उन्होंने देखा।

भस्रिका, कपालभाति, अनुलोम-विलोम सब कर लो—दूर बैठी वह मन ही मन सोचती रहीं—उसके आने तक तो ये सब नाटक तुम करोगे ही। देर से आती होगी न कबूतरी। आने दो, आज ही पत्ता साफ न कर दिया उसका तो मेरा नाम भी कनिका खन्ना नहीं। यह सोचते हुए वह कुछ अटकीं। फिर उन्होंने मन ही मन तय किया कि मिस्टर खन्ना ने अगर तिलभर भी उसका पक्ष लिया तो आज से वह सिर्फ कनिका रह जाएँगी, खन्ना उपनाम हटा देंगी हमेशा के लिए। तभी, उन्होंने देखा कि प्राणायाम के बाद खन्ना जी क्यारियों में फूलों की छोटी-पौध के बीच उग आई घास को उखाड़ने में जुट गए हैं। घूमने आने वाले अन्य लोग उन्हें देखते और आगे बढ़ जाते। छि:-छि:—मिसेज खन्ना को उनकी इस हरकत पर घृणा-सी हो आयी—ये अब माली का काम करने बैठ गए! माना कि इन्हें बहुत शौक है फूलों और पौधों का। माना कि घर में एक गमला तक रखने की जगह कभी नहीं रही और इनकी यह इच्छा हमेशा मन की मन में ही दबी रही। लेकिन इसका यह तो मतलब नहीं कि यहाँ, पार्क में आकर…।

करीब आधे घंटे तक खन्ना जी घास उखाड़ने के इस काम में लगे रहे। उखड़ी घास को एक ओर फेंक आने के बाद वे फूलों पर मँडराती तितलियों के पीछे बच्चों की तरह दूसरी-तीसरी-चौथी क्यारी तक दौड़ने लगे। बैठी हुई तितली के परों तक झुककर वे उसके रंगों को निरखते-परखते और उसके बैठे रहने तक बुत बने खड़े रहते; बिल्कुल ऐसे, जैसे इतने निकट से तितली कभी देखी ही न हो।

भाग लो…तितलियों के पीछे भाग लो इस उम्र में जितना जी चाहे—बैठी-बैठी मिसेज खन्ना उन पर कुढ़ती रही—मज़ा तो तब आएगा बच्चू, जब वह गंदी-मक्खी पार्क में आएगी और मैं तुम्हारे सामने अपनी इस चुटकी से उसे मसल डालूँगी।

उधर, वे बुत बने खड़े थे कि रबर की एक गेंद उनके पाँव पर आकर लगी। उनका ध्यान भंग हो गया। वे धीरे-से दायीं ओर झुके और गेंद को उठा लिया।

“अंकल…इधर…जल्दी…जल्दी…!” क्यारियों से दूर, पार्क के नजदीक वाले एक कोने में  क्रिकेट खेल रहे कुछ बच्चों में से फील्डिंग कर रहे बच्चे चिल्लाए।

उन्होंने चिल्ला रहे बच्चों की ओर गेंद को न उछालकर उसे जहाँ-का-तहाँ डाल दिया और जोर-से चिल्लाए—“ओए, मैं अंपायरिंग करूँगा, फील्डिंग नहीं…” यह कहने के साथ ही फूलों और तितलियों का साथ छोड़कर वे बच्चों की उन टीमों का अंपायर बनकर विकेट्स के निकट जा खड़े हुए।

दू…ऽ…र, पेड़ की ओट में बैठी मिसेज खन्ना उनकी इन अजब-गजब हरकतों को देखती रहीं। उन्हें यकीन था कि मिस्टर खन्ना का जॉगिंग और प्राणायाम करना, क्यारियों में गुड़ाई करना, तितलियों को देखना और अंपायरिंग करना—सब ‘टाइम पास’ का जरिया हैं। ऐसा करके वे उस कबूतरी के आने तक का समय किसी न किसी तरह बिता रहे हैं। उसके आ जाने के बाद पार्क के किसी घने झुरमुट में अनिर्वचनीय महा-आनन्ददायक प्रेमालाप होगा, बस। उनके मन रूपी कड़ाह के डाह रूपी खौलते तेल में पति के प्रेमालाप के इन दृश्यों ने एकदम उफान ला दिया। क्रोध से उनका पूरा बदन हिल-सा गया। माथे पर पसीने की बूँदें छलछला आईं। सासें गहरी-गहरी चलने लगीं। पूरी खुली होने के बावजूद भी आँखों से जैसे दिखना बन्द हो गया।

“चलें!” एकाएक यह शब्द सुनकर उनकी तन्द्रा टूटी। वह बुरी तरह चौंक गईं। खन्ना जी बच्चों के पास से चलकर कब उन तक आ पहुँचे, उन्हें पता ही न चला।

“आसन और प्राणायाम जैसी चीजें भी पति से छिपकर चुपचाप करोगी! भई, यह तो हद हो गई तुम्हारे संकोची स्वभाव की।” खन्ना जी उनसे कह रहे थे, “सुबह को मेरे सोए रहने तक ही यह सब चुपचाप निबटाती रही हो, यह तो मुझे मालूम था। लेकिन, यहाँ पार्क में आकर करने की भी ललक जाग उठेगी, यह मैं नहीं सोच पाया था। वहाँ, बच्चों के साथ खेलते-खेलते वह तो अचानक ही मेरी निगाह तुम पर आ पड़ी…। चलो अच्छा रहा, कल से साथ ही निकल आया करेंगे दोनों।”

“नहीं-नहीं,” पति की यह बात सुनते ही अपनी जगह से उठती हुई वह तिलमिलाई-सी बोलीं। उन्हें दरअसल, पहले ही दिन अपने देख लिए जाने पर हार्दिक अफसोस हो रहा था।

“जैसी आपकी मर्जी।” खन्ना जी बोले,“भई अपना तो एक ही उसूल है—जिसमें सब राजी, उसमें रब राजी। पर, इतना मैं जरूर कहूँगा कि अच्छे कामों को करने में आदमी को संकोच नहीं करना चाहिए। कल से…”

“फिर कल से!…” चोरी करते पकड़े गए सफेदपोश की तरह मिसेज खन्ना धीमे लेकिन तीखे स्वर में पुन: पति पर गुर्राईं,“घर का काम-काज भी देखना है न! कुदान मारने को रोज-रोज यहाँ चले आना मेरे लिए मुमकिन नहीं। मैं अपने हिसाब से खुद ही करूँगी यह सब…”  

दरअसल, कबूतरी की पकड़ तो तभी सम्भव थी, जब वह खन्ना जी के साथ न आएँ और इस तरह घर से निकलें कि खन्ना जी को उनके द्वारा अपना पीछा करने का आभास तक न हो। इस एहसास से कि खन्ना जी अधूरी रह गई बचपन की अपनी आकांक्षाओं को नए सिरे से जी रहे हैं…अपने जीवन की दूसरी पारी खेल रहे हैं—वह दूर, बहुत दूर थीं।

 


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