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Mallika Mukherjee

Romance

5.0  

Mallika Mukherjee

Romance

पहला प्यार

पहला प्यार

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मेरे अजीज़,

मुग्धावस्था में प्रवेश करते ही लड़की के मन की जमीं पर प्रेम का बीज अंकुरित होने लगता है, चाहे वह कोई राजकुमारी हो या अत्यंत साधारण घर की लड़की हो। वो तलाशती है अपने सपनों का राजकुमार जो उसके जीवन में आए, उससे प्यार जताए, उसके साथ कुछ शरारत, कुछ मज़ाक-मस्ती करे। उसे एक ऐसी रोमानी दुनिया में ले जाए जहाँ सिर्फ़ खुशियाँ ही खुशियाँ हो।


अपनी किशोरावस्था में मैंने भी यह सपना देखा। अपनी उम्र के सोलहवे साल में मैंने कॉलेज में क़दम रखा। एक दिन तुम दिख गए कॉलेज के प्रांगण में। अहा ! इतना आकर्षक और खूबसूरत नौजवान जो हर लड़की का सपना बन सकता था ! गाँव से आई मुझ जैसी सीधी सादी छोरी की क्या मजाल कि तुमसे नजरें भी मिला पाती ! तुम एक कलाकार थे। गीत-संगीत और अभिनय तुम्हारा जीवन था। मेरे भी यही पसंदीदा क्षेत्र थे।


चार वर्ष तक जूझती रही ख़ुद से। मेरे ही सहाध्यायी होने के कारण कितने अवसर भी मिले तुमसे बात करने के, कितने अवसर तुमने भी मुझे दिए कि तुमसे कुछ कह पाऊँ। पर कहाँ ? अबोध मन में अस्वीकृति का डर और सबसे अहम् बात तुम्हारा अलग धर्म ! जितनी बार हिम्मत की भी, धर्म की दीवार बीच में बाधा बनकर खड़ी मिली जिसे लाँघने की हिम्मत ही न जुटा पाई कभी। कॉलेज के चार वर्ष इसी कशमकश में बीत गए और तुम चले गए एक दिन मेरी नज़र से दूर, मेरी ज़िंदगी से भी। कॉलेज की पत्रिका मेरे पास थी, जिसमें तुम्हारी तस्वीर थी। उसी को दिल के तहखाने में सुरक्षित रख दिया, इसी उम्मीद के साथ कि जीवनपथ पर कभी, कहीं तुम मुझे मिल जाओ तो सारी हिम्मत जुटाकर मेरे प्रेम का इजहार कर सकूँ। जीवन चलता रहा, बदलता रहा, तुम न मिले पर ये उम्मीद महफूज रही। तुम मेरा पहला प्यार थे और रहे।


कोई रिश्ता ऐसा भी होता है जिसे परिभाषित किया नहीं जा सकता। ऐसा रिश्ता जो समय और काल से परे हो। कालांतर में मुझे महसूस हुआ कि तुम्हारे प्रति मेरा आकर्षण सिर्फ़ शारीरिक नहीं, आत्मा का था। अगर आत्मा का न होता तो तुम्हारे प्रति मेरा प्रेम समय के साथ क्षीण हो सकता था, पर यह तो समय के साथ बढ़ता चला गया शाश्वतता की ओर। जिसका न आरंभ था, न समाप्ति, बस पत्थर की लकीर बन दिल के तहख़ाने में बस गए तुम और रौशनी की तरह जगमगाते रहे। उस रौशनी की गरमाहट को महसूसती रही मैं। नियति ने हमें साथ चलने नहीं दिया, पर हमारे रिश्ते को मरने भी नहीं दिया। तुम मेरा पहला प्यार थे और उसका अहसास बरक़रार रहा और मेरे साथ चलते रहे तुम सिर्फ एक तस्वीर के सहारे, किसी ने न जाना ! मन में यह आस धरी रह गई, एक बार तुमसे इतना ही कह पाती कि तुम मुझे अच्छे लगते थे !


प्रवीण गार्गव ने अपने एक आलेख ‘लिखे हुए शब्दों के प्रति श्रद्धा’ में लिखा है, ‘लिखते समय अगर हमने सच्चाई से लिखा है, तो श्रद्धा बन जाता है, विश्वास बन जाता है। यही विश्वास कार्य पूर्ण करने में सहायक हो जाता है और यही श्रद्धा विश्व चेतना को हमारे लक्ष्य प्राप्ति में सहायक बनने को मजबूर करती है।’ मेरे दिल पर जो बीती वो दिल के तहख़ाने में कैद हो गई। कभी कभी कागज पर अवतरित भी हुई वह झुलसी हुई अनुभूतियाँ। लिखे हुए वही शब्द शायद ताकत बने और पैंतालीस वर्ष के बाद तुम आ मिले मुझे फेसबुक के जरिये ! मैंने जो कुछ भी लिखा सच्चे दिल से लिखा, तुम्हें मिल पाने की उम्मीद लेकर लिखा-


सृष्टि के कण-कण में पाया मैंने

तुम्हारे प्रेम का प्रतिसाद,

तुम्हारे होने की भ्रांति,

तुम्हारे सान्निध्य की कांति,

मेरा प्रणय निवेदन

और प्रेम की अनश्वरता का आश्वासन !

बताओ, कहाँ-कहाँ से मिटाती मैं

तुम्हारी याद ?

कुछ भी शेष न रहता

तुम्हें मिटाने के बाद !


दीर्घ अंतराल में कितना कुछ बदल गया ! आज हमारा जीवन, हमारी राहें, हमारी मंजिल सब कुछ अलग है। हम दोनों विवाहित हैं, अपने अपने संसार में व्यस्त हैं। हमारे बीच 13500 कि.मि. की दूरी है और कॉलेज के चार वर्ष निकाल भी दें तो, तुम्हें देखे 41 वर्ष का समय बीत चुका है, पर तुम्हारे प्रति मेरे प्रेम में रत्तीभर भी फर्क मैंने महसूस नहीं किया। मेरे तन -मन में तुम्हारी याद एक मीठी धारा-सी बहती रही। तुम मेरी प्यास थे, जो तुम्हारे मिलने पर ही बुझ सकती थी। हमारे राहें अलग हुई क्या हुआ, तुम्हारे प्रति मेरा प्रेम तो अब भी धड़क रहा था मेरे अंतर्मन में !


सात समन्दर पार तुम्हारा बसेरा जानकर एक बार तो मायूसी ही हाथ लगी, जीवन में तुम से एक बार मिलने का सपना भी चूर-चूर हो गया। उस पर तुम्हारे स्वास्थ्य के बारे में जानकर मैं बिलकुल टूट-सी गई। तीन महीने पहले तुम्हारा कोलोन कॅॅन्सर का ओपरेशन हो चुका है। मैं कॉलेज के दिनों में रोती रहती थी तुमसे प्रेम का इजहार न कर पाने की वजह से और तुम मिले तब भी मैं ज़ार-ज़ार रोई ! हम एक-दूसरे के लिए बने थे फिर कौनसी ताकतें हमारे बीच एक ऐसी दीवार बनकर खड़ी थी जो पैंतालीस वर्ष के बाद भी टूटने को थी और अपनी प्रचंड धारा में उस टूटी दीवार का सारा मलबा अपने साथ बहा ले जाने को सक्षम थीं ? दूरियाँ क्या कर पाई ?


आस्था की शक्ति चमत्कार करती है, ये चमत्कार हुआ। तुम मिले, इतना ही नहीं, हिम्मत जुटाकर मैं तुमसे कह पाई कि तुम मुझे अच्छे लगते थे, यह भी कह दिया कि मैं तुम से प्रेम करती थी, अब भी करती हूँ। आज अगर न कह पाती तो कब कहती, बताओ ? तुम्हारी इस नन्हीं परी को अब किसी का डर नहीं, न घर का, न परिवार का, न समाज का। दुनिया चाहे बदतमीज कहे या बेशर्म कहे, आज उसे परवाह नहीं। फिर इससे बड़ा चमत्कार और क्या हो सकता था कि तुमने प्रेम के अस्तित्व को नकारा नहीं। इतने वर्षों के बाद मेरे प्रेम को क़बूल किया और प्रेम के बारे में मेरी इस धारणा को बदलने से मुझे बचा लिया- ‘प्रेम सबसे ऊपर है और प्रेम से ऊपर कुछ नहीं !'


गुजराती गज़लकार बरकत विराणी ‘बेफ़ाम’ की गज़ल ‘मारी असवारी हती’ के दो शेर जैसे हमारे लिए लिखे गए-


'आपणी वच्चे चणाई गई हती दीवाल

में पछी तारी छबीथी एने शणगारी हती!'


(हमारे बीच चुन दी गई थी जो दीवार, उसी दीवार को मैंने तेरी तस्वीर से सजाया था।)


हमारे बीच खड़ी धर्म की ऊँची दीवार के उस तरफ़ तुम थे और इस तरफ़ तुम्हारी तस्वीर को उसी दीवार पर टाँग कर खड़ी रह गई मैं !


तुम्हारे लिए –


प्रेमनी हद एटली तो एणे स्वीकारी हती,

बंद दरवाजा हता किन्तु खुल्ली बारी हती!


(प्रेम की सीमा को उतना तो उसने माना था, दरवाजे बंद किए थे, पर खिड़की खुली छोड़ी थी !)


तुम्हारे हृदय की खिड़की भी खुली रह गई थी जहाँ से एक बार फिर झाँकने का सुवर्ण अवसर मुझे मिला। दुन्यवी बंधनों के दायरे को तोड़कर मैंने तुम्हें अपना प्रेम जताने का दुस्साहस किया, क्योंकि मेरा प्रेम पवित्र है। मैं ख़ुशकिस्मत हूँ कि इसी जीवन में तुमने मुझे उस मुहब्बत की अनुभूति करवाई जिसकी मैं हकदार थी। ज़माना चाहे इसे नाजायज मुहब्बत कह ले, पर मेरा यह प्रेम ही तो जायज है ! तुम मेरे जीवन का सत्य थे इसलिए जीवन के सारे रिश्ते, सारे दायित्व ईमानदारी से निभाते हुए भी मैं तुम्हारी राधा बन पाई। तुम गोपियों के प्रिय थे पर मेरे प्रियतम थे। अंकिता से शादी करने में भी तुम्हें धर्म की वजह से ही उलझना पड़ा और बड़ी भारी कीमत भी चुकाई तुमने इस अंतर्धर्मीय विवाह की। अंकिता का तुम्हारे प्रति प्रेम भी उतना ही पवित्र था। वह तुम्हारी रुक्मणि या सत्यभामा बनी, मेरे नसीब में तुम्हारी राधा बनना लिखा था।


हम अपनी बातों में परत दर परत खुलते गए। अनावृत्त हो गए एक दूजे के सामने। बीते वर्षों की मेरी अनुभूतियों को शब्दों में रूपांतरित करना बड़ा कठिन था, फिर भी मेरे जीवन के सबसे पीडादायी समय और उस समय की मेरे अंतर की व्यथा को तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत कर दिया। कैसे चेहरे पर चेहरे लगाना सीखते ही मैं नादान लड़की से समझदार महिला बन गई थी ! जिसने मुझे निडर महिला समझा उन्हें नहीं मालूम था कि मैं आज भी उतनी ही डरपोक हूँ। जो मुझे एक सफलतम महिला मानते हैं वे नहीं जानते मैंने जीवन में कहाँ-कहाँ मात खाई है। जिन्होंने देखा, मुझ जैसी साँवली और साधारण शक्ल सूरत की लड़की को सत्यार्थ जैसा गोरा और खुबसूरत नौजवान पति के रूप में मिला, उन्हें कहाँ पता है कि मेरी मुहब्बत दीवारों में चुन ली गई। अकेलापन जैसे जैसे एकाकीपन में तब्दील होता चला गया, मैं ख़ुद के साथ समय बिताने लगी। अपना कार्य करती रही, अपने कर्तव्य निभाती रही। मेरा जीवन ही साधना बन गया, पर एक ही रिश्ते पर मेरा विश्वास बना रहा। प्रेम का रिश्ता, सारे दुन्यवी रिश्तों से अलग एक ऐसा रिश्ता जो किसी नाम का मोहताज नहीं।


कितनी बार मैंने ईश्वर से प्रश्न किया, ‘अगर मेरी क़िस्मत में तूने प्रेम लिखा ही नहीं तो क्यों मुझे इतना प्रेम भरा दिल दिया ?’ मेरे पास कुछ है ही नहीं देने के लिए, सिवा प्रेम के। क्या करूँ ? देर से ही सही ईश्वर ने मुझे सुना। हर किसी के जीवन में ऐसा नायक नहीं आता प्रत्युष ! मैं ख़ुशकिस्मत हूँ कि तुम मेरे नायक थे और मेरे जीवन में आए। सब कुछ बिखर गया, पर मैंने फिर समेटा तुम्हारा प्रेम अपने आँचल में, कितनी तपस्या के बाद। हमने अपने-अपने जीवन के संघर्ष, दुःख-दर्द, अपमान, दुत्कार, निराशा, जैसे सारे नकारात्मक भावों को लिखा फिर उत्सर्ग कर दिया प्रेम के महासागर में ! बीते समय की सीमा को लाँघकर फिर आ गए उस कॉलेज के प्रांगण में, सिर्फ एक बार उस गुजरे जीवन को अनुभूत करने ! कभी बिलकुल सोलह और अठारह के बनकर ख़ूब मस्ती भरी बातें की, कभी हमारी अलग-अलग बीती ज़िन्दगी के बारे में कहा और कभी एकदम बुजुर्ग बनकर ज़िंदगी के फ़लसफ़े की बातें की। कुछ ही दिनों के चैट में हमने जैसे पैंतालीस वर्ष का जीवन जी लिया ! हमने एक-दूजे की लिखी हर पंक्ति को सुना, उसे समझा, फील किया और लिखकर अपनी प्रतिक्रिया भी दी। यही तो मुहब्बत का शिखर बिंदु है मेरी जान !


हमारी कहानी तो ख़त्म हो चुकी है। सिर्फ़ अतीत में जाकर हमने उसे गूँथा। इतने दूर होते हुए भी तुमने सिर्फ संवादों के ज़रिये मुझे वो प्रेम के सारे अहसास दिलाए जो शायद तुम्हें क़रीब पाकर भी न मिलते। मुझसे मज़ाक-मस्ती, शरारत की, यहाँ तक कि मुझे कामदेव की पत्नी प्रीति की तरह अपनी आत्मिक पत्नी का दर्जा भी दे दिया ! हम अपने अपने संसार में व्यस्त हैं। हमारा प्रेम अब किसी रिश्ते की अपेक्षा नहीं करता फिर भी मैंने तुम्हें यह अधिकार दिया। तुम कुछ भी कहो, मैं बाधा नहीं डालूँगी। मैं नहीं चाहती जीवन की संध्या बेला में तुम किसी भी तरह के अपराध भाव से ग्रस्त हो जाओ। मैं हर हाल में तुम्हें ख़ुश देखना चाहती हूँ। तुम्हें क्या लिखूँ, कितना लिखूँ ? तुम न मिलते तो तुम्हारे प्रति मेरे प्रेम को महसूस न कर पाते, न ही मेरे प्रति तुम्हारे प्रेम का अहसास दिला पाते ! तुम्हारी आरजू मेरे लिए अंतहीन आस है। मुझे नहीं पता इस जीवन में हम कभी मिल पाएँगे या नहीं, पर मिले तो वह समय और उम्र की सीमा के पार का मिलन होगा। मैं तो युगों तक तुम्हारी प्रतीक्षा कर सकती हूँ। प्रकृति का नियम है, जो हम प्रकृति से माँगते हैं प्रकृति हमें वही देती है। आज मैं प्रकृति से इस जीवन में तुमसे एक मुलाक़ात माँग रही हूँ। यही मेरे प्रेम की पराकाष्ठा है।


तुम मेरा पहला प्यार हो और सदा रहोगे।


तुम्हारी नन्ही परी।




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