गुलाब के फूल
गुलाब के फूल
शाम के समय मंजरी, नियमानुसार अपने बगीचे में पौधों की देखभाल कर रही थी। गुलाब के पौधों में छोटी- छोटी कलियाँ आने लगी थीं और खाद डालने का समय हो गया था।
अब तो उसे पौधों के रख-रखाव, खाद, दवा इत्यादि के बारे में सब समझता था। कब, कैसे, किस पौधे की कटिंग करना है, किसकी कलम तैयार की जा सकती है, सब समझती थी। पहले उसे कहाँ पता था, खाद कब डालते हैं? किसी विद्यालय में थोड़े ना सिखाया गया था। उसे तो बस बगीचा लगाने का शौंक था। यह सब तो उसने संजीव से सीखा था। उसी ने बताया था जब पौधों में फ्लॉवरिंग होती है तब इन्हें खाद की आवश्यकता होती है, वरना मंजरी को इन बातों का ज्ञान कहाँ था......
मंजरी के पिता बैंक मैनेजर थे और माँ एक विद्यालय में पढ़ाती थी। विवाह से पूर्व वह हाउसिंग सोसायटी की मधुबन कॉलोनी में रहती थी जहाँ सबके घरों में बगीचे थे। दो मंजिला मकान, आगे पीछे बालकनी, आगे बड़ा सा हरा-भरा लॉन, जिसमें तीन ओर फूलों के लिए क्यारियाँ बनी थीं। मकान के एक ओर लंबी सी जगह जिसमें अधिकांशत: सभी ने फलदार पेड़ और सब्जियाँ लगा रखी थीं। सभी के घरों में खूब हरियाली थी।
सामने वाले घर में संजीव रहता था, गोरा, आकर्षक, सजीला सा जवान। उसके पापा, जैन अंकल, का एग्रीकल्चर गुड्स का कारोबार था। तरह- तरह की खाद, कीटनाशक दवाएँ बीज इत्यादि। उन्होंने अपने परिचितों से बहुत उच्च कोटि की गुलाब की कलमें लाकर लगा रखी थीं। मंजरी उनके बगीचे में लगे बड़े- बड़े गुलाब के फूल देखकर ही मोहित होती रहती थी, जैसे संजीव मंजरी को पहली बार देखते ही उस पर मोहित हो गया था। मंजरी थी भी बहुत खूबसूरत, छरहरा बदन, एकदम गोरी- चिट्टी, चिकनी चमड़ी, गुलाब की पंखुड़ियों से भी कोमल होंठ, कोमल गुलाबी गाल, अंडाकार चेहरे पर सुतवाँ नाक, लंबे काले बाल, जिन्हें करीने से गूँथकर वह एक मोटी चोटी बनाती, जो कमर तक लहराती रहती। उसके बालों की एक लट हमेशा शरारत से उसके गालों को चूमने को लालायित रहती।
उसके बगीचे में पानी देने के समय संजीव के अपनी बालकनी में तैनात रहने से जल्दी ही मंजरी को उसकी एक जोड़ी आँखों का अपने चेहरे का मुआयना करने का एहसास होने लगा था।
ऐसा नहीं कि वह मंजरी को अच्छा नहीं लगता था। वह भी दिल ही दिल में उसे पसंद करने लगी थी। एक झिझक के रहते दोनों के दिल की बात मानो किसी अधखिली कली की तरह खिलने का इंतज़ार कर रही थी। आखिर वह दिन भी आ ही गया। उसे लॉन में कुर्सी पर अकेली बैठ चाय पीते देखकर संजीव भीतर चला आया और उसके पास जाकर बोला, "मैंने सोचा, आज आपका बगीचा तो देखूं, आपने क्या- क्या लगाया है?"
"जी, जरूर.......... चाय पीजिए"
"शुक्रिया, अभी पी है"
एक सरसरी निगाह से बगीचा देखकर बोला, "खाद डालो, गुड़ाई भी करो........." जैसे दो तीन टिप्स देकर चला गया।
कुछ रोज़ बाद पौधों कि जानकारी की एक किताब हाथ में लाया जिसे मंजरी के हाथ में देते हुए बोला, "तुम्हारे लिए है, पढ़ लेना...."
किताब में एक चिट थी, जिस पर लिखा था,
सफर वहीं तक है जहाँ तक तुम हो,
नजर वहीं तक है जहाँ तक तुम हो,
हजारों फूल देखे हैं इस गुलशन में मगर,
खुशबू वहीं तक है जहाँ तक तुम हो।
मंजरी समझकर भी कुछ समझ नहीं पा रही थी। पहले प्यार और डर के मिले-जुले एहसास से उसका दिल जोर- ज़ोर से धड़क रहा था, हाथ- पैर काँप रहे थे। चोरी पकड़े जाने के डर से उसने चिट अपनी अलमारी में छुपा दी और चुपचाप अपने कमरे में बैठकर अपनी धड़कनों पर काबू पाने का प्रयास करने लगी।
नतीजतन संजीव जब भी बालकनी में दिखता, दोनों की नजरें मिलते ही मंजरी का चेहरा शर्म से गुलाब जैसा लाल हो जाता और वह नज़रें झुका लेती। पर जब संजीव किसी दूसरी तरफ देखता तब वह उसे ही देखती। आखिर प्यार की इस बगिया में बहार आ ही गई थी।
बार-बार नज़रें मिलने, झुकने, टकराने से आँखों-आँखों में भी बातें होने लगीं। फिर तो खाद, टिप्स्, गुलाब के फूल, किताबों में शायरी भरे प्रेम पत्रों का आदान-प्रदान, चलते-चलते काफीशॉप और सिनेमाघरों तक जा पहुँचा। बालकनी से एक दूसरे को देखना, देर रात तक जागना, साथ जीने मरने की कसमें, कभी ना भुलाने के वादों, ने प्यार के पौधे में खाद का काम किया।
प्यार का मौसम अपने शबाब पर था। प्यार के साथ गुलाब के फूल भी अपनी खुशबू बिखेर रहे थे। कि अचानक मौसम बदल गया। यकायक बिजली चमकी और बगिया पर कुठाराघात होने से सबकुछ बदल गया।
मंजरी का स्नातक पूर्ण होते ही माता-पिता उसके लिए योग्य वर की तलाश में जुट गए। संजीव आगे पढ़ना चाहता था पर मंजरी को आगे पढ़ने की अनुमति ना मिली। दोनों ने माता- पिता को बताने का सही समय सोचकर उन्हें अपनी पसंद से अवगत कराया। दोनों घरों में मानो तूफान ही आ गया।
संजीव के पिता गुस्से से बोले, "तुम पागल हो गए हो। ये प्यार व्यार कुछ नहीं होता। क्या तुम नहीं जानते, उनके घर मांस, मच्छी, अंडा सब चलता है और हमारे यहाँ......"
वहीं मंजरी के पिता विचलित होते हुए बोले, "मैं तुम्हारा विवाह बिना पत्रिका मिलाए नहीं करूंगा। पंडितजी ने तुम्हारे जन्म के समय ही कह दिया था।"
संजीव माता- पिता के निर्णय से टूट चुका था, फिर भी मंजरी के आग्रह पर उसने छुपाकर अपनी पत्रिका के साथ उसे एक चिट भी दे दी।
यह संजीव की ओर से दिया गया अंतिम शेर था
कल मिला वक्त तो सुलझाऊँगा जुल्फें तेरी
आज तो उलझा हूँ वक्त को सुलझाने में
एक और वज्रपात हुआ मंजरी और संजीव की पत्रिका ना मिली, उससे भी बड़ी बात यह कि मंजरी आयु में संजीव से छह माह बड़ी थी। हजार मिन्नत मुनव्वल के बाद भी दोनों के माता पिता टस से मस ना हुए।
मंजरी के माता पिता ने जल्द ही अपना घर बदल लिया। बस नहीं बदल पाए तो मंजरी के दिन में बसे संजीव को। इसके बाद एक योग्य वर देखकर उसके हाथ पीले कर दिए।
मंजरी अपने ससुराल तो चली आई पर अपना दिल वहीं छोड़ आई थी। अपनी गृहस्थी में रच बस गई। फिर कभी मधुबन कॉलोनी जाना ही नहीं हुआ। बहुत बाद में किसी से सुना था, संजीव अपने पिता का व्यवसाय संभालता है और उन्होंने भी घर बदल लिया है।
घर तो मंजरी का भी बदल गया था बस नहीं बदली थी तो संजीव के लिए उसकी चाहत, जो आज भी वैसी ही थी