वो भोली सुनीता
वो भोली सुनीता
बड़ी अजीब थी वो, बचपन से ही! आठ बहनों में से एक थी वो। माँ -बाप ने शायद इसी लिए ध्यान नहीं दिया, खुद को कम दिमाग का साबित कर स्कूल जाने से बच गयी। ये उसका नज़रिया था कि उसने खुद को बचा लिया एक ज़िम्मेदारी से। फिर तो उसकी आदत सी बन गयी हर काम से बचने की। आठ थी, तो माँ-बाप को भी कोई फर्क नही पड़ता था। धीरे-धीरे समाज में मशहूर होने लगा, बहुत भोली है वो। औपचारिक रूप से समाज के सामने अब माँ-बाप के लिए भी आठ में से सात की ज़िम्मेदारी रह गयी थी। एक ज़िम्मेदारी कम करने की माँ बाप की चाहत ने उसे निक्कमा, आलसी ,कामचोर,लड़ाई खोर और दुनिया के सामने भोली बना दिया था। असली नाम तो लोगों को बता ही नहीं था। भोली, सीधी और कमली ये तीन नाम ही प्रचलित थे उसके। पर यादाश्त तो इतनी तेज़ थी उसकी, सदियों पुरानी बातें और फ़ोन नंबर उसको रटे रहते थे। पर माँ-बाप को तो ज़िम्मेदारी से बचना था तो वो ध्यान कैसे देते? समय गुजरता गया। भोली अब जवान हो गयी थी।किस्मत की धनी भोली की किस्मत ने काम किया। शहर के एक बड़े सेठ के मोटे लड़के को लड़की नहीं मिल रही थी। बहुत कोशिश करने के बाद भी जब सेठ को अपने लड़के के लिए लड़की नहीं मिली तो थक हार कर भोली के लिए उसने हामी भर दी। अब क्या था, भोली का नामकरण हुआ, अब भोली सुनीता बन चुकी थी।शादी कर सुनीता ससुराल आयी। ससुराल में अब वो फिर मायके वाली आदतों पर आ गई। बहाना मार कर अपनी हर ज़िम्मेदारी से बचने लगी। सास-ससुर ने परेशान होकर उसको अपने बेटे के साथ अलग घर ले कर दे दिया। पर सुनीता ना बदली। देखते ही देखते किस्मत की धनी सुनीता ने दो पुत्र पैदा कर दिए। पति पर ही उन्हें पालने की ज़िम्मेदारी देकर मौज़ मारने लगी। यहां आकर ज़िम्मेदारी से बचने वाले माँ -बाप की ग़लती अब उजागर होने लगी थी। एक ज़िम्मेदारी से बचने के लिए उन्होंने तीन ओर लोगों की ज़िन्दगी बर्बाद कर दी थी।बच्चे भूखे रह कर खाने की तलाश में इधर-उधर घूमते रहते थे। पति काम से आकर रोटी बना कर बच्चों को खिलाता। और उस कामचोर का भी पेट वही भरता। शिक्षा के नाम पर वो बच्चों को सिर्फ लड़ना ही सिखाती।पति भी उसका बोझ सह ना पाया। चालीस की उम्र में वो भी चल बसा। अब सुनीता का बोझ उसके सास-ससुर के कंधों पर आ गया। कुछ साल तक उसके बच्चों की परवरिश कर, बच्चों की शादी कर दी। अब बहुएँ घर आ गयी थी। सुनीता ने फिर वही चाल चली भोली बन कर ज़िम्मेदारी से बचने की ! दिमाग ठनका तब उसका जब बहुओं ने भी उसको पागल साबित करना शुरू कर दिया। बहुओं से बेकद्री और पागल की उपाधि पाकर सुनीता तिल मिला गयी। अब वो उस समाज की शरण में गयी, खुद को समझदार बताने के लिए। पर समाज तो उसे कब का पागल मान चुका था। पागल की कौन बात सुनता। अब सुनीता सच्ची में पागल होने लगी थी। घर के लोगों पर, समाज पर अब वो चिल्लाने लगी थी। बहु -बेटों ने उसे घर के बाहर का रास्ता दिखा दिया। इस पर समाज ने भी विरोध नहीं किया। क्योंकि अब उन्हें समाज की औपचारिक सहमति मिल गयी थी।आखिर में सारी उम्र ज़िम्मेदारियों से बचने की चाह ,अब उसे सड़क पर ले आयी थी।