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छठी-बरही

छठी-बरही

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"अरी! वो परबतिया ये बाहर सोर कैसन। रतिया में अबेर से सोआ हा; अब इत्ती तड़के इ सोर सोये नाहीं दे रहा।"

परबतिया खुश हो बोली, "लागत हा सुगना के बेटवा हुआ है, उ पेट से थी न।"

लखन बोला, "कोवन सुगना?"

"अरे, दो घरवा छोड़ जवन त्रिभुवन कै लुगाई है न ओकरे।"

सुनते ही लखन खुश होता हुआ चारपाई छोड़ उठ खड़ा हुआ और बोला, "अच्छा तब त ओकरे घरे जाई के चाही बधाई देई बरे। अरे चार ठो बिटियन के बाद बेटवा भ। चलु चलित हा ओकरे इहाँ।"

उसके घर पहुँचते ही बाहर ही ख़ुशी से नाचता हुआ त्रिभुवन मिल गया। लखन गले लगते हुए बोला, "बधाई हो भईया। चला नीक भा तोहरेव बंस के चलावे वाला आई गा।"

त्रिभुवन भी ठहाका मारते हुए बोला, "हा भईया, भगवान के घरे देर भले बा पर अंधेर नाही बा।"

त्रिभुवन अपनी बिटिया को आवाज दे बोला, "अरी कमला अपनी काकी के भीतर लई के जाl कमला को देखते ही लखन बोला, "कमला त बड़ी होई गई। समय केतनी जल्दी बीती जात हा न।"

त्रिभुवन बोला, "हाँ बड़ी होई गई, अब एकर भी हल्दी शादी-वादी कराइ के छुट्टी होई। ऊ तीन ठे मरी गईन नाही ता उहो खोपड़ी पर बोझ अस लदी होतिन।"  जैसे एक से भी त्रिभुवन को बड़ा कष्ट हो रहा था।

उस दिन त्रिभुवन ने पूरे गाँव में ख़ुशी-ख़ुशी लड्डू बंटवाये। देर रात तक उसके घर पर जश्न का माहौल रहा। गाँव की औरतें कई दिनों तक रात-रातभर सोहर गाती रहीं रहीं।

धीरे धीरे समय जैसे भागता गया। त्रिभुवन का बेटा नरेश अब बड़ा हो गया था। खेत पर भी खूब मेहनत कर अपने पिता का हाथ बंटाने लगा था। त्रिभुवन भी खुश रहता कि बेटा कंधे से कन्धा मिला काम कर रहा हैं। बिटिया तो शादी कर ससुराल जा चुकी थी। त्रिभुवन मन ही मन अपने बेटे नरेश की भी शादी के सपने संजोने लगा था। गबरू जवान है, गोरा-चिट्टा है और सब से बड़ी बात मेहनती है। लड़कियों के बाप खूब चक्कर लगायेंगे।

समय बीतता गया एक्का-दुक्का ही शादी के लिए आये, पर बात नहीं बनी। अब त्रिभुवन परेशान रहने लगा बेटा पच्चीस के पार जा चुका था परन्तु शादी के लिए अब तो रिश्ते आ भी नहीं रहे थे।

इसी बीच एक डाक्टर साहिबा गाँव के ही सरकारी अस्पताल में आयीं। बड़ी खूबसूरत थीं। पतली दुबली, नाम भी बड़ा प्यारा शालिनी। अस्पताल में कम गाँव में अधिक नजर आतीं। गाँव के घर-घर जाती; लोगों को देखती। उनके व्यवहार और अपनेपन के करण महीने दो महीने में ही सारा गाँव उनका भक्त सा हो गया था।

इसी बीच सुगना बीमार पड़ी तो शालिनी उसके घर आई। इंजेक्शन एवं दावा देने के बाद पानी मांगने पर त्रिभुवन ही उठकर पानी ले आया। शालिनी पूछ बैठी, "घर में कोई और नहीं है?"

त्रिभुवन का तो जैसे किसी ने पुराना घाव ही कुरेद दिया हो, बोला- "नाहीं बिटिया, कोहू नाहीं हैं पानी देयी वाला भी। बिटिया की शादी कइ दिहा। अउर एक ठे बेटवा बा, पर ओकर रिस्ता अवतय नाही बा कतव से।"

शालीन सी दिखने वाली शालिनी यह सुन जैसे भड़क ही गयी। "पूरे गाँव में देख चुकी हूँ, जिसे देखो बेटा चाहिए होता हैं बेटी नहीं। बेटी सुनते ही तुम सभी को तो जैसे सांप ही सूंघ जाता हैं। चले जाते हो डाक्टर के पास मुंह उठाये। 'डाक्टर साहब बच्चा गिरा दो, बेटा ही चाहिए, बेटी नहीं।' बेटी तो तुम सबको बोझ लगती है! एक दो हुई नहीं कि तुम लोगों को लगता हैं कि जैसे पिछले जन्म का पाप हैं। बेटा हुआ तो जैसे स्वर्ग सीधे घर में ही आ गया।

अब तुम्हीं बताओ तुम्हारे ही जैसे तो आसपास के सभी गाँव वाले सोचते होंगे न। फिर कहाँ से, किससे करोगे शादी बेटे की। जब से यहाँ आई हूँ कई घरों में बेटी का अनादर देखा। इतनी बेटियों से घृणा कैसे कर लेते हो। आखिर बेटी भी तो तुम्हारा ही खून है।

त्रिभुवन और उसकी लुगाई मुंह बाये अवाक हो सुनते रहें। त्रिभुवन को तो जैसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि जिसकी मासूमियत की बड़ाई सारा गाँव कर रहा है वह इतनी गुस्सैल भी होगी।

गाय की तरह सीधी-साधी डाक्टरनी मरकहा बैल लग रही थी। सुगना के तो आँखों से आंसू झर-झर बहे जा रहे थे। शालिनी की फटकार सुनकर। शालिनी ने जब सुगना को रोते हुए देखा तो उससे मुख़ातिब हो बोली, "अब रोने से क्या फ़ायदा। तुम भी तो इस गुनाह में इनके साथ रही। अब दोनों रोना धोना छोड़ गाँव वालों को जागरूक करने में मेरा सहयोग करो। मेरी कम सुनते हैं भाषा भी उन्हें हमारी कम समझ आती। तुम गाँव वाले ही एक दूजे को समझाओगे तो ज्यादा असर पड़ेगा।”

'बेटा-बेटी एक समान दोनों को दुनिया में ला बनो महान' ये नारा जन जन तक पहुँचाओ।" सब समझाकर जैसे ही शालिनी जाने लगी परबतिया आ गयी। डाक्टरनी को देख "का हुवा, का हुवा?" बोलते हुए सुगना को बिस्तर पर देख उसके पास दौड़ी।

"अरी, का हुवा सुगना तोहे?"

"अरे कुछ नाही बस रची क तबीयत ख़राब होई गई रही। तनिक पानी दई दे ता दवा खाई लेई।” डाक्टरनी की दवा दिखाते हुए बोली।

"हाँ, हाँ काहे नाही अभही लायित हा पानी।" परबतिया पानी लाकर देते हुए फिर बोली, "हमरी मान ता एक लड़की बाटे नजर में, ओके आपन बहू बनाई ले।"

"अच्छा!" कहती हुई यह बात सुन जैसे सुगना ख़ुशी से उछल ही पड़ी। बीमारी तो रफूचक्कर हो गयी कुछ देर के लिए।

परबतिया बताने लगी, "हमरे उ जो ममा क बेटवा हयेन न वो बंगाल से लड़की लाई रहेन। बस रची क रुपिया ज्यादा देई के पड़ा पर बहू बहुत खबसूरत मिली गई बा। अब ता एक बेटवा भी बा। हंसी-ख़ुशी से परवार चली रहा बाटे। हमरी मान तो उकर छोटी बहिन बा एक! कहु ता ओसे बात चलाई तोर बेटवा क।"

शालिनी को छोड़ त्रिभुवन भी अंदर आ चुका था। उसने सब सुन लिया था। वह बोला, "का कह रहीं हो भौजी, अब बहू भी रुपिया दई क खरीदय के पड़ी।” बहुत समझाने के बाद त्रिभुवन और सुगना राजी हो गये। परबतिया बोली, "ठीक बाटे, फिर कल्हे भईया से बात करीत हा, या कहा ता इही बोलाई लेई लड़की के बापय के, तुहू पचे समझी ला।" दूसरे दिन दोपहरिया में ही ही परबतिया का भाई मोहन अपने ससुर और साले के साथ आ गया। सब बाहर चबूतरे पर बैठ बात करने लगे।

मोहन के ससुर विष्णु को नरेश पसंद आ गया; आता भी कैसे नहीं था ही लम्बा-तगड़ा। विष्णु मन ही मन सोच रहा था कि 'हमरी बिटिया के तो भाग ही जाग गए जो इतना खबसूरत लड़का मिला।' पूरे पांच हजार में सौदा तय-तमाम हो गया। तय हुआ कि तिलक होते ही त्रिभुवन पांच हजार विष्णु के हाथ में रख देगा। सुगना भी खुश थी कि इतने सालों बाद उसकी मुराद पूरी हो रही। इस ख़ुशी को देख वह जल्दी ही बिल्कुल चंगी हो गयी। आखिर बीमारी भी तो बेटे के शादी के चिंता के कारण थी। बेटा सत्ताईस का जो हो चला था। जहाँ सोलह सत्रह साल में सब लड़कों की शादी हो जाती थी वहां इस उम्र को पार करना चिंता का कारण तो था। शादी का समय भी नजदीक आ ही गया। धूमधाम से मंदिर में शादी कर बहू घर लाये। बहू के आते ही पूरा गाँव मुंह दिखाई करने उमड़ पड़ा।

सुगना बोली, "परबतिया बहू त खूब सुघड़ बाटे। देख त चाँद क टुकड़ा लगत बा। सच परबतिया हमार त भाग खुल गये ऐसन बहू पाई के। सुगना गाँव वालों से बहू की तारीफ सुन फूले न समा रही थी। शालिनी खबर लगते ही आई। बहू मौली को देख वह समझ गयी कि ये शादी सौदेबाजी वाली शादी है पर बोली कुछ नहीं। आशीर्वाद देते हुए सुगना को अपना नारा याद दिला वहां से चली गयी।

छः महीने कैसे बीत गये पता ही न चला। अब बहू मौली पेट से थी। सुगना खूब खुश थी पर बहू के हाव-भाव देख उसे शक होने लगा कि पेट में पल रहा बच्चा लड़की है। त्रिभुवन से उसने अपना शक जाहिर किया। त्रिभुवन थोड़ा अनमना तो हुआ फिर कुछ देर बाद खुश होता हुआ बोला, “कोनव बात नाही, लक्ष्मी है। भूल गयी का शालिनी बिटिया की बात 'बेटा-बेटी एक समान दोनों को दुनिया में ला बनो महान'।"

त्रिभुवन को खुश देख सुगना का भी दुःख जाता रहा। सास-स्सुरौर पति मिलकर मौली का खूब ध्यान रखते। समय-समय पर शालिनी के पास दिखने ले जाते। कभी कभी शालिनी खुद ही चक्कर लगा जाती उसे भी ख़ुशी थी कि उसका अभियान रंग ला रहा हैं। त्रिभुवन और उसका परिवार लड़का है या लड़की इसकी परवाह नहीं कर रहें।

पांच महीने बाद मौली ने एक सुंदर सी बेटी को जन्म दिया। पोती को गोद ले त्रिभुवन की ख़ुशी का ठिकाना ही न था। पूरे गाँव में उसने एक बार फिर से लड्डू बंटवाये। सारा गाँव कानाफूसी कर रहा था; 'लागत है त्रिभुवनवा पगला गवा है बिटिया होय पर लड्डू बांटत बांटे।'

एक गाँव वाले ने मुंह पर ही कह दिया। त्रिभुवन हँसते हुए बोला, "चचा बिटिया तो लक्ष्मी क रूप हईन, पागल काहे नाही होबय। जब लक्ष्मी घरे आये त ओकर छठी-बरही भी करब अबय ता बस लड्डू ही बंटात बा। तुहू आयेय चच्चा आसीस देई हमार पोती के।” चच्चा मुंह बिचका कर रह गये। "बिटिया कै जन्मे में छठी-बरही करे, सही में पगलाय ग बा त्रिभुवनवा।"

आधा गाँव थू-थू कर रहा था लड़की की छठी करने को लेकर। फिर भी त्रिभुवन खुश था। ख़ुशी से वह जैसे एक पैर पर नाच रहा था। लखन यह देख परबतिया से बोला - "त्रिभुवनवा त इतना खुसी तब नाही रहा जब नरेश जन्मा रहा जितना कि आज बाटय।"

"थोड़ी देर सही, परन्तु इन सब को समझ आ गया कि बेटा-बेटी में कोई अंतर नहीं" दूर खड़ी शालिनी उसकी और कुछ गाँव वालों की ख़ुशी देख सोच रही थी। उसकी मुहिम रंग ला रही हैं, कम से कम शुरुआत तो हो चुकी है। ढोल-नगाड़े बजते देख उसकी ख़ुशी उन सब से चौगनी हो गयी थी।

दो -तीन साल में उस गाँव में अब कइयों के घर बेटियाँ जन्म ले चुकी थी त्रिभुवन के पीछे-पीछे सब चलने लगे थे। पूरा गाँव अब बेटियों से भी उतना ही प्यार करता था जितना की बेटों से। अब भूल से भी कोई बेटियों को बोझ नहीं समझता था।

एक दिन अचानक शालिनी के गाँव से जाने की खबर सुन लखन, परबतिया, सुगना और त्रिभुवन गाँव वालों के साथ उसके घर पहुँच गए। शालिनी से गाँव वालों के साथ मिल मिन्नतें करने लगे। एक स्वर में आवाज गूंजी, "बिटिया तुम मत जावो छोड़ के इ गाँव। तोहरे कारण ही त हम सब जनें समझी पाए कि लड़की भी बहुतय जरूरी है।"

शालिनी उन सबको देख भावुक हो गयी। फिर संभलकर बोली, "अब जाना ही होगा, आप सब के गाँव की तरह और गाँव भी तो है ना जहाँ त्रिभुवन काका जैसे व्यक्ति खोजने। जो अपनी सोच के साथ-साथ गाँव की भी सोच बदल सकें। अब ये जो अलख जगाई है ध्यान रहें इसे बुझने मत देना। आसपास के गाँव तक में यह अलख जगाओगे, मुझे पूरी उम्मीद है। त्रिभुवन ने शालिनी से वादा किया। शालिनी मुस्करा कर बोली चिंता न करो। मैं समय-समय पर आती रहूंगी, आप सबकी अलख में घी डालने।"

शालिनी कार में बैठ निकल गयी किसी और गाँव की ओर, अपनी मुहिम पर। त्रिभुवन सहित पूरे गाँव ने भावुक मन से शालिनी को विदा किया और संकल्प लिया कि गाँव-गाँव जाकर वह भी बेटियों की भ्रूणहत्या से बचायेंगे और उनके जन्म से धरा को पावन बनायेंगे।

 

 


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