नाक - 1
नाक - 1
25 मार्च को पीटर्सबुर्ग मे एक बड़ी अद्भुत घटना घटी। नाई इवान याकव्लेविच, जो वज़्नेसेन्स्की मोहल्ले में रहता था, उस दिन बड़ी सुबह जाग गया और ताज़ी डबलरोटी की ख़ुशबू उसे गुदगुदा गई। पलंग पर कुछ उठकर उसने देखा कि कॉफ़ी पीने की शौकीन उसकी धर्मपत्नी भट्टी से गरम-गरम डबल रोटियाँ निकाल रही है।
“प्रास्कोव्या ओसिपव्ना,” इवान याकव्लेविच ने कहा, “मैं आज कॉफी नहीं पिऊँगा, उसके बदले प्याज़ के साथ गरम-गरम डबल रोटी खाने को दिल चाह रहा है।”
(मतलब यह कि इवान याकव्लेविच को दोनों ही चीज़ें चाहिए थीं, मगर दोनों की एकदम माँग करना संभव नहीं था, क्योंकि प्रास्कोव्या ओसिपव्ना को ऐसे नख़रों से नफ़रत थी)
‘खाए बेवकूफ़, डबल रोटी ही खाए, मेरे लिए अच्छा ही है,’ बीबी ने सोचा, ‘उसके हिस्से की कॉफ़ी मुझे मिल जाएगी।’ उसने दन से डबल रोटी मेज़ पर पटक दी।
इवान याकव्लेविच ने शराफ़त के तकाज़े से कमीज़ के ऊपर गाऊन पहना, खाने की मेज़ पर बैठकर डबल रोटी पर नमक छिड़का, प्याज़ के छिलके निकाले, हाथ में चाकू लिया और बड़ी अदा से डबल रोटी काटने लगा। डबल रोटी को बीचों बीच दो टुकड़ों में काटकर उसने उसे ध्यान से देखा और हैरान रह गया- डबल रोटी के बीच में कोई सफेद चीज़ चमक रही थी। इवान याकव्लेविच ने उँगली से छूकर देखा: “ठोस है।” वह बुदबुदाया, “ये कौन-सी चीज़ हो सकती है ?”
उसने उँगलियों के चिमटे से उसे खींचकर बाहर निकाला- नाक !...इवान याकव्लेविच के हाथ ढीले पड़ गए, वह आँखें फाड़-फाड़कर टटोलता रहा: नाक, बिल्कुल नाक ! और तो और, जानी-पहचानी है. इवान याकव्लेविच के चेहरे पर भय की लहर दौड़ गई, मगर यह भय उस हिकारत के मुकाबले में कुछ भी नहीं था जिससे उसकी बीवी उसे देख रही थी।
“अरे जानवर ! किसकी नाक काट लाए ?” वह गुस्से से चीख़ी, “…गुण्डे ! शराबी ! मैं ख़ुद पुलिस में तुम्हारी रिपोर्ट करूँगी, डाकू कहीं के ! मैं तीन आदमियों से सुन चुकी हूँ कि तुम दाढ़ी बनाते समय इतनी लापरवाही से नाक के पास चाकू घुमाते हो कि उसे बचाना मुश्किल हो जाता है।”
मगर इवान याकव्लेविच तो जैसे पथरा गया था। वह समझ गया था कि यह नाक सुपरिंटेंडेंट कवाल्योव की है जिसकी वह हर बुधवार और इतवार को दाढ़ी बनाया करता था।
“रुको, प्रास्कोव्या ओसिपव्ना ! मैं इसे रुमाल में बाँधकर कोने में रख देता हूँ, थोड़ी देर बाद ले जाऊँगा।”
“मुझे कुछ नहीं सुनना है, क्या मैं कटी हुई नाक अपने कमरे में रहने दूँगी ?...जले हुए टोस्ट ! पुलिस को मैं क्या जवाब दूँगी ?...ओह, छिछोरे, बेवकूफ़ ठूँठ ! ले जाओ इसे ! फ़ौरन ! जहाँ जी चाहे ले जाओ। मुझे दुबारा नज़र न आए !”
इवान याकव्लेविच को काटो तो खून नहीं। वह सोचता रहा, सोचता रहा, समझ नहीं पाया कि क्या सोचे।
“शैतान जाने यह कैसे हो गया।” उसने आख़िरकार कान खुजाते हुए कहा, “क्या मुझे कल चढ़ गई थी या नहीं, कह नहीं सकता मगर यह बात है बड़ी अजीब, क्योंकि डबलरोटी भट्टी में पकने वाली चीज़ है, और नाक बिल्कुल नहीं। कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है....”
इवान याकव्लेविच चुप हो गया। इस ख़याल से कि पुलिस वाले उसके पास निकली नाक को ढूँढ़कर उस पर इलज़ाम लगाएँगे, वह पगला गया। उसके सामने चाँदी के तारों से जड़ी लाल कॉलर और तलवार घूम गई...और वह थर-थर काँपने लगा, आख़िरकार उसने अपनी बाहर जाने वाली पोषाक और जूते पहन लिए और प्रास्कोव्या ओसिपव्ना की गालियों के बीच नाक को एक गंदे कपड़े में लपेट लिया और बाहर निकल आया।
वह उसे कहीं घुसेड़ देना चाहता था: या तो पास ही पड़े कूड़ेदान में, या फिर अनजाने में रास्ते पर गिराकर गली में मुड़ जाना चाहता था मगर दुर्भाग्य से हर बार वह किसी परिचित से टकरा जाता, जो उससे पूछ बैठता: “कहाँ जा रहे हो ?” या “इतनी सुबह किसकी हजामत बना रहे हो ?” मतलब यह कि इवान याकव्लेविच को मौका ही नहीं मिला।
एक बार तो उसने उसे गिरा ही दिया, मगर दूर से चौकीदार छड़ी से इशारा करते हुए चिल्लाया “ उठाओ ! तुमने कुछ गिरा दिया है।” और इवान याकव्लेविच को नाक उठाकर जेब में छिपानी पड़ी। उसकी परेशानी इसलिए भी बढ़ती जा रही थी क्योंकि सड़क पर लोगों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही थी। दुकानें भी खुलने लगी थीं।
उसने इसाकियेव्स्की पुल पर जाकर नाक को नेवा नदी में फेंक देने की सोची...क्या ऐसा हो पाएगा ?...मगर माफ़ कीजिए, मैंने आपको इवान याकव्लेविच के बारे में कुछ भी नहीं बताया, जो एक सम्मानित नागरिक था।
इवान याकव्लेविच अन्य रूसी कारीगरों की ही भाँति पियक्कड़ था और हालाँकि वह रोज़ दूसरों की दाढ़ियाँ बनाया करता, उसकी अपनी दाढ़ी बढ़ी हुई ही थी। इवान याकव्लेविच का कोट चितकबरा था; मतलब वह काले रंग का था और उस पर कत्थई-पीले सेब बने हुए थे, कॉलर उधड़ गई थी, तीन बटनों के स्थान पर सिर्फ धागे लटक रहे थे। इवान याकव्लेविच बड़ा सनकी था, जब कभी सुपरिंटेंडेंट कवाल्योव दाढ़ी बनवाते समय उससे कहता: इवान याकव्लेविच, तुम्हारे हाथ हमेशा गंधाते रहते हैं,” तो इवान याकव्लेविच उल्टे पूछ बैठता: “गंधाने क्यों लगे ?” “मालूम नहीं, मगर गंधाते ज़रूर हैं।” सुपरिंटेंडेंट जवाब देता और इवान याकव्लेविच नसवार सूंघकर, इस अपमान के लिए उसके गाल तक, नाक के नीचे, कान के पीछे, दाढ़ी के नीचे यानी जहाँ जी चाहता, वहीं साबुन पोत देता।
तो यह सम्मानित नागरिक अब इसाकियेव्स्की पुल पर पहुँच गया था। पहले उसने चारों ओर नज़र दौड़ाई, फिर मुँडेर पर झुका, मानों पुल के नीचे देख रहा हो, मछलियाँ काफ़ी हैं या नहीं, और उसने चुपके से नाक वाला चीथड़ा नीचे छोड़ दिया। उसे लगा मानों उसके सिर से दस मन का बोझ उतर गया हो, इवान याकव्लेविच के मुख पर मुस्कुराहट भी तैर गई। वह क्लर्कों की हजामत बनाने के लिए जाने के बदले उस इमारत की ओर बढ़ गया, जिस पर लिखा था – “स्वल्पाहार और चाय”, जिससे वह बियर का एक गिलास पी सके, मगर तभी उसने पुल के दूसरे छोर पर खड़े एक सुदर्शन, चौड़े कल्लों वाले, तिकोनी टोपी पहने, तलवार टाँगे पुलिस अफ़सर को देखा। वह मानो जम गया, तब तक पुलिस वाला उसके पास पहुँच गया और उसके बदन में उँगली चुभोते हुए बोला: “यहाँ आओ, प्यारे !”
इवान याकव्लेविच उसके ओहदे को पहचानकर, दूर से ही टोपी उतार कर, निकट जाते हुए अदब से बोला:
“ख़ुदा आपको सलामत रखे !”
“नहीं, नहीं, भाई, मुझे नहीं, बोलो, तुम वहाँ क्या कर रहे थे, पुल पर खड़े-खड़े ?”
“ऐ ख़ुदा, मालिक, दाढ़ी बनाने जा रहा था, बस यह देखने के लिए रुक गया, कि मछलियाँ कितनी हैं।”
“झूठ, सफ़ेद झूठ! ऐसे नहीं चलेगा, सीधे-सीधे जवाब दो।”
“मैं आपकी हजामत हफ़्ते में दो बार, या तीन भी बार मुफ़्त में बना दूँगा..".इवान याकव्लेविच बोला.
“नहीं, प्यारे, यह बकवास है ! मेरी हजामत तीन-तीन नाई बनाते हैं, और इससे उन्हें बड़ा फ़ख्र होता हैतुम तो मुझे यह बताओ, कि तुम वहाँ क्या कर रहे थे ?”।
इवान याकव्लेविच का मुख पीला पड़ गया...मगर इसके बाद की घटना घने कोहरे में छिप गई थी और आगे क्या हुआ हमें बिल्कुल पता नहीं।