साथी हाथ बढ़ाना
साथी हाथ बढ़ाना
बात उन दिनों की है जब मैं आगरा में मेडिकल कॉलेज में पढ़ता था। हमारा सेकिण्ड प्रोफेशनल अभी शुरू हुआ था। असल में उन दिनों एम.बी.बी.एस में तीन प्रोफेशनल हुआ करते थे, हर एक डेढ़ साल का। पहले प्रोफेशनल में प्रोफेसर्स भी काफी सख्ती बरतते थे और बच्चों को खींच कर रखते थे। पढ़ाई भी बहुत करनी पड़ती थी पर पास होने के बाद दूजे प्रोफेशनल में आने पर सारी टेंशन से मुक्ति मिल जाती थी।
अगले ६ महीने, जिसको कि हम हनीमून सेमेस्टर कहते थे, उसमें बहुत मस्ती करते थे और गेम्स भी बहुत खेलते थे। हमारे सीनियर बॉयज हॉस्टल के बीचों-बीच एक बहुत बड़ा मैदान था जिसमें हम अक्सर क्रिकेट खेलते थे। एक दिन हमारे बैच और सीनियर बैच के कुछ लोग बैठ के गप्पें मार रहे थे कि एक सीनियर ने हमसे कहा कि यार तुम्हारा बैच पढ़ाई में तो अच्छा है पर मौज मस्ती और खेल कूद में थोड़ा फिसड्डी है। इससे हमारे बैच को भी थोड़ा ताव आ गया और हमने कहा बॉस (उस वक़्त हम सीनियर्स को बॉस कह कर ही बुलाते थे ), चलो एक क्रिकेट मैच हो जाये और जो भी जीतेगा वो बैच दूसरे बैच को पार्टी देगा।
बात पक्की हो गयी और दो दिन बाद मैच फिक्स हो गया। उसी दिन दोनों बैच के सबसे अच्छे खिलाड़ियों ने प्रैक्टिस भी शुरू कर दी। असल में अब ये मैच नाक का सवाल बन चुका था।
उस रात भारी बारिश हुई। असल में हॉस्टल का ग्राउंड बाकी जगह से थोड़ा निचले लेवल पे होने के कारण बरसात में उसमें काफी पानी भर गया। अक्सर इतना पानी भरने पर दो तीन दिन तो इसे सूखने में लग ही जाते थे।
सबके चेहरे लटके हुए थे। हमारे बैच में एक लड़का था अशोक। वो अक्सर कुछ उलटी सीढ़ी हरकतें करने के लिए मशहूर था। अशोक एक अच्छा क्रिकेट प्लेयर भी था और वो भी इस घटनाक्रम से काफी मायूस था। अचानक पता नहीं क्या हुआ वो एक दम उठ के अपने रूम में गया और वहाँ से एक बाल्टी उठा लाया और बाल्टी भर-भर के ग्राउंड से पानी निकालने लगा। अशोक मेरा अच्छा दोस्त था तो ये पता होते हुए भी कि इस से कुछ होने वाला नहीं है, मैं भी दोस्ती के नाते बाल्टी ले कर उस का साथ देने लगा। मिनटों में ही वहाँ १०० से ज्यादा लोग बाल्टी ले के खड़े थे। जूनियर बॉयज हॉस्टल के लोग भी हमारी मदद के लिए आ गए। इतने में हमने देखा कि गर्ल्स हॉस्टल की कुछ लड़कियाँ भी हमारी इस मुहिम में हाथ बँटाने आ गयीं। लड़कियों को देख कर तो लड़कों का जोश और बढ़ गया और वो और जोर शोर से काम करने लगे। जो लोग अभी तक बस मूक दर्शक बने हुए थे वो भी बाल्टी ले के पहुँच गए। इतने में हमारे बैच का एक लोकल लड़का घर से टुल्लू पंप ले आया और पानी और तेजी से बहार निकलने लगा। दोपहर होते-होते ग्राउंड का सारा पानी निकल गया। अब बस ग्राउंड थोड़ा गीला रह गया था। कहते हैं कि जब आप कोई अच्छा काम करते हैं तो भगवन भी आपकी मदद करता है। थोड़ी देर में तेज धूप खिल गयी और शाम तक ग्राउंड खेलने लायक हो गया।
अगले दिन बहुत शानदार मैच हुआ। हमारी टीम ने सीनियर बैच को कड़ी टक्कर दी पर मैच दो रन से हार गए। जब हमने पार्टी देने के लिए कहा तो सीनियर बैच ने कहा कि पार्टी तो वो देंगे। असल में उन दिनों ये रीति होती थी कि सीनियर जूनियर को पैसा नहीं देने देते थे।
अशोक मैच में कुछ ख़ास नहीं कर पाया था पर बाल्टी वाला इनिशिएटिव लेने के कारण उसे 'मैन ऑफ़ द मैच' अवार्ड दिया गया।
मुझे अब भी वो दिन याद आता है तो चेहरे पे मुस्कान आ जाती है। हम करीब १५०-२०० लड़के-लड़कियाँ बाल्टी से पानी भर-भर के ग्राउंड से निकाल रहे थे और दिलीप कुमार की नया दौर फिल्म का ये गाना गुनगुना रहे थे "साथी हाथ बढ़ाना, एक अकेला थक जायेगा मिलकर बोझ उठाना।''