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सासू जी मैंने आपकी कद्र ना जानी

सासू जी मैंने आपकी कद्र ना जानी

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जानकी जी के तीन बेटे थे। बड़े बेटे जगत की शादी हूई थी। जगत की एक पांच साल की बेटी थी। जगत की पत्नी सविता को एक साथ रहना पसंद नहीं आ रहा था। वह आये दिन अपने पति से झगड़ा करती, अलग होने के लिए। जानकी जी के और दो बेटे रमन और अमन पढाई कर रहे थे।

सविता को लगता था सास के साथ उसे ज्यादा काम करना पड़ता है जो कि जानकी पूरी मदद करती बहू की| सविता हमेशा कोई ना कोई बहाना बनाकर बिना काम समेटे अपने कमरे में चली जाती| जानकी जी जब देखती काम फैला तो खुद समेट देती और बाद में सविता आती देखती सब काम हुआ है तो अन्दर से बहुत खुश होती। पर ऊपर से दिखावा करती कि "माँ जी" आपने क्यों सारा काम कर दिया ? मैं आती तो अभी करती। मेरे सर मे दर्द था तो थोड़ा आराम करने लगी।

कोई बात नहीं, मैं खाली थी तो काम खत्म कर दिया। अब तुम्हारा सर दर्द कैसा है ?

अब ठीक है माँ जी। जानकी जी सविता के चाल को अच्छी तरह समझ रही थी। पर उनको लगता था कि वो अपने सहज व्यवहार से सविता का मन बदल जायेगा, पर ऐसा कुछ नहीं था। आये दिन पति, पत्नी मे अलग होने के लिए झगड़ा होता रहता।

एक दिन तो सविता ने हद कर दी, वह भूख हड़ताल कर ली कि जब तक आप अलग नहीं होगे मैं खाना नहीं खाउंगी।

जानकी जी के कानों में इस बात की भनक पड़ी तो उसने अपने बेटे जगत को बुलाया और कहा "देखो बेटा अगर सविता हमसे अलग रहकर खुश रहती है तो तू अलग हो जा।"

ये क्या कह रही हो माँ! मैं आपको और बाबू जी को छोड़कर कही नहीं जाने वाला, अगर सविता घर छोड़ कर जाना चाहती है तो जा सकती है।

देखो बेटा अब वह पत्नी है तुम्हारी, उसे खुश रखना अब तुम्हारी जिम्मेदारी है।

और मेरी खुशी का क्या माँ ? मै आप लोगो को छोड़कर नहीं जाना चाहता।

पर बेटा अब वही तुम्हारा परिवार है।

मैं आपके परिवार का हिस्सा हूँ, इस तरह से अलग मत करिये।

देखो बेटा, मुझे पता है हर दिन तुम लोगों में आये दिन इस बात पर झगड़ा होता है। तो घर में एक ही बात पर झगड़ा हो तो ये परिवार के लिए ठीक नहीं। घर मे शान्ति होना जरूरी है।

आखिर माँ की बातों के आगे जगत हार गया और कुछ ही दिनों में घर से कुछ ही दूरी पर किराये के मकान में शिफ्ट हो गये।

सविता का तो मन चाहा ख़्वाब पूरा हो गया, पर अब झाड़ू, पोछा, बर्तन, कपड़ा, खाना सब सविता को अकेले ही करना पड़ रहा था। वहां पर जानकी जी हाथ बटाती थी, तो कभी इतना काम करना नहीं पड़ता था। ऊपर से चुलबुली को स्कूल ले जाना ले आना सविता को करना पड़ रहा था, वहां पर थी तो उसके देवर ही अपने साथ चुलबली को लाते थे। यहाँ पर सांस लेने भर की फुर्सत नहीं मिल रही थी।

"महीने का खर्च भी वहां पर बाबू जी ही उठाते थे। थोड़ा बहुत जगत मदद कर देता था और यहाँ पर सारी तनख्वाह घर के ही खर्च में निकल गई।"

एक दिन सविता बीमार हो जाती है और सारा काम कर रही थी। उसे याद आया कि मेरे सर में दर्द भी होता था, माँ जी एक काम नहीं करने देती थी और यहाँ पर तो कोई पूछने वाला ही नहीं दिन भर। धीरे धीरे सविता का हृदय परिवर्तन होने लगता है। अब यहाँ अकेले रहकर "परिवार महत्व" समझ में आने लगा था।

एक दिन वह अपने ससुराल जाती है। "माँ जी मुझे माफ कर दीजिए, आजतक मैंने आपके साथ बुरा व्यवहार किया। मैंने आपकी कद्र ही नहीं जानी| जब मैं आप लोगों से दूर गई तब मुझे समझ आया कि मैंने क्या खो दिया।" कहते कहते सविता रोने लगी।

"उठो बहू, तुम्हें अपनी गलती का एहसास है, यही सबसे बड़ी बात है। "सुबह का भूला शाम को घर आये तो उसे भूला नहीं कहते।" जानकी जी ने बहू के आंसू पोछते हुए कहा और गले लगा लिया। उस दिन के बाद सब लोग आपस में मिलकर रहने लगे।


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