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पीढ़ियां

पीढ़ियां

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पिताजी चिट्ठियों में बराबर लिखा करते थे कि अब तुम्हारी मां की आंखें जवाब दे रही हैं, आंखों में मोतियाबिंद उतर रहा है, सत्तर के पार जा रही है, अब हाथ-पांव में जान कहां रही है, किसी तरह बेचारी दो टैम की रोटी बना देती है। फिर मेरा भी शरीर अब जवाब देता जा रहा है, कभी दमा जोर मारता है तो कभी बादी। जब मैं लिखता कि यहीं मेरे पास आकर रहो, यहां इलाज भी अच्छा हो जायेगा तो कहते, अभी तो आने का विचार नहीं है, पीछे मकान वगैरह कौन देखेगा, वैसे ही आजकल चोरियां बहुत ज्यादा होने लगी हैं। अकाल ऐसा पड़ा कि लोग तो मवेशी लेकर मालवा कि ओर निकल चुके हैं और जो बच गये हैं वे चोरियां करके पेट पाल रहे हैं। गर्मियों में वारदातें भी बढ़ जाती हैं।

बारिश के दिनों में आऊंगा, उस वक्त मेरे घुटने और जोड़ कुछ ज्यादा ही दुखने लगते है, बादल घुमड़ते हैं तो जोड़ों में जोरों का दर्द उठता है। उस वक्त कोई तो पास होना चाहिए फिर यहां अस्पताल की अच्छी सुविधा है।

वे कई दफा यहां आए। एक-दो महीने में ही उनका जी उचटने लगता था दिन भर करे क्या! कहां जाएं? हां, कालोनी में दो चार बूढ़े कभी-कभार बैठ जाते ओर किसी तरह वक्त जाया करते। मां जरूर घर के काम में लगी रहती या बालकनी में बैठकर आकाश ताकती रहती।

घर में जब कभी कोई आता, बातचीत होती तो पिताजी पहला सवाल पूछते -किस जाति के हो। मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की कि ऐसे सवाल यहां गैर जरूरी है। हो सकता है, गांव में  यह सबसे महत्वपूर्ण सवाल हो। यहां ये सब पूछना अच्छा नहीं लगता, हमें कौन सा किसी के यहां शादी -संबंध करना है जो हम तहकीकात करें। वे मान तो गये लेकिन जाति के बारे में उनकी जिज्ञासा बराबर बनी रहती, उनके जाने के बाद ही सही, पर वे मुझसे पूछते जरूर कि ये कौन जाति के हैं। मैं क्या उत्तर देता! तब वे बड़बड़ाते- पता नहीं कौन से लोगों के साथ खाता-पीता, उठता-बैठता है, उनके लिए इसाई, मुसलमान, हरिजन ..... जैसे कुछ नहीं।

क्वाटर भी तो क्या था एक बंद कमरा। गांव के मकान का वह बड़ा चौक, दालान और पौल कहां! वे यहां बराबर घुटन महसूस कर रहे थे। फिर कोई काम भी तो नहीं था। उनकी राय का यहां कोई महत्व नहीं था, बातचीत के वे मुद्दे भी यहां खो गये थे, जो उनमें उत्साह भरते। खाओ और सोओ बस। गांव में तो निरे काम निकल आते हैं, खेत पर एक चक्कर काट लो, कुएं पर जाकर नहा लो, खेतलाजी के थान पर बैठकर, गांव भर की चर्चा कर लो। गांव में कोई न कोई त्यौहार बना ही रहता, भादवी माता मेला है चौथ का, तो पूनम को काटेश्वर महोदव का, आज एकादशी है तो कल कहीं भजन कीर्तन, कुछ नहीं तो जाति के न्यौते हैं। मेहमानों का भी आना -जाना रहता है। सगाई-सकपण की लम्बी–चौड़ी बाते हैं। एक-एक खानदान का इतिहास खोजा जाता। बड़े भाई के लड़कों के संबंध के लिए भी लोग आते लेकिन न वे हां कर पाते न ना। भई जिसका लड़का है उससे पूछो। यह वाक्य उनके दिल में दर्द की तरह उठता, कोई जमाना था जब दादा के निर्णयों को चुनौती देना असम्भव था। आज तो लड़कों से पूछना पड़ता है कि यह छोरी उसे पसंद है या नहीं।

कई बार वे झल्लाते भी थे इतना बड़ा लड़का बम्बई में रहता है। अगर वक्त पर शादी नहीं की तो सारी मर्यादा, परिवार की पूरी प्रतिष्ठा धूल में मिल जायेगी। मैं समझाने के अन्दाज में कहता अभी तो बीस का ही हुआ है दो चार वर्ष बाद सगाई करनी ही है। उनका प्रति उत्तर होता- अभी तो लोग चक्कर काट रहे हैं, फिर कोई पूछेगा ही नहीं, कौन अपनी लड़कियों को तब तक रोके रहता है, सुन उसकी समझ में तो आयेगा नहीं तू ही लिख दे। फिर दुनिया है कई तरह की बातें करती है? पढ़ लिख क्या गये घमण्ड हो गया है, दो पैसे क्या कमाए, समाज की मर्यादा ही भूल गये। मैं तसल्ली देने के अन्दाज में कहता कि बड़े भाई को इस संबंध में लिख दूंगा लेकिन आप क्यों चिंता करते हैं आपने तो अपनी जिम्मेदारी कर ली, आप तो अब परलोक की चिंता करो, मन को भगवद् भजन में लगाओ, दुनिया के काम कहीं रुकते हैं। वे जवाब तो कुछ नहीं देते लेकिन गुस्से में बड़बड़ाते, बीड़ी सुलगाने लग जाते।

मां की पोशाक भी ठेठ राजस्थानी थी, चटकीले रंग का घाघरा कांचली और ओरणा। हाथ में नकली हाथी दांत के चूड़े, पांव में मोटे-मोटे चांदी के कड़े गले में सोने की कंठी या तेरिया, तथा बालों में सोने का बोर बालों के साथ ही गूँथ  दिया जाता। कालोनी के लोग इस सारी वेश भूषा को बड़ी दिलचस्पी से देखते। और आपस में हॅंसी-मजाक करते। पत्नी ने मां को समझाया होगा, कुछ धीरे-धीरे उसे भी महसूस होने लगा कि यहां ये सब पहनना बड़प्पन नहीं  है। फिर एक बार चूड़ा उतारा तो उसे इतनी राहत महसूस हुई कि उसने गांव में जाकर भी दुबारा उसे नहीं पहना। कांचली की जगह अब ब्लाउज ने ले ली। चटकीले रंग की जगह हल्के रंग के कपड़ों ने ले ली। फिर भी चांदी के मोटे कड़े बने रहे पाँवों में लेकिन मैने लक्षित किया कि दो एक साल के अन्तराल में वे भी गायब हो गये और उसकी जगह हल्के कड़ों ने ले ली।

मां को लगता कि यहां औरतों को काम ही क्या है! दिन भर निठल्ली बैठी रहती हैं और गपशप करती रहती हैं। रसोई, चौका बरतन के अलावा काम ही क्या है! लेकिन उनकी बहू दिन भर लगी ही रहती। पता नहीं क्या करती रहती है। मां झाड़ू लगाती तो वह पौंछा मारने लगती। मां कहती ‘अरे अभी झाड़ू लगाया हे, ये कौन राजाओं का महल है जो चमकाना है। मां देखती थी रोज ढेर सारे कपड़े धुलते है।’ उसे अचम्भा होता कि चार जनों में इतने कपड़े रोज कहां से गंदे हो जाते हैं। कभी परदे धुल रहे हैं तो कभी चद्दरें। बच्चों को दिन में तीन-तीन ड्रेस पहनाने की क्या जरूरत है? और कौन बड़ों के कपड़े रोज-रोज गंदे हो जाते हैं जो उन्हें धोना पड़ता है। फालतू साबुन का खर्चा। पनघट से पानी लाते तो मालूम होता कि कपड़े कैसे धुलते हैं!

पत्नी रोज ही नहाते वक्त बाल धो लेती थी यह देखकर मां बोले बिना नहीं रह पाती- ये रोज-रोज क्या लगा रखा है, बाल गूँथ कर रखा करो तो महीने भर खुलने के नहीं। पत्नी कह ही देती कि मां जी फिर जुएं  कौन निकालने बैठेगा, दिन फिर  भर सिर खुजाते रहो। नहीं सही ठुकरानी मगर ढंग से साफ सफाई से रहने में क्या बुराई है। बाद में मैने लक्ष्य किया कि मां भी उस ठर्रे पर आ गई थी।

जिन औरतों के बीच पत्नी उठती बैठती थी उनके ऊपर मां की कड़ी नजर रहती। औरतें खुले सिर घूमती रहती थी यह देखकर मां व्यंग्य से कहती -ये लटें बिखेरे घूमती रहती है, बड़े–बूढ़ों  का कोई खयाल ही नहीं जरा भी लाज शरम नहीं। आदमियों से ऐसे बतियाती रहती है जैसे शरम तो बेच ही खाई है। ये सब दृश्य मां के लिए अनहोने थे अतः उन पर प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी।

कपड़ों लत्तों पर, साबुन, तेल पाउडर पर फर्नीचर पर तथा खाने-पीने पर खर्च देखकर मां व पिता दोनों की प्रतिक्रिया समान थी, उनका कहना था कि इस तरह तो घर का दिवाला निकल जायेगा माना कि पैसे कुछ ज्यादा मिलते है। मगर अभी तो मकान बनवाया है, सोना गढ़वाना है - बच्चे बड़े होंगे कि नहीं, उनका शादी ब्याह होगा कि नहीं, फिर भगवान दे रहा है तो भगवान की बोलमा कर कुटुम्ब को, जाति समाज को न्यौत दो इससे खानदान की प्रतिष्ठा ही बढ़ेगी लेकिन तुम्हें खानदान की क्यों चिंता होने लगी?

मां के लिए तो यह दूसरी दुनिया ही थी। उसे अपना बचपन व जवानी याद आती है। पहला कूकड़ा बोलते ही बिस्तर छोड़, औरतें गेहूं, जौ, मक्का बाजरा जो भी घर में होता, हाथ की चक्की पीसती रहती और गीत गाती रहती। गीत गाते-गाते कब सुबह हो जाती उन्हें पता ही नहीं लगता। फिर गाय भैंस को दूहना दही बिलौना, गाय-भैंस के लिए बाटा रांधना चूल्हा जो सुबह जलता तो दोपहर तक उस पर आदमी-जानवरों के लिए कुछ न कुछ बनता रहता दोपहर जब सब काम निपट जाते तब कहीं दिशा-मैदान की सोचना यह थी जिंदगी। मेहनत, धुआं, अंधेरा और घुटन। अब तो घर में बिजली के लट्टू हैं, ढिबरी में आंखें नहीं फोड़नी पड़ती। पंखा लगा है, महारानियां दिन भर पंखे में पड़ी अलसाती रहती हैं। न अनाज पीसना, न गाय दुहना, न गोबर पाथना, न पनघट से पानी भर कर लाना, न खेत में निराई-गुड़ाई करना और न जंगल से छाणे और जलाऊ लकड़ी लाना।  अब यहां क्या है! सुगंधित साबुन से नहाओ, रोज बाल धोओ, धुले कपड़े पहनो, पाउडर लगाओ और कुर्सियाँ लेकर गपशप करने बैठ जाओ, नहीं तो टी.वी. देखते रहो!

पिताजी दीवान पर बैठे थे और मां फर्श पर, क्योंकि मर्यादा का सवाल था, पति के बराबर बैठने का विचार ही मन में एक पाप का भाव छोड़ जाता है। मैं कुर्सी पर बैठा था, पत्नी चाय बना कर लाई, वैसे इस तरह औरतें मरदों के समक्ष नहीं आती थी, मगर उन्होंने यह स्वीकार कर लिया था कि और आएगा कौन! हम सब चाय पीने लगे। पत्नी को संबोधित कर मैंने कहा- आज गैस सिलेंडर  वाला आएगा, उसे रसोई में लगवा देना, स्टोव से पीछा छूटेगा। अब चुटकियों  में खाना बनेगा, चाय बनाने के लिए स्टोव से लड़ना नहीं पड़ेगा, खटाक से पाँच मिनट में चाय तैयार। हाथ काले नहीं  होंगे। बर्तन घिसकर हाथों का क्या हाल हो गया है, वह अपने हाथों की ओर देखती हुई रसोई घर में चली गई।

मां चाय सुड़कते बोली- देखा! आजकल के छोरे अपनी औरतों की सुख- सुविधा का कितना खयाल रखते हैं। अब देखो शाम होते ही, बन-ठन कर अपने-अपने आदमियों के साथ बाग की सैर को निकल जाएंगी। व्यंग्य को मैं लक्षित कर रहा था, कुछ बोलना उचित था ही नहीं। दूसरे ही पल उसमें दूसरी धारा बहने लगी। करम फूटी तो मैं थी कि तुम्हारे पल्ले पड़ी ताजिंदगी गोबर पाथा, पानी भरा, चूल्हे में जवानी झोंकी, किसी पल आराम नहीं किया मां रुआंसी होकर आंखें पोंछने लगी। नारी के अंतर्मन की व्यथा बहने लगी। अब उसे रसोई के आधुनिक बर्तन, कुकर, मिक्सी, गैस स्टोव वगैरह नारी की मुक्ति का सामान नजर आने लगे न कि व्यंग्य बाण छोड़ने का सामान। चूंकि उसे अपनी जिंदगी में यह हासिल नहीं हुआ था इसलिए उस पर पछतावा है और जिसे मिला है उनसे ईर्ष्या भी है।

पिताजी बोले- भाई जमाना बदल रहा है, अब तो अंग्रेजों और जमींदार का राज नहीं रहा स्वराज आ गया है जगह-जगह बांध, और बिजली के कारखाने लगे है, गाँव-गाँव में अस्पताल और स्कूल खुल रहे हैं, ये सब तो ठीक है पर मान-मर्यादा भी बदलने लगी।

पिताजी की बहुत बड़ी इच्छा थी कि उनके लड़के पढ़े, बड़े आदमी बने। हालांकि बड़े आदमी जैसी चीज तो नहीं बन पाए, मगर गांव वालों की नजर में हम बड़े ही थे। मैंने मैट्रिक करने के बाद डिप्लोमा किया तथा फैक्टरी में सुपरवाइजर की नौकरी मिल गई। गांव वाले कहते हमारे लड़के को भी नौकरी पर लगवा दो, आपकी तो बड़े-बड़े अफसरों से जान-पहचान है। एक दो बार ऐसा जरूर हुआ कि गांव के चार छः लड़कों को नौकरी मिल गई, अब वे अच्छे वेल्डर और फिटर हो गए है तब से तो गांव वालों की नजर में मैं बड़ा इंजीनियर हो गया हूँ।

गांव में जाता तो दो चार लोग हाथ बांधे ही खड़े होते। कोई दो सौ मांगता तो कोई चार सौ। कई बार मैं बिना सूद का कर्जा दे चुका हूँ इसलिए लोग आ जाते हैं लेकिन मैं कुछ बोलता उसके पहले पिताजी बोल उठते भाई इनके पास कहां पैसा है सारा पैसा तो कपड़े-जूते, तेल-साबुन-पाउडर में चला जाता है जब ठाट-बाट से रहेंगे तो भाई पैसे बचेंगे कैसे? मैंने तो सोचा था कि लड़के आगे बढ़ेंगे तो एक मंजिल और खड़ी कर देंगे, जो खेत हाथ से निकल गया है उसे वापस खरीद लेंगे, कुछ सोना-चांदी बनवा लेंगे मगर इन्हें आराम की जिंदगी चाहिए, टेप, टीवी कूलर, पलंग और सोफे चाहिए। भैया ये समझो की बटन दबाने भर का काम है, जहां ऐसी मौज मस्ती हो वहां पैसा बचेगा? बोलो तुम्ही बताओ। पैसा तो दांत से पकड़ना पड़ता है।

पता नहीं वे व्यंग्य कर रहे थे या मेरा बखान। मैं हॅंस कर बोला- काका पिताजी ठीक कह रहे हैं। भगवान ने अच्छा खाने पीने, पहनने का मौका दिया है तो क्यों हाय-हाय कर जिंदगी बिताई जाये।

ऐसा नहीं है कि पिताजी हमारे अच्छे जीवन स्तर से ईर्ष्या रखते हैं। दूसरों के समक्ष अपने लड़कों की पढ़ाई और नौकरियों पर गर्व करते हैं। जब उनके तंदुरुस्त, अच्छे कपड़ों में सजे-धजे पोते-पोतियों को देखते हैं तो उनका सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है। बस वे इतना और चाहते हैं गांव में दो चार मकान, एक बड़ा खेत और हो जाये तथा जाति समाज को न्यौत दें तो उनकी प्रतिष्ठा बढ़ जायेगी, इस खानदान की प्रतिष्ठा को चार चांद लग जायेंगे क्योंकि उनकी दुनिया उनका गांव तथा जाति समाज के लोग थे।

अन्तिम बार जब वे यहां आये तो कहने लगे अब मैं बूढ़ा हो गया हूँ, कहीं ऐसा न हो कि मेरी इहलीला यहीं समाप्त हो जाये। फिर स्वतः ही बुदबुदाने लगे कहां पैदा हुए, कहां रॉड फेंकेंगे। यहां पता नहीं अपनी मिट्टी का क्या होगा। फिर पूछा- यहां लोग मरते हैं। तो कहां जलाते हैं, मैंने नदी का किनारा बता दिया। फिर पूछने लगे- मरघट में लोग शामिल तो हो जाते हैं। लाश जलाने के लिए लकड़ियों का बन्दोबस्त हो जाता है? एक बार उन्हें मौका मिल ही गया मेरे ही दोस्त के पिताजी का देहान्त हो गया था। फैक्टरी से ट्रक का प्रबन्ध कर, लाश को अस्पताल से सीधे श्मशान ले गये, सौ एक आदमी मौत पर थे। पिताजी भी चले गये थे, ट्रक से ही लकड़ी का इन्तजाम कर दिया था।

वे गमगीन हो गये थे। अन्तिम समय में अपनों का कंधा भी नहीं मिला बेचारे को, अस्पताल से ही श्मशान ले गये, घर तक नहीं लाए, जैसे घर से उसका कोई नाता भी न हो, हालांकि इस बात का उन्हें संतोष भी था कि अगर यहां मर भी गए तो मिट्टी खराब तो नहीं होगी। कोई खास कर्मकांड नहीं, कोई रोना-धोना नहीं ऐसे ही जैसे साँप जला दिया जाता है। जिनके बीच बड़े हुए, जिनके साथ खेले कूदे, जिनसे संबंध बने उन्हें तो केवल पोस्टकार्ड मिलेगा। बस से तीसरे ही दिन ही गांव की ओर रवाना हो गये। बस मुझे जाने दो। तुम लोग कैसे भी रहो, हमें हमारी गति मरने दो। मैंने उन्हें बहुत आश्वस्त किया कि कौन सा आपका अन्तिम समय आ गया है जो ऐसी बात कर रहे हैं। यहीं रहो, सुख पूर्वक रहोगे, वहां आपकी देखभाल को कौन है। फिर कुछ अनहोना हो ही गया तो जैसा आप बता के जायेंगे वैसा ही होगा लेकिन वे नहीं माने, वे गांव चले ही गए।

 

 


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