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Twinckle Adwani

Inspirational Tragedy

1.0  

Twinckle Adwani

Inspirational Tragedy

फिर भी मै जिंदा हूँ

फिर भी मै जिंदा हूँ

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आज मौसम बहुत सुहाना है, वैसे हमारे घर से बाहर की दुनिया ज्यादा खूबसूरत नजर आती है। आज ऋतु के लिए लड़का देखने गए हैं और अभी दीदी ने बताया लड़का अच्छा है, पार्टी अच्छी है, बस जल्दी घर में बैंड बजेगा, बहुत दिनों से कोई शादी नहीं हुई। किसी अपने की मगर अगले ही दिन ऋतु के चिल्लाने की आवाज आ रही थी। वह अपने मम्मी पापा से और भाई से बहस कर रही थी। ऋतु गुस्से में कह रही थी- मैं नहीं करूँगी ऐसे घर में शादी जहाँ आज भी घूंघट प्रथा है, पैसा है तो क्या हुआ, वहाँ की महिलाओं को गाड़ी तक चलाने नहीं देते हैं य़अपनी मर्जी से कुछ करने देते हैं ?मुझे जॉब छोड़ने कह रहे है ! दीदी बार-बार कह रही थी सब अच्छा है क्या करोगी जॉब करके.....

जॉब मतलब पैसा नहीं मम्मी मेरी आजादी है, मैं कैद नहीं होना चाहती सोने के पिंजरे में। उसकी बातें सुनकर मुझे उस पर गर्व हो रहा था। आज कि लड़कियाँ कितनी आजाद ख्यालों की है। अपनी पसंद ना पसंद बता तो पाती है। अपनी पसंद अपने सपनों के लिए जीती तो है मगर मैं, मैं कितनी कमजोर हूँ, विरोध ही नहीं कर पाई।

लिहाज ओर अदब मे ,मेरी जिंदगी गुजर गई। मैं खूबसूरत थी इसलिए बहुत संपन्न परिवार में मेरी शादी हो गई। मायके की स्थिति सामान्य थी। एक उम्र के बाद माँ बाप को भी सहारे की जरूरत होती है और सहारे के नाम पर भाई थे, जो कभी-कभी बेसहारा होने का एहसास दिलाते थे तो फिर मैं क्या उम्मीद करती ?

पुरुष, महिलाओं के सहारे ही जीते हैं फिर उन्हें बेसाहारा होने का अहसास कराते हैं।

कुछ ऐसा ही मेरे साथ हुआ। मुझे पढ़ने का बहुत शौक था और मैं ससुराल में सुविधा है तो समय निकल जाता था। अपने सपनों को पूरा करने पढ़ना शुरू किया, कहने को तो संयुक्त परिवार था, मगर साथ किसी का नहीं था। पति को हद से ज्यादा प्रोटेक्शन चाहिए था। पहले लगता था किस्मत अच्छी है, कोई इतना प्यार करता है मगर मैं गलत थी।

उतनी जितनी हम सोचते हैं कि दूर से आसमान आखरी छोर है जो मेरे करीब है। मेरे सपनों को तोड़ने के लिए मेरी किताबों को ही जला दिया जाता था। किताबें जल गई मगर मैं मन से मर गई सोच कर कि क्या यही साथ होता है ? परिवार का ? पति का ? बच्चे का ? ... हर औरत परिवार की खुशी के लिए पूरा जीवन न्योछावर कर देती है मगर उनकी खुशी किस में है इस बात का कोई महत्व नहीं। इस बात को क्यों कोई अहमियत नहीं दी जाती। न जाने कितनी अनबन हुई, कितना तमाशा हुआ, तो झुकना मुझे ही पड़ा परिवार की खातिर, मेरे शौक अधूरे रह गए, मन को मार कर जीने लगी।

हमेशा पति की पसंद के कपड़े पहनने पड़ते यहाँ, तक की कलर भी। मुझे लाइट कलर पसंद है मगर सालों से नहीं पहना, पति को डार्क ब्राइड चमकदार चीजें पसंद है।

मुझे घूमने का बहुत शौक है प्रकृति के करीब रहूँ, पानी, ठंडी हवाएँ, सुकून, शांति हो मगर हमेशा मुझे नाइट पार्टी में जाना पड़ता है जो मुझे पसंद नहीं। अब खाने पीने पर भी कुछ खुद की पसंद भूल ही गई हूँ। आजकल बेटा कहता है शेम्पियन पीयो सबके सामने बार-बार मना करने पर भी, वही कहता है नहीं समझता तो मुझे भी बेमन से पीना पड़ता है। मेरी पसंद को ना पसंद में ही बदलना चाहते हैं। मैंने हमेशा मन को ही समझाया लेकिन सच्चा साथ ईश्वर का ही होता है। कई बड़ी मुश्किल घड़ियाँ आई जीवन में मगर मन से मैं नहीं टूटी मन को मार कर जिंदा हूँ और औरों को भी हौसला मजबूती महसूस कराती हूँ।

कहने को तो सब है मगर मन ही नहीं, फिर भी मैं जिंदा हूँ। अब आज भी एक सुकून व प्यार की कमी है हालांकि जब से ज्ञान के पथ पर हूँ, बहुत खुशी है, फिर भी मन में कई ख्वाब देखे हैं, इन ख्वाबों के साथ मरना तो नहीं चाहती, मगर कुछ दिन जीना चाहती हूँ। अकेली दूर और शांति से, इस सोने के पिंजरे से दूर, पक्षी की तरह उड़ना चाहती हूँ। मेरी आजादी की कीमत, ये हीरे मोती महल कभी नहीं, आजादी तो आजादी है। आजादी निर्णय की हो, अपने मन से कहीं आने-जाने की हो, आजादी बस इतनी ही तो चाहती हूँ।

दीदी आप उसे सोने के पिंजरे में कोई खुशी नहीं दे सकती और अगर आप सोचती हैं कि सोने के पिंजरे में खुशियाँ मिलती है तो सिर्फ कुछ समय की होंगी।

ऋतु का विश्वास मुझ में भी विश्वास जगा रहा था। आप क्यों उसे रोक रहे हैं।

आप तो खुद एक औरत हो कि उसे उसे पैसों के लिए ही उस घर में डालना चाहती हो संस्कार कहते हैं वहाँ तो सारा दिन पीने खाने वाले लोग हैं जिन्हें अपने शरीर का अच्छा बुरा नहीं पता वह बाकी के अच्छे बुरे के बारे में क्या सोचेंगे चाहती हो इन हीरे मोतियों के बदले लेकिन आजकल पैसों के बिना भी खुशी नहीं

पैसा ही खुशी नहीं आज उसे अपनी जिंदगी जीने दो।

जो गलती या दुख मेरे मन में दब गया है। दबा दिया गया है अब उसे क्यों दोहराना चाहती है।

तुम्हारी और ऋतु की बातें मुझे समझ में नहीं आती।

तुम्हारे भैया बाहर गए हैं, कुछ दिन बाद आकर ही जवाब देना है, कुछ दिनों बाद बात करेंगे।

इस विषय में, कहने को तो मैं पड़ोसी हूँ मगर परिवार से भी ज्यादा मुझे अहमियत दी जाती है इसलिए हम फैसलों में मैं अपनी राय उन्हें देने लगी हूँ।

दीदी टीवी देख रही है और मैं वहाँ से निकल गई। एक समाचार आता है, 55 वर्षीय महिला ने खुदकुशी की, कारण कभी अपनी मर्जी से कुछ नहीं कर पाई और काम पति व सास के अनुसार ही करती, बच्चों का दबाव. बाहर चले गए सास नहीं रही मगर हिटलर पति की सेवा करके खुद मन से बहुत टूट चुकी थी। जीवन में कोई खुशी व मकसद नहीं था। मान-सम्मान नहीं केवल अपमान और डाँट बच्चों को भी फोन लगाओ तो वे इतने बिजी हैं कि ज्यादा देर बात ही नहीं करते ना ही कोई उम्मीद तो क्या करती। कहीं आती जाती नहीं और ना ही पति बीमारी के चलते मुझे कहीं जाने देते हैं। उनकी सेवा में ही पूरा दिन निकल जाता है। अब तो मुझे भी किसी के साथ की जरूरत महसूस होती थी।

ऐसा भी होता है ?

रात भर बेचैनी के कारण दीदी सो नहीं पाई और अगले दिन ही मुझे सुबह बुलाया मैंने दीदी को यही समझाया कि हर महिला को केवल मान-सम्मान प्यार आजादी चाहिए विचारों की, जीने की।

मैं ऋतु की माँ हूँ, मैं गलत नहीं करूँगी जैसा भी तू कहेगी वैसा ही होगा।

तुम सही कह रही हो।

दीदी, बात से तसल्ली हो गई एक जान तो बच गई। मर मर के जीने से अच्छा है जी के मरे।

अगले दिन ऋतु मेरे घर आती है- अरे ऋतु तुम, आओ आओ।

इस बड़ी खिड़की से बाहर की दुनिया कितनी सुंदर लग रही है, हाँ यहाँ से घर से सुंदरता ज्यादा अच्छी लगती है।

ऋतु- मम्मी ने क्या कहा।

वह अभी भी सोच रही हैं। सब का दबाव है कि सब अच्छा फिर नखरे क्यों ? हम सब भी तो इतने साल ऐसे ही जीते आए हैं।

तुम डॉक्टर हो अपने सपनों को छोड़कर एक घरेलू औरत नहीं बन सकती। हर इंसान की अपनी भी तो एक पहचान होनी चाहिए वजूद होना चाहिए।

आप सही कह रही हो आंटी।

अगले दिन ऋतु मिलने आती है, कुछ बातों के बाद मुझे अपने निर्णय बताती है और मैं उससे पूछती हूँ-

तो तुम तो डॉक्टरों की दुनिया में क्या चल रहा है, बताओ।

चल तो सब रहा है बेमन से, सच में आंटी आप बहुत अच्छे हो, आप हमारे पड़ोसी हो, मगर सगे से ज्यादा हो। अपनी मम्मी को बहुत अच्छे से मेरी बात समझाई। आपको पता है आजकल कम उम्र में ही मानसिक रोगियों की संख्या बढ़ती जा रही है। जिसका कारण सोने का पिंजरा लगता है। वह दिखावा लगता है।

अब समझ गई ना मैं क्या कह रही हूँ।

मैं तो समझ गई बेटा मगर गई पुरुषवादी समाज नहीं समझ पाया।


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