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Savita Singh

Children Stories Drama

4.7  

Savita Singh

Children Stories Drama

कुछ यादें मेरे बचपन की

कुछ यादें मेरे बचपन की

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मेरे बचपन के इस गर्मियों की छुट्टी का पाँचवाँ और आखिरी सँस्मरण ..........

छुट्टियों के एक हफ़्ते बचे होते आज गॉंव से छावनी और विक्रमजोत जहाँ की मेरे बड़े बाबा यानि अपने बाबा और बड़े चाचा चाची रहते थे वहाँ की तैयारी हो जाती ! उस समय बसें बहुत कम चलतीं, गाँव से हर्रैया आने के लिए फिर वहाँ से विक्रमजोत के लिए बस के इंतज़ार में घण्टों लग जाते इसलिए हमसब तांगे मँगवा कर रास्ते के लिए पूरियां सब्जी इत्यादि रख लेते, क्योंकि तांगे से सुबह निकलो तो शाम होने लग जाती ! वैसे भी हम रास्ते में बाग़ बगीचे पर उतर कर मस्ती मारने लगते, रास्ते में ही एक बहुत अच्छा सा पक्का ट्यूब वेल पड़ता। हम कपड़ों समेत घुस लेते और खेलते गीले कपड़ो में ही, फिर चल देते गर्मियों में कपड़े सूखने में कितना समय लगता !

 वैसे तो छावनी पर मुझे ज्यादा अच्छा नहीं लगता था क्योंकि मेरे बड़े बाबा सख़्त थे और बड़े चाचा चाची भी बड़े नियम कानून वाले और डाँटने वाले, बस मेरे बड़े भैया और दीदी को कोई कुछ नहीं कहता था, मुझे बहुत डर लगता था, घर के पीछे भी बड़ा सा बगीचा था। वहीं कूद फांद कर काम चलाया जाता और बगल में ही बड़ा सा गड्ढ़ा था उसमें मछलियाँ भी होती थीं, लेकिन गड्ढ़ा विशेष रूप से सन या कुछ लोग पटुआ बोलते हैं, उसी को खेतों से लाकर भिगोया जाता था। उसके बाद उसकी छाल उतार कर रस्सी बटी जाती थी, जिससे चारपाई वगैरह बुना जाता था ! छावनी पर दो काम विशेष रूप से होता था, एक रस्सियों का, दूसरा लाइसेंस मिला हुआ था, पोस्ता यानि की जिसके फल से अफीम निकलती है और पोस्ते का दाना या खस खस कहिये मसालों में काम आती है। अफीम तो सरकार खरीदती, दवाओं वगैरह के लिए पोस्ता यों ही बिक जाता !

बड़े बाबा बड़े शौक़ीन थे शाम को तो शाकाहारी खाना। उन्हें कोई खिला नहीं सकता था। एक बहेलिया रखा था उन्होंने, वो दिन में शाम तक चिड़िया फंसाता और बनाता, मटन के लिए तो साप्ताहिक बाजार ही होता था !

मेरे बाबा सख़्त थे लेकिन उनकी एक बड़ी कमजोरी थी, और चाचा के बेटे विनोद भैया उसका खूब फायदा उठाते, बस ताश की गड्डी बाबा को दिखा देते और बाबा पीछे पीछे उनके हो जाते। बिनोदवा आव खेला जाय अपने बड़की अम्मा और अम्मा के बोलाय लाव कुछ देर भैया उनको परेशान करते, फिर ड्योढ़ी में बैठ कर बाबा बहुओं और पोतों के साथ ताश खेलते उस खेल का नाम 'गन ' है उसे छः लोग खेल सकते थे ! आम घर पर ही आ जाते बागों से, वो देसी बीजू आम ,छोटी छोटी बाल्टियाँ थीं उसमें पानी में रखकर सब बैठ कर चूस कर खाते ! हमारे दिन ऐसे ही बीतते हँसते खेलते शरारतें करते, एक घटना हम सभी अभी भी याद करके ख़ूब हँसते हैं सबसे अच्छा लगता जब भैया बताते थे हमारे दुर्भाग्य की उजड़ गया परिवार ! ख़ैर मैं दुखों की बात नहीं करना चाहती इसमें !

मेरे बड़े भैया बहुत शरारती थे वो खुद तो शॉट पट, डिस्कस थ्रो और टैग ऑफ वार के गोरखपुर में डिस्टिक चैम्पियन थे, लोहे वाला गोला अपना लेकर गड्ढे के पास खड़े हुए और विनोद भैया से बोले चल देखल जाय के दूरे फेंकेला उन्होंने कहा पहिले आप फेंके भैया ने तो फेंक दिया उनको तो टेक्निक मालूम ही थी विनोद भैया चले फेंकने पूरी ताक़त लगा कर फेंका। गोले के साथ खुद गड्ढ़े के अंदर और आँखे मलते कीचड़ पानी से सने हाफ पैन्ट में बाहर निकले तो सबकी हँसते हँसते हालत ख़राब ! हैण्ड पम्प से जल्दी जल्दी धोने लगे चाची आ गई और ख़ूब गालियाँ विनोद भैया को की तू जानत नाईं का मुन्ना (बड़े भईया) का की यै केतना बड़ा मुरहा (शरारती ) हैं तू हैं तो सोचैक रहा !

इसी सब तरह के खुराफ़ातों में छुट्टियाँ निकल जातीं। शिकार पर तो मैं यहाँ भी जाती, पिताजी मुझे चुपचाप ले जाते बाबा चाची से बचा कर !

गर्मियों की छुट्टियाँ समाप्त हम ढेर सारी एनर्जी और खुशियाँ बटोर वापस !

ये गाँव में बिताई छुट्टियाँ होती कभी ननिहाल में बीतती तो वो कुछ और रंग की होतीं शहर में होने से !


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