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Prateek Satyarth

Drama

3.8  

Prateek Satyarth

Drama

अंतर्द्वंद्व

अंतर्द्वंद्व

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अभी कुछ ही क्षण पूर्व मेरे एक मित्र ने मेरी लिखी हुई एक कृति पढ़कर मुझसे कहा कि, "जब आप इतना अच्छा लिखते हैं, तो नियमित लेखनी क्यों नहीं करते ?"

उस वक्त मेरे पास उनके इस सवाल का कोई जवाब नहीं था या फ़िर यूँ कहें कि उस वक्त मेरे मन-मस्तिष्क में ऐसा कुछ था ही नहीं, जिसे मैं कलमबद्ध करने की चेष्ठा करता।

उस समय मैं वैचारिक रूप से कंगाल था, और मेरे पास ऐसा कुछ नहीं था, ऐसा कोई विचार नहीं था जिसको मैं अपने हृदय की गहराईयों से निकालकर अपनी डायरी के पन्नों पर उकेर सकूँ।

हाँ, इतना ज़रूर दिमाग में आया कि कुछ लिखना अवश्य चाहिए। आखिर कब तक अपने अंदर हिलोरें मार रही उद्भाव रूपी लहरों को अपने दिल रूपी समंदर में ही रहने दिया जाए ?

तब यह निर्णय लिया कि 'हाँ ! कुछ लिखना चाहिए'।

परंतु बड़ी दुविधा यह भी थी कि क्या लिखा जाए ? आखिर मैं ऐसा क्या अपनी कलम से लिख दूँ कि जिसे पढ़कर इस निष्प्रोज्य समाज को कुछ हासिल हो जाए, कि इस समाज में ज़रा सी जान का संचार हो जाए।

जिस अचेतावस्था में पड़े समाज को प्रेमचंद, रामधारी सिंह 'दिनकर', फणीश्वरनाथ रेणु व हरिवंश राय 'बच्चन' व तमाम महान लेखक व कलम के योद्धा भी अपने झकझोर देने वाले लेख और कविताओं से भी हरकत में न ला सके, वहाँ मुझ जैसे 'आज कल के लड़के' और 'नौसिखिए' की क्या मजाल कि अपनी कलम से चिर-निद्रा में लीन इस समाज को एक नया सवेरा दिखा सकूँ ?

'नहीं' ! शायद मैं अभी इस लायक नहीं हूँ कि मैं वह करने की हिमाकत दिखा सकूँ, जिन्हे बड़े-बड़े महान लेखकों ने किया परंतु विफ़ल रहे ।

इसलिए सब कुछ सोचकर, और अपने अक्ल के अश्वों को अति-तीव्र वेग से दौड़ा लेने के बाद भी यह निर्णय नहीं ले सका कि 'आखिर क्या लिखा जाए ?'

और व्यथित एवं अति व्याकुल मन से घर लौट आया।

घर में हो रही हलचल को देखकर और अपने पाँव में महावर लगाती हुई अपनी माँ को देखकर अक्समात् स्मरण हुआ कि आज तिलवाचौथ है।

'तिलवाचौथ'- हिंदू सभ्यता के अनुसार इस दिन हर माँ अपने बच्चे के लिए, उसकी दीर्घायु और उसकी सफ़लता के लिए पूरे दिन निर्जल व निराहार उपवास रहती है।

यद्यपि कुछ समय पूर्व तक मुझे यह पता था कि घर पर माँ ने मेरे लिए व्रत रखा है, मुझे पता था कि माँ ने सबके लिए भोजन की व्यवस्था की होगी, परंतु स्वयं जल की एक बूँद तक अपने कंठ के नीचे नहीं उतारी होगी।

मुझे पता था कि माँ को यह इंतज़ार होगा कि कब चंद्रमा आकाश की गोद में आएगा, ताकि वह अपने गोद के लाडले के लिए ईश्वर से प्रार्थना करे।

मुझे पता था कि माँ आज मेरी खुशी के लिए भूखी-प्यासी बैठी होंगी।

परंतु जैसा मैने उल्लेख किया कि यह सब मुझे याद था परंतु कुछ समय पूर्व तक...अब नहीं।

दोस्तों के साथ मौज-मस्ती में मैं यह भूल चुका था कि घर पर मेरी जननी मेरे सुखी जीवन की कामना लिए भूखी-प्यासी बैठी है।

परंतु महावर लगाती हुई माँ की आँखों में झाँकते ही मुझे एक बारगी पुन: यह स्मरण हुआ कि आज तिलवाचौथ है। लेकिन इस भूल का एक फ़ायदा भी हुआ, अथवा यूँ कहा जाए कि मेरी नियति ने मुझे मेरे प्रश्न का उत्तर दे दिया था। हाँ ! अब मुझे पूर्णत: यह ज्ञात था कि 'क्या लिखा जाए।'

प्रश्न भी मैने ही पूछा था, और जवाब भी मुझको स्वयं के भीतर से ही मिला।

जैसे-जैसे मेरी नज़रें माँ को निहारती जा रही थी, वैसे वैसे मेरे ज़ेहन से विचारों का प्रस्फुटित होना जारी था।

जैसे-जैसे चंद्र देव के आकाश में अवतरित होने की बेला समीप आती जा रही थी, वैसे-वैसे मेरे अंदर की...मेरे अंतर्आत्मा की चीखें बढ़ती जा रही थी।

उस समय कि वस्तु: स्थिति और मेरी मन: स्थिति का घटता और बढ़ता हुआ अंतर ही मुझे यह बताने के लिए काफ़ी था, कि मेरे अंदर चल रही आँधी कुछ ही क्षणों में शब्दों की बारिश बनकर मेरी कलम से निकलकर मेरी डायरी के पन्नों को भिगोने वाली है। उस वक्त मुझे खुद से ही घृणा हो रही थी व खुद को सज़ा देने का मन कर रहा था परंतु सज़ा से बढ़कर चिंतन होता है।

'चिंतन'- इस बात का, कि क्या मैं इतना स्वार्थी हो चुका हूँ, कि मुझे इस बात का स्मरण नहीं, घर पर मेरी माँ मेरे लिए, मेरी दीर्घायु के लिए, मेरी सफ़लता के लिए, मेरे उज्जवल भविष्य के लिए बिना अन्न और जल ग्रहण किए बैठी है।

'चिंतन'- इस बात का कि हमारे जन्म से आज तक जो माँ सदैव हमारी भूख मिटाने की खातिर खुद को भूखा रखने के लिए खुशी-खुशी तैयार हो जाती थी, आज हम बच्चे उसी माँ की अनदेखी कर रहे हैं।

'चिंतन'- इस बात कि हमारे जन्म से आज तक माँ ने सदैव हम बच्चों के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन किया है। परंतु बदले में हमने उन्हे क्या दिया ? (इस प्रश्न का जवाब दे पाना, फ़िलहाल मेरे लिए मुश्किल है)

मैं इन्ही 'चिंतनों' पर चिंतन कर रहा था कि अचानक माँ की पुकार से मेरी गहरी तंद्रा टूटी।

माँ मुझे छत पर बुला रही थी, शायद चंद्रदेव का आकाश में आगमन हो चुका था। लेकिन मेरे भीतर एक अलग सा 'अन्तर्द्वंद्व' जारी था। मेरे भीतर कुरूक्षेत्र में घटित हुए युद्ध से भी विशाल युद्ध चल रहा था। फ़र्क मात्र इतना था कि कुरूक्षेत्र के युद्ध में पांडवों का युद्ध कौरवों से हुआ था परंतु मेरे भीतर के युद्ध में मेरा सामना स्वयं मुझसे ही था। मैं ही खुद का विरोध कर रहा था और मैं ही खुद का बचाव भी कर रहा था। मैं स्वयं को निष्पक्षता के तराजू से तौल रहा था, सोच रहा था कि क्या मैं माँ के इस अगाध प्रेम के काबिल हूँ ?

क्या मैं इस काबिल हूँ कि माँ द्वारा मेरे लिए दिन भर निराहार व्रत रखा जाए ?

क्या मैंने अपने जीवनकाल में अपनी माँ के लिए कुछ भी ऐसा किया है, जिससे कि उनका मेरे उपर विश्वास और प्रगाढ़ हो गया हो ? क्या कभी मैंने कोई ऐसा कार्य किया है जिससे मेरी माँ का सर गर्व से उठ गया हो ? क्या कभी मैंने यह विचार किया है कि माँ ने मेरे लिए क्या-क्या सपने संजों रखे हैं ?

और अगर इन सभी मापदण्डों पर मैं खरा नहीं उतरता हूँ, या फ़िर इन सभी प्रश्नों का उत्तर 'नहीं' हैं, तब फ़िर उस स्थिति में मेरे पास खुद को धिक्कारने के सिवाय कुछ नहीं है।

इसका आशय यह है कि जन्म से लेकर आज तक मेरे द्वारा माँ के अपने प्रति प्रेम और स्नेह के साथ खिलवाड़ किया जा रहा था, व उन्होने जो सपने मेरे लिए देखे हैं और जिन सपनों को हकीकत बनते देखना ही उनके जीवन का एकमात्र ध्येय है, उन सपनों को मैं अपने स्वार्थ तले रौंदता आया हूँ।

अगर उनकी यह आकाँक्षा है कि वह मुझे स्थापित व्यक्ति के रूप में कामयाबी के पड़ाव पर देखना चाहती है और अगर वह चाहती है कि जिस चाह में, जिस उम्मीद में उन्होने अपनी ज़िंदगी के दो दशक सिर्फ़ मेरी ज़रूरतों को पूरी करते हुए और आखिरी के चार वर्ष मेरे पक्ष में रहते हुए पिता जी से लड़ते व तकरार करते हुए व्यतीत कर दिए, उन दो दशकों के कड़े संघर्ष को मैं एक सार्थक रूप प्रदान करूँ।

और अगर मैं इन तमाम उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाता हूँ तो मुझे स्वयं पर मात्र तरस आता है क्योंकि मुझे कोई हक नहीं है कि मैं अपनी माँ के सपनों का और उनकी उम्मीदों का उपहास करूँ।

मैं अभी मन ही मन खुद को कोस ही रहा था और अपने अभी तक के किए गए पाप का बहीखाता बना ही रहा था तभी अचानक माँ की आवाज़ में कानों में पड़ी, वह हाथ जोड़े ईश्वर से प्रार्थना कर रही थी कि 'मेरे बच्चे को सही मार्ग दिखाना।'

यह सुनकर मैने स्वयं से प्रश्न किया कि क्या आज मैं उसी मार्ग पर अग्रसर हूँ, जिस मार्ग पर मेरी माँ मुझे अग्रसित होते हुए देखना चाहती हैं ?

उसी एक क्षण में मैं अपने रास्ते पर अतीत की ओर पीछे (भूतकाल में) दौड़ गया, और बिना विलंब करते हुए शीघ्र ही वापस उसी रास्ते से भागते हुए विभिन्न कालखंडो में अपने द्वारा किए गए कृत्यों की एक बारगी पुन: झलक लेते हुए वर्तमान में वापस आ गया।

और फ़िर अंतर्मन से नाना प्रकार के स्वार्थ, लालच, अहंकार और अनगिनत पापों के ढेर के नीचे से एक दबी और सहमी हुई सच्चाई की एक धीरी सी आवाज़ आई- 'नहीं ! जिस राह पर मैं अभी तक सफ़र कर रहा था, यह उस राह से किसी भी प्रकार मेल नहीं खाती, जिस राह पर मुझे अग्रसर करने के लिए माँ अपने आराध्य से प्रार्थना कर रही थी। उस राह को तो मैं बहुत पहले ही पीछे छोड़ आया हूँ।'

ज़िंदगी के रास्ते पर मैं इतनी तीव्र गति से भाग रहा था कि मैं यह भूल ही गया कि जिस राह पर मैं अग्रसर था, उसका अंत एक अँधेर नगरी में होता है। उस राह पर आगे चलकर मुझे कुछ मिले या न मिले, परंतु मेरी माँ को सिर्फ़ दुख और दर्द की ही प्राप्ति होगी।

उसी वक्त अपने भीतर उत्पन्न हुए स्वयं के लिए घृणा भाव के चलते मैंने सोचा कि माँ से कह दूँ कि मुझे जैसे चेतना शून्य लड़के के लिए आपको खुद को दिन भर भूखा-प्यासा रखकर कष्ट झेलने की कोई आवश्यक्ता नही है ।

फ़िर सोचा कि मेरे इस आग्रह का भी कोई मतलब सिद्ध नहीं होगा, 'वह नहीं मानेगी, क्योंकि वह माँ है।'

इतिहास गवाह है कि आज तक कभी कोई माँ अपने बच्चों के हित से विपरीत कोई कार्य करने के लिए राज़ी नहीं हुई है, तो फ़िर मेरी माँ कैसे मान जाती ? परंतु स्वयं से मेरी नाराज़गी कुछ इस कदर थी कि लाख सोचने के बाद भी मैंने हिम्मत जुटाकर माँ से कहा- 'यह तिलवा चौथ का व्रत आपके मेरे लिए रखा गया अंतिम व्रत है, अब यह व्रत मत रखा करिए। कोई ज़रूरत नहीं है।'

माँ ने सुना और अपने भीतर का समस्त विश्वास बटोरकर और अपने आराध्य कि ओर एक निगाह फ़ेर कर बोली- 'नहीं ! मैं ऐसा नहीं कर सकती। मेरे व्रत रखने से ईश्वर तुम्हे सही रास्ता प्रदान करेंगे।'

उनके इस अपेक्षित से उत्तर को सुनकर मैने भी फ़िर कुछ नहीं कहा, बात पुन: उसी 'सही रास्ते' पर आ गई थी। आखिर मैं उनसे कैसे कहता कि जिस 'सही रास्ते' कि आप कामना कर रही हैं, वह रास्ता तो मुझसे बहुत पीछे छूट चुका है।

अपनी अज्ञानतावश व अपनी मूर्खतावश मैने उस सही रास्ते की तरफ़ कभी ध्यान ही नहीं दिया। मैंने उस रास्ते पर अपने कदम बढ़ाने के कभी कोई जत्न ही नहीं किया, जिस रास्ते की आपको कामना थी। मैं अपनी ज़िंदगी के रास्ते को अपने हिसाब से और अपनी सुविधा अनुसार चुनना चाहता था, और शायद वही मेरी सबसे बड़ी गलती थी। लेकिन इस वक्त मैं माँ को अपनी गलती बताकर, उनके मेरे प्रति अपने विश्वास को खंड-खंड नहीं करना चाहता था।

मैं यह हरगिज़ नहीं चाहता था कि उनको अपना आज तक का मेरे लिए किया हुआ सारा व्रत व्यर्थ लगने लगे, और मेरे लिए की हुई तपस्या निर्रथक। मैंने अपनी नम आँखों से उनके चेहरे की तरफ़ एक हल्की सी निगाह डाली, उनका चेहरा विश्वास और कांति से चमक रहा था। और पुन: अपनी नम आँखों को छत पर फ़ैले हुए अँधेरे की ओट में छिपाने की कामयाब कोशिश की क्योंकि मैं यह हरगिज़ नहीं चाहता था कि उस वक्त मेरी आँखों में आँसू देखकर माँ के चेहरे पर कोई भी शिकन आए।

आज पहली बार मुझे अपना रास्ता बिल्कुल गलत और निर्रथक प्रतीत हो रहा था। मुझे मदद चाहिए थी। ईश्वर की मदद...!

लेकिन मैं उनकी मदद की आस में उपर आसमाँ की तरफ़ भी नहीं देख सकता था, क्योंकि मेरा सिर खुद मेरी ही नज़रों में झुकता जा रहा था। अपने द्वारा आज तक किए गए अपनी माँ के साथ विश्वासघात का भार मुझ पर इतना ज़्यादा था कि मेरा सिर और गर्दन उस असहनीय भार को झेल पाने में असमर्थ साबित हो रहे थे। आज पता चला कि गलत रास्ते पर चलते हुए व्यक्ति की चरम अवस्था यह भी होती है कि वह अपनी ही नज़रों में गिरने लगता है, और इतना गिर जाता है कि वह ईश्वर से मदद की चाह में अपना सिर उठाकर उपर भी नहीं देख पाता।

लेकिन मदद की मुझे सख्त ज़रूरत थी...उतनी जितनी एक प्यासे को रेगिस्तान में पानी की होती है, या फ़िर शायद उससे भी ज्यादा।

तभी सोचा कि जब ईश्वर साक्षात् मेरे चक्षुओं के समक्ष ही विराजमान है, तो मुझे किसी प्रतीकात्मक ईश्वर को ढूंढ़ने के लिए उपर आकाश की ओर या फ़िर अंन्यत: कहीं देखने की क्या ज़रूरत है ?

हाँ ! मेरी माँ...मेरी ईश्वर !

मैनें आस्था से उनकी तरफ़ देखा और इस कथन को सिद्ध होता पाया कि "माँ सब जानती हैं।" मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि वह मेरी अंतर्मन की हालत से भली-भाँति परिचित थी, और वह यह समझ रही थी कि उसके अंश के मन में कैसा अंतर्द्वंद चल रहा है।

सच में वह सब जानती थी...

वह जानती थी कि मैं भटक गया था, वह जानती थी कि मैं लड़खड़ा रहा था।

परंतु उनकी आँखों में यह विश्वास साफ़ झलक रहा था कि एक न एक दिन मैं सही रास्ते पर ज़रूर वापस आऊँगा। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि हम दोनों के परस्पर एक मूक वार्तालाप चल रहा हो। मैं, माँ के पास गया और बगल में बैठ अपनी आँखे बंद कर मन ही मन उनसे संपर्क स्थापित कर यह बताने की कोशिश कि - 'माँ, मेरी मदद करो। मैं गलत मार्ग पर हूँ, लेकिन अपनी गलती सुधारना चाहता हूँ। मुझे उचित मार्ग दिखाओ, मेरा मार्गदर्शन करो। आज तक मैं अापके विश्वास को अपना खिलौना बनाकर, उसके साथ जी भर के मनमाफ़िक तौर पर खेलता रहा, आपकी ममता का गलत व नाजायज़ फ़ायदा उठाता रहा, आपको सदैव कष्ट पहुँचाता रहा हमेशा आपके विश्वास पर अपने झूठ और फ़रेब की चोट करता रहा।

लेकिन बस ! अब और नहीं !

मैं आपके मेरे प्रति विश्वास को और खंडित नहीं होने दूँगा। आपने मेरे लिए जो संघर्ष किया है, जितना कष्ट सहा है, मुझे जितना बर्दाश्त किया है, उन सब की मेरे नज़र में बहुत अहमियत है। मैं आपके त्याग को व्यर्थ नहीं जाने दूँगा।

इतना प्रण लेने के बाद मैंने अपने चक्षुओं को खोला। मुझे अभी भी ईश्वर के उस हाथ की तलाश थी, जिसको थाम कर में कुमार्ग से सन्मार्ग के मध्य का फ़ासला तय कर सन्मार्ग की तरफ़ अपने कदम बढ़ाता।

कहते हैं कि इस संसार कि हर उलझन और हर सवाल का जवाब का जवाब माँ के श्री चरणों में होता है, इस कथन की सत्यता को परखने के लिए मैं माँ के चरणों का स्पर्श करने के लिए झुका और फ़लस्वरूप मुझे मेरे सिर पर आशिर्वाद प्रदान करते हुए उस हाथ की प्राप्ति हुई, जिस हाथ की मुझे तलाश थी।

मैं उठा और प्रश्नवाचक निगाहों से माँ की ओर देखा, मुझे ऐसी अनुभूति हुई कि जैसे माँ मुझसे कह रही हो 'बेटा मुझे पता है कि तुम परेशान हो, स्वयं से क्षुब्द हो। अपना मार्ग परिवर्तित करना चाहते हो और तुम्हें सही रास्ते की तलाश है । तुम उस रास्ते को हासिल करना चाहते हो जिसे तुम्हारे द्वारा बहुत पहले पीछा छोड़ा जा चुका है।

परंतु तुम्हें व्याकुल व परेशान होने की आवश्यक्ता नहीं है, क्योंकि ईश्वर सदैव अपने भक्तों की चिंता करता है। वह उन भक्तों की सहायता के लिए सदैव तत्पर रहता है जो अब तक भटके हुए थे।

उसके वह भक्त जो किसी कारणवश कुमार्ग पर निकल पड़े थे, उनके लिए वह (ईश्वर) सदैव एक-दूसरे मार्ग का निर्माण करता है, जो उस कुमार्ग से कुछ ही दूरी पर उसी के समांतर चल रहा होता है।

शायद तुमने कभी ध्यान न दिया हो लेकिन जिस राह को तुम काफ़ी पीछे छोड़ आए थे, वह राह उस समय से ही तुमसे कुछ ही दूरी पर लालच, कपटता, स्वार्थ, अहंकार रूपी झाड़ियों और सरपत के पीछे उसी कुमार्ग के समांतर चल रही थी जिस कुमार्ग पर आज तक तुम सफ़र करते आए हो।

परंतु तुम्हारी आँखों पर बँधी लालच और स्वार्थ की पट्टी के कारण तुम उस राह को देख नहीं पाए।

इतना सब कुछ माँ ने आँखों ही आँखों में मुझे बता दिया था। मैं कृतार्थ की अनुभूति से गुज़र रहा था, मैं अपनी माँ द्वारा अवतरित की जा रही ज्ञान और प्रेम की वर्षा में नहा रहा था।

मैंने तत्काल इस गलत राह को अलविदा कहकर उस राह पर आने का निर्णय लिया जिस राह से मैं बीते आठ वर्षों से अनजान था।

मैं जब अपने वर्तमान मार्ग (कुमार्ग) के किनारे को पार करने के लिए बढ़ा तो पाया कि विभिन्न प्रकार की बुराईयाँ, लालच, तमाम प्रकार की विलासिता, झूठ फ़रेब, छल-कपट रूपी काँटो भरी झाड़ियाँ मेरे रास्ते को अवरूद्ध कर रही थी, क्योंकि वह बुरी आदतें यह कदापि नहीं चाहेंगी कि कोई व्यक्ति कुमार्ग को त्याग कर सन्मार्ग पर अग्रसर होने की कोशिश भी करे।

वह बुरी ताकतें मेरा रास्ता रोकने का भरसक प्रयत्न कर रही थी, मुझे तमाम अनैतिक प्रलोभन देकर मुझे अपने जाल में पुन: फँसाने की चेष्ठा कर रही थी ।

परंतु मैं सभी प्रलोभनों को दरकिनार करते हुए उन्हे चीरते हुए आगे बढ़ता जा रहा था।

उस वक्त मेरे ज़ेहन में सिर्फ एक तस्वीर थी...मेरी माँ की तस्वीर और यह तथ्य तो सर्व विदित है कि 'माँ' के विषय में सोचकर उठाया गया कदम कभी गलत पड़ ही नहीं सकता। फ़लस्वरूप मैनें भी उन सभी बाधाओं को चीर कर उनसे पार पाने में सफ़लता पाई।

पार आते ही वहाँ के (सन्मार्ग के) उज्जवल प्रकाश से मेरी आँखे चौंधिया गई, और यह तो अवश्यसंभावी था क्योंकि आज न जाने कितने वर्षों बाद मुझे रोशनी मिली थी। जिन आँखों को अँधेरे की आदत पड़ गई थी, उन आँखों को उज्जवल सवेरा नसीब हुआ था।

मैंने आखिरी बार पीछे मुड़कर देखा, मैंने पाया कि पीछे की अँधेरी दुनिया से हर कोई मुझे वापस उसी पुरानी राह पर लौटने के लिए गुहार लगा रहा था, निवेदन कर रहा था। हर कोई मुझे नाना प्रकार के लोभ लालच दिखाकर वापस उस घुप्प अँधेरी राह पर लौट आने के लिए उकसा रहा था।

परंतु मुझे अब वापस नहीं लौटना है, अतएव मैनें अपना चेहरा पलट लिया और साथ ही अपने मन के अंतर्द्वंद्व पर विजय प्राप्त कर ली।

मेरी नज़र में वह व्यक्ति कहीं ज्यादा शक्तिशाली है जिसने अपने आप पर विजय हासिल कर ली हो बजाय उसके जिसने युद्ध में सहस्त्रों पर विजय प्राप्त की हो।

आपने भले सैकड़ों युद्ध जीते हो, हज़ारों की संख्या में दुश्मनों को अपने समक्ष घुटनों पर ला दिया हो, परंतु अगर आप खुद से नहीं जीत पाए, अपने भीतर छिपे बुरे इंसान की बुरी ताकतों से नहीं जीत पाए, तब फ़िर आपके द्वारा जीती गई वह सारी लड़ाईयाँ वह सारे युद्ध, सब निर्रथक है।

वास्तविकता में वही इंसान सर्वशक्तिमान है, बलशाली है, जिसने कभी अपने भीतर की बुरी आदतों को पनपने का मौका नहीं दिया हो।

क्योंकि अगर इंसान ने स्वयं की सिर उठाती हुई बुराईयों का त्वरित नाश नहीं किया और उन्हें पनपने का मौका दे दिया, तब फ़िर वह भविष्य में आपकी सबसे बड़ी दुश्मन के रूप में उभर कर आपके समक्ष खड़ी होगी, और तत्पश्चात् शायद आपको उन्हे चुनौती प्रदान करने में काफ़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ जाए।

खैर, मैंने तो नए रास्ते पर अपने सफ़र की शुरूआत कर दी है, फ़िलहाल तो अभी कुछ ही कदम का फ़ासला तय किया है या फ़िर यूँ कहूँ कि अभी तो केवल अपने मार्ग का चुनाव भर किया है, अभी तो मीलों का सफ़र तय करना शेष है।

लेकिन इतना विश्वास ज़रूर है कि जब आगाज़ किया है तो अंज़ाम तक भी अवश्य पहुचूँगा, क्योंकि इस राह पर पथ प्रदर्शक के रूप में मेरी माँ जो मेरे साथ है।


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