बारात
बारात
मेरी सुबह आज खास थी, और उसकी भी। कल हल्दी के बाद मैंने और आकाश ने देर तक बातें की। आकाश के हर सवाल में मैं थी और मेरे हर जवाब में वो। वो रहता मेरे पड़ोस में था, फिर आहिस्ता-आहिस्ता दिल में।
आज बारात निकलने वाली थी वहाँ से, और मेरी डोली, यहाँ से। इंतज़ार बस उन राहों को था जो उसके द्वार से मेरे द्वार तक जुड़ते हो। मंडप सजा, दीप जलें, फूलों की रंगोली आँगन में मुसकुराती हुई मैं, कुछ शर्माती हुई। आकाश के पापा ने घर से निकलते हुए हमें खबर की। फिर क्या, सहेलियों की टोली छत पर दूल्हे को देखने बेकरार पहुँची।
बारात आधे घंटे देरी से, घोड़े पर बैठ वो आया, बैंड-बाजा आगे-आगे, मेरी चाहत पीछे-पीछे। खिड़की के उस ख़ामोश दायरे से मैंने झाँका। घर के सामने बारात रुकी, अजय ने मुझे दुल्हन के रूप में देखा। वो मुस्कुराया, मैं मुसकुराई। एक तीर सी रौशनी जमीन को विदा कर आसमान को छूई, आँखों ने आँसू पीये, और वो चला गया।
होश में जब आई, मैं खुश थी। साथ फेरो ने मुझे आकाश का बनाया, क्योंकि मुहब्बत करना मुझे आकाश ने सिखाया। मेरे अतीत को आकाश ने अपनाया और उनके दिल को मैंने।
प्यार शायद ऐसे ही होता है, और मैं आकाश को सब से ज्यादा प्यार करती हूँ वरना बारात समय पर आती।