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महक

महक

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आषाढ़ का नम बेरंगा सा दिन, ऊपर आसमान में बादलों की धुंध में ठहरा धब्बे सा सूरज। मौसम की मार से बेखबर, उस टाट पट्टी के पैबन्दो से ढके हुए आशियाने से उठता, गहरा स्याह धुआं, माहौल को कुछ और अनमना सा बनाए दे रहा था। ईट को अटाकर बनाए गए चूल्हे पर चढ़ी देगची में कच्चे आलू की तरकारी उबल रही थी। फाका कशी और भुखमरी के दो दिनों के बाद आज रशीदा के घर फिर चूल्हा जला था। कांच की बोतलों, बीनी गई पन्नियों और खाली कनस्तर, कचरे से बीनने के बाद आज पचास रुपये की आमदनी हुई थी। इस आमदनी से खरीदे गए भरपेट भोजन के बारे में सोचकर रशीदा के होठों पर संतोष के मुस्कान की धूप फैल गयी।


हफ्ते में अक्सर दो या तीन बार फाका कशी की नौबत मुंह बाए खड़ी रहती। सुबह तो जैसे तैसे पेट भर जाता लेकिन शाम का भोजन अक्सर अनचाहे उपवास मे तब्दील हो जाता। गट्टू, मुन्नी, छोटी और गुड़िया तो जैसे तैसे संभल जाते लेकिन छुटका सा बाबू, भूखे पेट बिल बिला जाता। भूख के मारे रोते-रोते नन्हे बाबू को जब रशीदा किसी तरह बहला नहीं पाती तो रात में, उसे अपनी सूखी छाती से लगा लेती। भूखे पेट रशीदा की छाती से जब एक बूंद भी दूध ना उतरता तो बाबू झुंझला के दांत गड़ा देता। दर्द से कराहती रशीदा उसे तड़ा तड़ दो चांटे रसीद कर देती। भूख से हारा बाबू इस अप्रत्याशित चोट से सहम कर नींद के आगोश में सो जाता और इस तरह एक रात और निकल जाती। सुबह सवेरे बाबू को एक फटी मैली साड़ी से अपनी कमर पर बांध रशीदा फिर कचरा बीनने निकल पड़ती।


 अपने इस कूड़ा बीनने के काम में उसने अपने चारों बच्चों को भी लगा दिया था। नन्हे हमउम्र बच्चों का कचरा बीनने का प्रशिक्षण, शाम को मिलने वाली टिक्कड़ की शक्ल की चपाती का स्वप्न बन कर हाथों के फफोले में जग जाता।


 आज सुबह जब चारों बच्चे कूड़े को सरसरी तौर पर खंगाल रहे थे तो कचरे में अचानक एक नरम चमड़े का सा अहसास, गट्टू को हुआ। करकट में थोड़ा अंदर हाथ डालकर टटोलने के पश्चात एक काले रंग का मनी पर्स उसके हाथ लगा। खोलकर देखा तो उसमें सौ सौ के पांच छः नोट तरतीब से रखे हुए थे, शायद किसी का पर्स जेब से गिर गया था। इतने सारे पैसे एक साथ देखने के पश्चात चारों बच्चों की आंखें आश्चर्य से भर गई। एक दिन का नहीं बल्कि आठ-दस दिन के भरपेट भोजन का इंतजाम उस काले पर्स से झांक रहा था। चारों बच्चों के बीच सन्नाटा पसर गया। मुन्नी और छुटकी की आंखों में खाने के आगे बर्फ का मलाई गोला और खट्टी मीठी फुलकी चाट नाच गई। तकरीबन आधा घंटा चिंतन मनन करने के पश्चात गट्टू ने यह निश्चित किया कि यह पर्स उसके असली हकदार को पहुंचाया जाएगा। पर्स के अंदर खंगालने पर एक विजिटिंग कार्ड मिला जिस पर एक फोन नंबर लिखा था। उसी पर्स में से एक पांच का सिक्का निकाला और पर्स के मालिक को फोन किया गया। पर्स का असली हकदार कुछ ही देर में हाजिर हो गया। पर्स का मालिक बच्चों की इस ईमानदारी से बहुत प्रसन्न था। उसने इनाम के बतौर कुछ रुपए बच्चों को दिए।


शाम को बच्चों ने रशीदा को वह नोट थमाते हुए पूरी बात बताई। रशीदा अपने बच्चों की इस ईमानदारी से बेहद प्रसन्न और गर्व से भर गई। रशीदा ने उन पैसों से आज चावल खरीदें और एक नन्हा सा मक्खन का पैकेट भी खरीदा। मक्खन और नमक में उबले गरमा गरम चावल को बच्चों के कटोरे में पलट दिया। फूंक मारकर गरमा गरम महकते चावल खाते बच्चों को देखकर रशीदा की आंखों में इस बार सुख के आंसू और होठों पर गर्व की मुस्कान फैल गई।


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